16 मतलब?
About Me
- VY Dangi
- Happy Go Lucky Kinda Stuff! Curious, atheist, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Writing is drug, minute observer, believe in instinct, in awesome profession/academics. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.
Thursday, April 25, 2024
दिमाग और तंत्रिका तंत्र?
Wednesday, April 24, 2024
Story, Board and Games (GM)
GM अगर बोलें तो आपके दिमाग में क्या आएगा?
Grand Master? Chess?
Gmail?
Genetically Modified? BT Cotton?
कोई GM सरकार जैसे?
या ?
पता नहीं क्यों इस गाने को देखा तो लगा, ये तो किसी GM fight-सा है शायद?
Story-Board-Games
Story-Board-Games
इसमें सारी दुनियाँ आ गई। आपकी, मेरी, इसकी, उसकी और भी ना जाने किस, किसकी। फिर फर्क नहीं पड़ता की आप पढ़े लिखे हैं या अनपढ़। कम पढ़े लिखे हैं या ज्यादा? नौकरी करते हैं, इसकी, उसकी या किसकी? कोई अपना व्यवसाय है या बेरोजगार हैं? गरीब हैं? अमीर हैं? या मध्यम वर्ग? महल में रहते हैं या झोपड़ी में? भगवान में विश्वास करते हैं या नहीं। यहाँ आपको सब देखने को मिलता है। किस्से-कहानीयों में। इनके किस्से कहानी या उनके किस्से कहानी या जिस किसी के भी किस्से कहानी। जिनमें बहुत बार ऐसा लगता हैं ना की ये तो इसके या उसके या शायद आपके खुद के साथ ही जैसे हो रखा हो? क्यूँकि, किस्से कहानियाँ समाज से ही आते हैं। बस उनमें थोड़े कम या ज्यादा सुनाने या दिखाने वालों के भी तड़के लग जाते हैं।
तो किस्से-कहानी मतलब Story
कहानी के अलग-अलग हिस्से या क्रोनोलॉजी मतलब Story Board
इसी Board को अगर Classes से थोड़ा आगे कुर्सियों का हिस्सा बना दें, तो हो गया Board Games. मतलब दिमागी खेल, जो मीटिंग्स या फाइल्स के द्वारा चलते हैं। ये किसी भी सिस्टम का दिमाग हैं। दिमाग जैसे शरीर को चलाने के लिए शरीर के अलग-अलग हिस्सों का प्रयोग करता है। ये भी समाज का प्रयोग या दुरुपयोग ऐसे ही करते हैं। अब वो प्रयोग हो रहा है या दुरुपयोग, इसका अंदाजा वहाँ के समाज के हालातों से लगाया जा सकता है।
दिमाग के संदेशों को आगे बढ़ाने के लिए जैसे तंत्रिका-तंत्र काम करता है, ऐसे ही इन Board Games को आगे बढ़ाने के लिए या इनके किर्यान्वन के लिए इनकी फैलाई गई शाखाएँ और उनके समाज पर प्रभाव। Networking . कुछ-कुछ जैसे Neural Networks. ये नेटवर्क्स अहम हैं। ये आपका भला चाहने वाले हैं तो ज़िंदगी सही जाएगी। लेकिन इन्हीं में अगर गड़बड़ है, तो वो ज़िंदगियाँ या समाज का वो हिस्सा ज्यादातर झेलता मिलेगा। इसपर फिर कभी आसपास के ही केसों के माध्यम से।
अभी अगली पोस्ट में Story Board Games को थोड़ा और जानने की कोशिश करते हैं।
धर्म? विश्वास? आस्था? रीती-रिवाज़? या?
धर्म? विश्वास? आस्था? रीती-रिवाज़?
या?
पढ़े-लिखों का राजनितिक अखाड़ा?
Story
Board
Games
Story Board?
कहानी, जैसे किस्से-कहानियाँ? इनके (आम आदमी) किस्से-कहानियाँ? या उनके किस्से-कहानियाँ? या उनके या किनके किस्से-कहानियाँ?
धर्म? विश्वास? आस्था? रीती-रिवाज़? या ऐसा कुछ भी, जो आप सोचते हैं या सोच सकते हैं? या करते हैं? या कर सकते हैं?
Board Games?
शिक्षा? शिक्षा का अखाड़ा? पढ़े-लिखों के किस्से-कहानियाँ? या ऐसा कुछ भी, जो ये पढ़े-लिखे सोचते हैं या सोच सकते हैं? या करते हैं? या कर सकते हैं?
इन पढ़े-लिखों में ज्यादातर वो पढ़े-लिखे नहीं आते, जो सिर्फ और सिर्फ नौकरी के लिए डिग्रीयाँ लेते हैं। या सिर्फ और सिर्फ, पैसे के लिए नौकरी करते हैं।
और बन गया एक ऐसा सिस्टम या जहाँ, जो ये बनाते हैं या बनाना चाहते हैं।
Games? दिमागी खेल? = पढ़े लिखे
बातों ही बातों में या मिल-बैठकर काम करने वाले या निकालने वाले।
या निरे लठ मार = ? ज्यादातर को पता ही नहीं होता, ये मिलबैठकर बात करना क्या होता है? यहाँ
जिसकी लाठी, उसी की भैंस होती है।
शिक्षा हमारा मनोरंजन करती है, और मनोरंजन? वाली पोस्ट से इस पोस्ट का क्या लेना-देना?
