या राजनीती के तड़के?
जैसे, ज़मीनखोरों के ज़मीनी धंधे, शिक्षा और राजनीती के नाम पर? कहाँ रखना चाहेंगे आप इस पोस्ट को? बताना पढ़ कर।
तो आप सबकुछ बेचकर बाहर जा रहे हैं?
क्या?
आप सबकुछ बेचकर बाहर जा रहे हैं?
क्या?
और जोर लगाकर, आप सबकुछ बेचकर बाहर जा रहे हैं?
क्या?
कहीं से आवाज़, तेर अ जिसे फदवाँ की ना सुना करअ यो। तेनअ के लागय सै, यो बहरी सै? अक तू अ घणा स्याना सै आड़अ सी?
सही कह सै दादा। इन्ह जिसे स्याणे तै न्यूं अ चाहवें सै अक सबकुछ इनकै नाम कर जावाँ। वा एक स्याणी सुणी पहल्यां किसै आशीष तै कहती बताई, "या स्कूल कै साथ आली जमीन म्हारे तै दैवा दे, तने पाँच लाख दे दूँगी"
कौन सी स्याणी?
वाहये स्याणी और कौन?
हाँ बेबे सुणा तै मैंने भी था, अक दूसरा भी अपणी सारी इन्हें तै बेच कै कितै जा सै।
दादा, दुनिया जा सै बाहर तै। इसे-इसे ज़लीला तै, वें आपणे घर-किले दे जाँ सैं के?
ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, किस्से कहानी, ऐसी-ऐसी जगहों पर चलते ही रहते हैं? क्या खास है?
ऐसे-ऐसे स्कूल, हॉस्पिटल या दो धेले के धन्ना सेठ, सिर्फ गरीबों को ही नहीं, अपने आसपास वालों को भी लूटते या लूटने की कोशिश करते ही रहते हैं? खतरे बहुत बार बाहर वालों से कम और शायद अपनों से ज्यादा होते हैं?
राजनीती वालों का या बड़ी-बड़ी कंपनियों का गठजोड़ ऐसे ही नहीं है। ये गरीब या धेले के धन्ना सेठ, जहाँ 2 कौड़ियों के लिए आसपास को खाते मिलेंगे। वहीँ so called बड़े लोग? जिस पार्टी में और जिधर देखो, उधर लंका लगी पड़ी है। इसलिए ये सामान्तर घड़ाईयाँ घडते हैं और so called बड़े लोग, उन बड़ी कुर्सियों पर बैठकर या तो खुद भी ऐसा कुछ ईनाम में पाते रहते हैं या खुद ही ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे कांडों के रचयिता होते हैं। इसलिए हर सामान्तर घड़ाई को एक और नया केस के रुप में देखना चाहिए। क्यूँकि, वहाँ ऊपरी सतह से आगे बड़े ही रौचक राज छुपे होते हैं, ऊपर वालों की साँठ-गाँठ के। कैसे? कभी जानकार देखिए की असली केस और सामान्तर घड़ाई में फर्क क्या है?
कुछ एक ऐसे केस आगे पोस्ट्स में आ सकते हैं। पीछे तो पोस्ट्स में कहीं न कहीं पढ़े ही होंगे? जैसे Campus Crime Series या Political Diseases. ठीक ऐसे जैसे, राई के पहाड़ कैसे बनते हैं।
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