शिक्षा हमारा मनोरंजन करती है, और मनोरंजन ?
शिक्षा हमारा मनोरंजन करती है?
और मनोरंजन हमें शिक्षा देता है?
एक गाने से ही जानने की कोशिश करें?
Monday, April 22, 2024
Earth Day?
धरती का भी दिन होता है? सुना है, है, 22 अप्रैल।
किसने शुरू किया होगा? क्यों शुरू किया होगा? और क्या सोचकर? इतने सालों पहले भी लोगों को धरती की चिंता होती थी। और आज भी होती है? अच्छा है।
जैसे आज के हमारे नेता लोग, शायद कुछ-कुछ ऐसे बोलते हैं --
Save Earth
Crazy, Crazy World!
वो गाने ऐसे देखती है, जैसे नंगी-पुंगी गुड़ियाँ । ऐसे लोगों के लिए --
वो experiment ऐसे करते हैं, जैसे सालों पहले किसी ने बोला था, एक ऐसा Forensic चल रहा है, जहाँ सब नंगा-पुंगा है। लोग इंसानों पे जानवरों से भी बदत्तर experiments कर रहे हैं। और जिसमें पुलिस, डिफ़ेंस, सिविल, इंटेलिजेंस सब शामिल हैं। ईधर भी और उधर भी।
India's Shashi Tharoor and Pakistan's?
इसे-इसे, माणसां पै कुछ जमता-सा नहीं है ना, भारत का शशि थरुर और पाकिस्तान का इमरान खान?
ये तो India's Shashi Tharoor and Pakistan's Imran Khan ही कहने में थोड़े जमते-से हैं?
हिंदी में यूँ कह सकते हैं,
वो किसना है?
या 1, 2 का 4?
और हरियान्वी में ?
जो अपने आपको ठेठ हरियान्वी समझते हैं, वो बताएँ?
वैसे गानों से परे, वापस शशि थरुर और इमरान खान पे आएँ? आप क्या सोचते हैं, इन दो महानों के बारे में? एक बॉर्डर के इस पार और दूसरा? बॉर्डर के उस पार?
Depends की सन्दर्भ क्या है? अगली पोस्ट में जानने की कोशिश करते हैं।
Sunday, April 21, 2024
कैसी ये स्याही (Ink) होगी? कैसा चुनाव और कैसा तंत्र?
पीछे पोस्ट में मेरी तरफ से भारत में चल रहे चुनाव का बहिष्कार था।
अब ऊँगली पे लगने वाली स्याही का बहिष्कार है।
कैसा चुनाव और कैसा तंत्र?
कैसी ये स्याही (Ink) होगी?
लोगों को सतर्क करने की ज़रुरत है, शायद?
कैसे युद्धों की दास्ताँ हैं ये?
कितने ही निशान कहाँ जाते हैं?
वो तो रह जाते हैं अक्सर,
वो सुन्दर-सी मैम,
जिन्हें देखा एक दिन कहीं
और जाने क्यों,
देखती ही रह गई
कुछ और कैंसर याद आ गए थे
शायद ईधर-उधर।
ऐसे ही जैसे,
वो जबरदस्ती जैसे,
बालों को उड़ाने का प्रोग्राम चला था
"आप पे छोटे बाल सुन्दर लगेंगे"
मगर कितना कुछ जानकर भी
मैंने वहाँ जाना कहाँ छोड़ा था?
जिज्ञाषा थी शायद, कुछ और जानने की
की ये चल क्या रहा है?
ये जानते हुए भी,
की यहाँ कुछ भी हो सकता है।
बीजेपी का आना, और किसी का,
PGI जाना।
जैसे समझाया हो किसी ने, बातों ही बातों में
दिल नहीं कर रहा था, यकीं करने पर,
मगर,
उसी PGI के दाँत के ईलाज (?) ने
2018 में कितना कुछ गाया था ?
बीमारी और राजनीती की खिचड़ी?
या मौतों पे, मसखरों या मख़ौलियों के झुँड?
शायद किसी भी इंसान के दिमाग से परे,
किन्हीं अजीबोग़रीब भेड़ियों की कहानियाँ जैसे।
बुद्धिजीवी? पढ़े-लिखे लोगों के कारनामे?
या ज्ञान-विज्ञान के दुरुपयोग के भद्दे ठप्पे?
कुढ़े हुए लोगों द्वारा जैसे?
कैसे युद्धों की दास्ताँ हैं, ये?
और कैसी राजनीती का ये ताँडव?
कैसी ये स्याही (Ink) होगी?
लोगों को सतर्क करने की ज़रुरत है, शायद?
Monday, April 15, 2024
मैं क्या और कहाँ-कहाँ से पढ़ती हूँ?
What Media I Consume?
मीडिया में मेरे हिसाब से तो बहुत कुछ आता है। मीडिया, मेरे लिए शायद वो इकोलॉजी है, जो हमारे जीवन को किसी भी प्रकार के जीव-निर्जीव के सम्पर्क में, जाने या अंजाने आने पर, या आसपास के समाज के बदलावों से भी प्रभावित करता है। जैसे माइक्रोलैब मीडिया, सूक्ष्म जीवों को। मगर यहाँ मैंने उसे नाम दे दिया है, सोशल माइक्रोलैब मीडिया कल्चर। लैब मैक्रो (बहुत बड़ी) है, मगर उसे समझने के लिए सुक्ष्म स्तर अहम है।
जो कुछ भी मैं लिखती हूँ, वो इसी मीडिया से आता है। सामाजिक किस्से-कहानियाँ खासकर, राजनितिक पार्टियों द्वारा, ज़िंदगियों या समाज के साथ हकीकत में धकेले गए तमाशों से।
पढ़ती क्या हूँ?
कुछ एक अपने-अपने विषयों के एक्सपर्ट्स के पर्सनल ब्लोग्स (blogs)। कई के बारे में आप पहले भी किन्हीं पोस्ट में पढ़ चुके होंगे। जैसे,
Schneier on Security https://www.schneier.com/
Security Affairs https://securityaffairs.com/
कुछ यूनिवर्सिटी के Blogs, Nordic Region, Europe से खासकर। जिन्हें पढ़कर ऐसा लगे, की ये आपसे कुछ कहना चाह रहे हैं शायद, या कुछ खास शेयर कर रहे हैं।
कुछ एक न्यूज़ चैनल्स, ज्यादातर इंडियन। कुछ एक वही जो अहम है, जिन्हें ज्यादातर भारतीय पढ़ते हैं। ईधर के, उधर के, किधर के भी पढ़ लेती हूँ या देख लेती हूँ। पसंद कौन-कौन से हैं? कोई भी नहीं? थोड़ा-सा ज्यादा हो गया शायद? मोदी भक्ती वाले बिलकुल पसंद नहीं। हाँ। वहाँ भी बहुत कुछ पढ़ने लायक और समझने लायक जरुर होता है। जैसे एक तरफ, कोई भी पार्टी, मीडिया के द्वारा अपना एजेंडा सैट कैसे करते हैं? और जनमानष के दिमाग में कैसे घुसते हैं? तो कुछ में खास आर्टिकल्स या आज का विचार जैसा कुछ होता है। जो भड़ाम-भड़ाम या ख़ालिश एजेंडे से परे या एजेंडा होते हुए भी, मानसिक शांति देने वाला होता है या सोचने पर मजबूर करने वाला। कुछ एक के आर्टिकल्स, आपके आसपास के वातावरण के बारे में या चल रहे घटनाक्रमों के बारे में काफी कुछ बता या दिखा रहे होते हैं। कुछ एक फ़ौज, पुलिस या सुरक्षा एजेंसियां, सिविल एरिया में रहकर या बहुत दूर होते हुए भी, काम कैसे करती हैं, के बारे में काफी कुछ बताते हैं। कुछ एक, राजनीती पार्टियों की शाखाओं जैसी पहुँच, आम आदमी तक और उनके द्वारा अपने प्रभाव या घुसपैठ के बारे में भी लिखते हैं।
दुनियाँ जहाँ की यूनिवर्सिटी के वैब पेज, मीडिया, मीडिया टेक्नोलॉजी खासकर, या बायो से सम्बंधित डिपार्टमेंट्स के बारे में। जो थोड़ा बहुत जाना-पहचाना सा और अपना-सा एरिया लगता है।
ये जानने की कोशिश की, क्या दुनियाँ की किसी भी यूनिवर्सिटी के वेब पेज या प्रोजेक्ट में ऐसा कुछ भी मिलेगा, की कोरोना-कोविड-पंडामिक एक राजनितिक बीमारी थी? और कोई भी बीमारी, राजनितिक थोंपी हुई या धकाई हुई हो सकती है? सीधा-सीधा तो ऐसा कुछ नहीं मिला। मगर, ज्यादातर बीमारियाँ हैं ही राजनीती या इकोसिस्टम की धकाई हुई, ये जरुर समझ आया। और वो इकोसिस्टम, वहाँ का राजनितिक सिस्टम बनाता है। कुछ बिमारियों पर, किसी खास वक़्त, राजनीती के खास तड़के और कुर्सियों की मारा-मारी है। उसे तुम कैसे देख या पढ़ पाओगे, सीधे-सीधे ऑनलाइन? ऑनलाइन जहाँ तो है ही, किसी भी देश के गवर्न्मेंट के कंट्रोल में। वो फिर अपने ही कांड़ों पर मोहर क्यों लगाएंगे? वो आपको सिर्फ वो दिखाएँगे या सुनाएँगे, जो कुछ भी वो दिखाना या सुनाना चाहते हैं। न उससे कम और न उससे ज्यादा।
मोदी या बीजेपी से नफ़रत क्यों?
वैसे तो मुझे राजनीती ही पसंद नहीं। फिर कोई भी पार्टी हो, फर्क क्या पड़ता है? या बहुत वक़्त बाद समझ आया, की बहुत पड़ता है।
कोई पार्टी या नेता काँड करे और आपको इसलिए जेल भेझ दे, की आप ऐसा सच बोल रहे हैं, जो उसके काँडो को उधेड़ रहा है? तो क्या भक्ति करेंगे, ऐसे नेता या पार्टी की?
उसपे अगर मोदी को फॉलो करोगे तो पता चलेगा, इसका बॉलीवुड से और फिल्मों से कुछ ज्यादा ही गहरा नाता है? क्या इसे कुछ और ना आता है? अब बॉलीवुड वालों का तो काम है, फिल्में बनाना। एक PM का उससे क्या काम है? अपनी समझ से बाहर है।
मुझे पढ़े-लिखे और समाज का भला करने वाले नेता पसंद हैं। नेता-अभिनेता नहीं। तो कुछ पढ़े-लिखे या लिखाई-पढ़ाई से जुड़े नेताओं के सोशल पेज भी फॉलो कर लेती हूँ। वो सोशल पेज, फिर से किसी सोशल मीडिया कल्चर से अवगत कराते मिलते हैं। जैसे हुडा और यूनिवर्सिटी या शिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान। गड़बड़ घौटाले समझने हैं, तो उनके ख़ास प्रोजेक्ट्स और टेक्नोलॉजी। जैसे रोहतक की SUPVA से लख्मीचंद (LAKHMICHAND) बनी यूनिवर्सिटी। हर शब्द एक कोड होता है। वो किस नंबर पर है या उसके साथ वाले शब्द कौन-कौन से हैं या दूर वाले कौन से, और कितनी दूर? किस राजनीतिक पार्टी के दौर में कोई भी प्रोजेक्ट आया या इंस्टिट्यूट बना? और वो इंस्टिट्यूट किस विषय से जुड़ा है? उस वक्त की राजनीती के बारे में बताता है। उसका बदला नाम या रुप-स्वरुप या उसमें आए बदलाव, उस बदलाव के वक़्त की राजनीती या पार्टी के बारे में काफी कुछ बताते हैं।
अब lakhmi कोड का patrol crime से क्या connection? और वो कहेंगे, की किसी कुत्ती के ज़ख्मों पे डालने के लिए पैट्रॉल बोतल, पियकड़ को लख्मी आलायां ने दी थी। करवाया उन्होंने और नाम किसी का? वैसे शब्द या भाषा, वहाँ के सभ्य (?) समाज के बारे में भी काफी कुछ बताता है। Social Tales of Social Engineering, इस पार्टी की या उस पार्टी की? और उनका किसी या किन्हीं इंस्टीटूट्स में छुपे, प्रोजेक्ट्स या टेक्नोलॉजी से लेना-देना? ठीक ऐसे ही बिमारियों का और उनके लक्षणों का भी। ये सोशल मीडिया पेजेज से समझ आया है।
संकेतों या बिल्डिंग्स के नक़्शों या कुछ और छुपे कोढों को समझना हो, तो शायद, शशि थरूर का सोशल पेज भी काफी कुछ बता सकता है। और इंटरेक्शन का मीडिया, बिलकुल डायरेक्ट नहीं है। कहीं पूछो, की तुम इन सबको जानते हो या ये तुम्हें जानते हैं? मैं इन्हें या ये मुझे उतना ही जानते हैं, जितना आपको। ज्यादातर आम आदमी को। ऐसे ही पढ़ना चाहो या समझना चाहो, तो वो आप भी कर सकते हैं। उसके लिए आपको किसी को जानने या मिलने की जरुरत नहीं है। एकदम indirect, वैसे ही जैसे, सुप्रीम कोर्ट के फैसले या CJI खास एकेडेमिक्स इंटरेक्शन प्रोग्राम्स। या कहो ऐसे, जैसे हम कितने ही लेखकों की किताबें पढ़ते हैं, मगर मिलते शायद ही कभी हैं।
अब वो सोशल मीडिया पेज आप-पार्टी के किसी नेता का भी हो सकता है और कांग्रेस के भी। JJP का भी हो सकता है और कहीं महाराष्ट्र की शिवसेना की आपसी लड़ाई से सम्बंधित आर्टिकल्स भी। महाराष्ट्र की शिवसेना की लड़ाई के आर्टिकल्स तो और भी आगे बहुत कुछ बताते हैं। भगवान कैसे और क्यों बनते हैं? उन्हें कौन बनाता है? उस समाज में किसी वक़्त आए या कहो लाए गए रीती-रिवाज़ों के बदलावों से उनका क्या सम्बन्ध है? ऐसे ही जैसे, JJP का ऑनलाइन लाइब्रेरी प्रोग्राम या शमशानों के रखरखाव में क्या योगदान है? GRAVEYARDS? और आगे, उसका कैसे प्रयोग या दुरुपयोग हो सकता है?
वैसे ट्रायल के दौरान किसी को जेल क्यों? बेल क्यों नहीं? या ट्रायल के दौरान ही, कोई कितना वक़्त जेल में गुजारेगा? ऐसा या ऐसे क्या जुर्म हैं? अब आम आदमियों की तो बात ही क्या करें। ये आप पार्टी के नेताओं के साथ क्या चल रहा है? फिर मोदी के साथ क्या होना चाहिए? वैसे मैं किसी बदले की राजनीती के पक्ष में नहीं हूँ। मगर, सोचने की बात तो है। मोदी जी, है की नहीं? सोचने की बात? या मन की बात?
काफी लिख दिया शायद। अब मत कहना की जो लिखती हूँ या जहाँ से आईडिया या प्रोम्प्ट या ख़बरें मिलती हैं, उनके रेफेरेंस नहीं देती। और डिटेल में फिर कभी किसी और पोस्ट में।
Saturday, April 13, 2024
सोशल मीडिया कल्चर खिचड़ी
सोशल मीडिया कल्चर, कुछ ज्यादा ही खिचड़ी (Interdisciplinary) है। इस खिचड़ी को जितना समझा जाए, उतना कम है। जैसे --
राजनीती, आपको विज्ञान पढ़ाती है?
विज्ञान, आपको राजनीती पढ़ाता है?
कला, आपको टेक्नोलॉजी पढ़ाती है?
और टेक्नोलॉजी, आपको कला?
शिक्षा, आपका मनोरंजन करती है?
और मनोरंजन, आपको शिक्षा देता है?
समाज शास्त्र, आपको इकोलॉजी पढ़ाता है?
और पर्यावरण? धर्म-आस्था और रीती-रिवाज़?
ऐसे ही जैसे?
माँ, आपको अर्थशास्त्र पढ़ाती है?
और बाप, रोटी बनानी सिखाता है?
बीमारी, आपका परिवेश बताती है?
और ईलाज, उसके लक्षण?
सिविल, आपको डिफ़ेंस पढ़ाता है?
और डिफ़ेंस, सिविल?
कुछ उल्टा-पुल्टा तो नहीं लग रहा?
या सब सही है?
आप सोचो, जानते हैं अगली किसी पोस्ट में।
राजनीती या ज्ञान-विज्ञान?
राजनीती या ज्ञान-विज्ञान? इनको अलग-अलग समझना क्यों जरुरी है? राजनीती इनकी खिचड़ी पकाकर आम-आदमी को कैसे पेश करती है? क्या उन कोढों को समझना सच में इतना मुश्किल है? या, वो ये सब आम-आदमी को पता ही नहीं लगने देना चाहते? क्यूँकि, जितना आम-आदमी को पता चलेगा, उतना ही वो अपने अधिकारों के प्रति सचेत होगा। और ऐसे-ऐसे प्रश्न करने करने लगेगा, की हम यहाँ आपकी सेवा करने के लिए नहीं बैठे। बल्की, आपको इसलिए चुना जाता है, की आप अपने-अपने क्षेत्र का विकास कर सकें। उसे आगे बढ़ा सकें। ना की उस क्षेत्र के लोगों और साधनों को, निचोड़ कर या दोहन कर, अपना घर भर सकें। आपको इसलिए नहीं चुना जाता, की आप हर वक़्त, हर जगह तमाशगीर बन कर रह जाएँ। और अपने उस तमाशे को बिन रुके, बिन थके, एक सर्कस के रुप में अपनी जनता पे थोंप दें। और उन्हें उस सर्कस से बाहर ही ना निकलने दें। उन्हें ज़िंदगी के अहम मुद्दों से दूर भटका कर, अपने भंडोला-शो का हिस्सा मात्र बना कर छोड़ दें। जन्म क्या, बीमारी क्या और मौत क्या, हर ज़गह अपने भद्दे ठप्पों का चस्का, मखौलियों या भंडोलों की तरह लगाने लगें। समाज के हर हिस्से पे, अपनी खुँदकों की छाप छोड़ने लगें।
कैसे? कैसे कर रहे हैं, राजनीती के ये भंडोले ये सब? सिर्फ़ राजनीती के? या समाज का कोई भी हिस्सा नहीं बक्शा हुआ? अपने महान प्रधानमंत्री से ही शुरु करें?
DD O' DD?
या ? दीदी? ओ दीदी?
या 2 D? 3 D?
या फिर, विमान और बादलों या राडारों के शगूफ़े भी सुने होंगे?
कौन से बादल?
पंजाब वाले?
या इंटरनेट वाले Cloud और Radar?
ऐसे ही G Creations?
वो जो घर वाली को कुछ पुराने लोग बोलते हैं, जैसे, ओ श्रीमती जी, तुम्हारी मती कहाँ मारी गई जी? बुरा ना माने, क्या पता कहने वाले की खुद की ही कहीं गुम हो?
या फिर वो श्रीमती जैसे बोलें? जी? ओ जी?
मगर कौन-सा जी?
2G? 3G? 4G? या 5G? कैसे-कैसे स्पेक्ट्रम (Spectrum) घौटाले हैं ये?
अब आम आदमी इस सबको कैसे समझेगा? कुछ तो ऐसे भी पढ़े-लिखे होने चाहिएँ ना, जो आम-आदमी को ये सब ऐसे अलग-अलग समझा सकें, जैसे दूध से पानी अलग, खिचड़ी से चावल और दाल अलग? या फिर दूध का दही या लस्सी कैसे बनाते हैं? या दूध से पनीर कैसे बनाते हैं? अलग-अलग कंपनियों के दूध, दही या लस्सी या किसी भी, एक ही नाम वाले उत्पाद का स्वाद अलग क्यों होता है? ये कम्पनियाँ, कौन-से अलग-अलग बैक्टीरिया के तड़के लगाते हैं? और राजनीती में उसे कैसे-कैसे पकाते हैं? ठीक ऐसे, जैसे नेता से अभिनेता अलग या एक?
पर शायद आप कहें, की आम-आदमी के लिए ये सब जानना क्यों जरुरी है? यही अहम है। अगर आपको इस सब की समझ होगी, तो ये धूर्त ,शातीर लोग आपका दोहन कम कर पायेँगे। क्यूँकि, आपकी ज़िंदगी की खुशहाली या बर्बादी इसी समझ पे टिकी है।
उदहारण के लिए, कोरोना काल को ही लेते हैं। अगर आपको ये राजनीती और ज्ञान-विज्ञान की अलग-अलग समझ होती और ये पता होता की राजनीती के तड़के इनकी खिचड़ी पकाने में कैसे होते हैं? तो दुनियाँ भर में, ये आदमियों की मौतों का ताँडव और उसपे तमासे इतने वक़्त नहीं चलते। और ना ही उस ताँडव को देख, मेरे जैसों का विरोध और फिर देशद्रोह के नाम पर जेल की सैर करना। क्यूँकि, बिमारियों में भी ऐसे ही शब्दों का और तमाशों का हेरफेर है, जैसे किसी भी राजनीती वाले दीदी ओ दीदी या 2D, 3D टेक्नोलॉजी का। या वैसे ही जैसे, एक तरफ मोदी का विमान और बादलों का ज्ञान पेलना। और दूसरी तरफ, इंटरनेट वाला Clouds या Radar शो। या जैसे पार्टियों का एक-दूसरे पर स्पेक्ट्रम घोटालोँ वाला प्रहार और संचार के माध्यंमों (Communication Technology) वाले स्पेक्ट्रम को समझना। अब सब तो हमारे जैसों को भी नहीं पता होता। वो भी ज्यादातर अपने ही विषय तक सिमित होते हैं। वो भी कहीं ना कहीं से पढ़ते हैं, या अलग-अलग विषयों के एक्सपर्ट उसके बारे में बताते हैं।
मगर इस सबसे ये भी समझ आता है, की मीडिया का रोल किसी भी समाज की प्रगति या विध्वंश में कैसे भुमिका निभाता है? खासकर, जब अलग-अलग पार्टियाँ, पुरे संसार में युद्ध स्तर पर एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रही हों। और जनता से कोढों वाली छुपम-छुपाई चल रही हो। पढ़े-लिखे वर्ग की भूमिका उसमें और भी ज्यादा अहम हो जाती है।क्यूँकि, ये शायद समाज का वो वर्ग है, जो सबसे ज्यादा स्थिर और सुरक्षित जीवन जीता है, खासकर Higher Level पर। और वापस समाज को क्या देता है? कोढ़?
Thursday, April 11, 2024
संतुलन जरुरी है
जैसे स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार जरुरी है। संतुलित शरीर का प्रयोग जरुरी है, चाहे वो फिर घुमना-फिरना, साईकल चलाना, तैरना, व्यायम या कसरत करना हो। वैसे ही, जितना हम अपने आसपास से, पर्यावरण से या प्रकृति से लेते हैं, कम से कम उतना, उसे वापस देना भी जरुरी है। जहाँ-जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ का वातावरण उतना ही खराब है। फिर चाहे वायु हो, पानी या ज़मीन। पेड़-पौधे हों, जीव-जंतु, या पक्षी। जीव-निर्जीव, इन सबसे किसी ना किसी रुप में आप कुछ ना कुछ लेते हैं। कुछ ऐसा जो अनमोल है, जो आपके जीवन के लिए जरुरी है। इनमें से कुछ अहम कारकों को लेते हैं।
वायु
आप वातावरण से ऑक्सीजन लेते हैं, जो जीवनदायी है। अगर आपके वातावरण में उसी की कमी हो जाएगी या किसी और ज़हरीली गैस की अधिकता, तो साँस कैसे लेंगे? पेड़-पौधे वातावरण को शुद्ध करने का काम करते हैं। आपके आसपास कितने हैं? इसके इलावा बहुत कुछ इस वायुमंडल में ऐसा छोड़ते हैं, जो इसको साँस लेने के काबिल नहीं छोड़ता। उसके लिए आप क्या करते हैं? यहाँ सिर्फ हरियाणा, पंजाब, दिल्ली की सरकारों के एक-दूसरे पर राजनीतिक प्रहारों की बात नहीं हो रही। ये समस्या दुनियाँ में और भी बहुत जगह है या थी। उसके लिए उन्होंने क्या उपाय किए? तो शायद पता चले, की ज्ञान-विज्ञान को राजनीती से अलग समझना कितना जरुरी है।
क्यूँकि, राजनीतीक उसी ज्ञान-विज्ञान का दोहन करके, राजनीतिक पॉइंट्स इक्क्ठे करने के लिए कहीं ज्ञान-विज्ञान का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे? कुर्सियों के चक्कर में, हर तरह से लोगों को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहे?
इसीलिए हर आदमी के लिए भी इकोलॉजी की समझ बहुत जरुरी है।
पानी
मैं एक छोटा-सा उदाहरण अपने ही गाँव का लेती हूँ। क्यूँकि, बाकी गाँवोँ या शहरों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। आपके यहाँ सप्लाई का पानी रोज आता है? कितनी बार आता है? साफ़ पीने लायक आता है? या पीने लायक नहीं होता, मगर बाकी घर के कामों के लिए प्रयोग कर सकते हैं? या इस लायक भी नहीं होता की लैटरीन तक में डालने में ऐसा लगे, की फ़ायदा क्या?
अगर आपके यहाँ सरकार साफ़ पीने लायक पानी हर रोज सुबह-श्याम, आज तक भी नहीं पहुँचा पाई, तो आप कैसी सरकारों को चुन रहे हैं, इतने सालों से? और क्यों?
आजकल जहाँ मैं हूँ, वहाँ सप्लाई का पानी 7-10 दिन या 10-15 दिन में एक बार आता है। जी। सही सुना आपने। आजकल, वो फिर भी थोड़ा बहुत फर्श वगरैह धोने लायक होता है। दो साल पहले जब यहाँ आई, तो ऐसे लगता था जैसी गटर से पानी सप्लाई हो रहा हो। यूँ लगता था, ये सप्लाई ही क्यों करते हैं? इसका अहम कारण है, यहाँ का वॉटर सप्लाई सिस्टम, शायद मेरे पैदा होने से भी पहले का है। जितना मुझे पता है। 46 साल की तो मैं ही हो गई। मतलब, इतने सालों तक किसी ने नहीं सोचा की उसकी क्षमता बढ़ाई जाए, जनसंख्याँ के अनुपात में? कहेँगे नहर कम आती है, पानी कहाँ से आए? नहर तो शायद पहले भी इतनी ही आती थी या इससे भी कम। मगर पानी पूरा आता था। और अब जितना गन्दा भी नहीं होता था।
जब हम छोटे थे तो यही पानी सुबह-श्याम आता था। और बहुत बार ऐसे ही बहता था। हालाँकि, पीने के पानी के लिए तब भी लोग ज्यादातर कुओं पे निर्भर थे। आजकल या तो टैंकर आते हैं पानी सप्लाई करने। वो भी सरकार के नहीं, बल्की प्राइवेट। या लोग, खेतों के हैंडपंप या समर्सिबल पर निर्भर हैं और वहाँ से लाते हैं। खेतों में भी हर जगह मीठा पानी नहीं है। जहाँ-जहाँ है, वहाँ की ज़मीन के रेट अक्सर ज्यादा होते हैं। जहाँ पे अक्सर मारकाट या धोखाधड़ी भी देखी जा सकती है। एक तरोताज़ा केस तो अभी भाई की सिर्फ दो कनाल वाली जगह का ही है।
टैंकर सप्लाई कौन करते हैं? और कहाँ-कहाँ वाटर पुरीफायर घर पे कामयाब हो सकते हैं? ये फिर से अलग विषय हो सकता है। क्यूँकि, यहाँ पे ज्यादातर लोग घरों में भी हैंडपम्प्स या समर्सिबल पर निर्भर हैं। इसीलिए तकरीबन हर दूसरे घर में आपको ये देखने को मिलेंगे। मगर यहाँ घरों के एरिया का पानी इतना जहरीला है की बर्तनों पे दाग पड़ जाते हैं। कपड़े ढंग से साफ़ नहीं होते। दाँत पीले पड़ जाते हैं (Fluorosis) । फर्श पे पड़ेगा, तो सुखते ही सॉल्टी नमी या धब्बे। अब जब तकरीबन सब जमीन के पानी का प्रयोग करेंगे और वापस उस ज़मीन में जाएगा नहीं, तो क्या होगा? हर साल जहर का असर बढ़ता जाएगा। और बिमारियों का भी। जिनमें त्वचा की बीमारी भी हैं और बहुत-सी दूसरी भी। कम से कम, बारिश के पानी को वहीं ज़मीन में वापस पहुँचाकर, इस समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
या ऐसी जगहों को छोड़ के कहीं अच्छी जगह खिसको, इसका एकमात्र समाधान है? तो ऐसी जगहों की सरकारों को क्या तो वोट करना? और कैसे चुनाव? जब सारे समाधान ही खुद करने हैं? उसपे ऐसे चुनके आई सरकारें, बच्चों तक को बहनचो, माँचो, छोरीचो, भतिजीचो और भी पता ही नहीं, कैसे-कैसे कार्यकर्मों या तमाशों में उलझाए रखेंगी। इसपे पोस्ट कहीं और। Social Tales of Social Engineering में।
ज़मीन
ज़मीन आपको क्या कुछ देती है? आप उसे वापस क्या देते हैं? ज़हर?
हमारे घरों से, खेतों से, फैक्ट्री-कारखानों से, कितने ही ज़हरीले कैमिकल्स रोज निकलते हैं। वो कहाँ जाते हैं? पानी के स्रोतों में और उन द्वारा ज़मीन में? या सीधा ज़मीन में? आज के युग में भी waste treatment, sewage treatment, proper disposal या recycling जैसा कुछ नहीं है, हमारे यहाँ? क्यों? ये तो दिल्ली के आसपास के या किसी भी बड़े शहर के आसपास के गाँवोँ क्या, उस आखिरी बॉर्डर के पास या दुर्गम से भी दुर्गम जगह पे भी होना चाहिए। ज़मीन से शायद इतना कुछ लेते हैं हम। उसके बगैर हमारा अस्तित्व ही नहीं है। फिर किस बेशर्मी से उसे बदले में ज़हर देते हैं? बिमारियों की बहुत बड़ी वज़ह है ये।
पीछे आपने पोस्ट में पढ़ा
इन सबमें तड़के का काम किया है, आज की टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग ने
और बढ़ते सुख-सुविधाओँ के गलत तौर-तरीकों ने। व्हीकल्स, ए.सी. (AC), घर बनाने में सीमेंट और लोहे का बढ़ता चलन। मगर, घर की ऊँचाई का कम और दिवारों का पतला होते जाना। खिड़की, दरवाजों का छोटा और कम होते जाना। बरामदों का खत्म होना। घरों का छोटा होना। पेड़-पौधों का घरों में ख़त्म होना। घरों में खुले आँगनों का छोटा होते जाना। सर्फ़, साबुन, शैम्पू, कीटनाशक, अर्टिफिशियल उर्वरक, हार्पिक, डीओज़, ब्यूटी पार्लर प्रॉडक्ट्स आदि का बढ़ता तीखा और ज़हरीला असर। और भी ऐसे-ऐसे कितने ही, गलत तरीक़े या बुरे प्रभाव या ज़हर। तो क्या इन सबका प्रयोग ना करें? जँगली बनकर रहें? करें, मग़र सही तरीके-से और सोच-समझ कर। ये जानकर, की कितना और कैसे प्रयोग करें। इतना प्रयोग ना करें, की वो जहर बन जाए। जितना इनका प्रयोग करें, उतना ही इनके दुस्प्रभावोँ को कम से कम करने के उपाय भी करें। कैसे? आगे पोस्ट में।
इसमें से कितना इस पोस्ट में है? जनरल या आम समझ। सिर्फ लेने से काम नहीं चलेगा, वापस भी देना होगा। वापस कैसे करें? अगली पोस्ट में AC से ही शुरू करें?
पानी और सभ्यता?
किसी भी जीव-जंतु को कहीं भी रहने के लिए पानी, खाना, सुरक्षा, रहने की जगह और फलने-फूलने के अवसर अहम हैं। इनमें सबसे पहले है, पानी। अगर आप किसी भी मानव-सभ्यता या जीव-जन्तुओं या पेड़-पौधों के कहीं रहने या विस्थापन का अध्ययन करेंगे, तो पता चलेगा की पानी के स्त्रोतों के आसपास झुंडों के रुप में बसना अहम है। वो पानी का स्त्रोत कैसा है? मीठा है, कड़वा है, कितना कड़वा है? या प्रयोग करने लायक ही नहीं है? झीलों और नदियों के किनारे पुरानी सभ्यताओँ और शहरों का बसना यूँ ही नहीं है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देश (महाद्वीप) को जानकार, इसे और अधिक समझा जा सकता है। जो महाद्वीप क्षेत्र के हिसाब से तो बहुत बड़ा है। मगर, उसके बहुत ही थोड़े-से हिस्से पर ही, उसकी ज्यादातर आबादी या शहर बसते हैं। पानी के स्त्रोतों के आसपास। नदियों, झीलों या समुन्द्र के किनारे ज़्यादातर। पृथ्वी के बाकी महाद्वीपों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। हालाँकि, सभ्यता और टेक्नोलॉजी के विकास के साथ-साथ, जहाँ पानी के स्त्रोत कम है या तक़रीबन रेगिस्तान जैसी जगहों पर भी, इंसान ने बस्तियाँ और बड़े-बड़े शहर बसाए हैं।
इसमें ख़ास क्या है? कुछ भी नहीं। ये सब तो स्कूल जाने वाले बच्चे भी समझते हैं। समझते हैं? या सिर्फ़ पढ़ते हैं? दोनों में बहुत फर्क है। ठीक ऐसे ही, जैसे किसी भी समाज या देश की ज़्यादातर समस्याओँ के समाधान, स्कूल स्तर के ज्ञान-विज्ञान में ही हैं। उसके लिए आपको डॉक्टरेट या पोस्टडॉक्ट्रेट होने की जरुरत नहीं। मगर विड़ंबना ये, की उसके बावजूद, समाज का इतना बड़ा हिस्सा या तो गरीब है, या गरीबी के आसपास। जिसके पास आज तक मुलभूत सुविधाएँ तक नहीं हैं। क्यों? लालची पढ़े-लिखे और उसपे कढ़े शतीरों की वज़ह से? मीठे पानी के स्त्रोतों की जगहों को तो ये हड़प लेते हैं। या शायद कुछ कह सकते हैं, की इतना आसान नहीं है? बहुत कॉम्प्लेक्स विषय है? कुछ-कुछ ऐसे, जैसे आसान से आसान तथ्योँ या विषयों को भी खिचड़ी बना कर पेश करना, और कहना ये विषय सीधा-साधा नहीं है?
पानी से ही खाना जुड़ा है और कृषि और उधोगों के फलने-फूलने के राज भी। पानी अपने आप में बहुत-सी बिमारियों की वज़ह भी है। पानी? या पानी का साफ़ ना होना? ये साफ़ ना होना, सिर्फ़ आपके घर के पानी की बात नहीं है। बल्की, आपके आसपास के पानी की बात भी है। वो पानी, जिसे आपके पशु-पक्षी या जीव-जंतु पीते हैं। वो पानी, जिसे आपके पेड़-पौधे लेते हैं। इन सबसे, ये किसी ना किसी रुप में आप तक भी पहुँचता है। हमने ज़मीन और उसके पानी को साफ़ रखने की बजाय, सिर्फ अपने घर के प्रयोग के पानी को साफ़ करने या रखने के साधन तो ढूँढ लिए। मगर भूल गए, इस सिर्फ़ अपने घर तक साफ़ पानी के चक्कर में, बाकी आसपास को भूल गए। हमने अपने घरों में जमीन से पेड़-पौधे उखाड़ कर, गमले रख लिए। और तालाब, जोड़ों को खत्म कर या सुखा कर या घेर कर, अपने मुँडेरों या छत्तों पर, पक्षियोँ के लिए छोटे-छोटे कटोरे रख दिए। कितने दानी हो गए ना हम? कुछ-कुछ ऐसे, जैसे, किसी का घर छीन कर, जेल में धकेलना।
मगर भूल गए। ऐसा करके हमने कितनी बिमारियाँ पाल ली? वातावरण को कितना नुकसान पहुँचा दिया? गमले में आप पेड़-पौधे तो सजा लेंगे, लेकिन क्या वो वैसे ही पनप पाएँगे या फल-फूल पाएँगे, जैसे जमीन के पेड़-पौधे? गमलों में उनको अपने आप फैलने या फलने-फूलने की जगह कहाँ है? वो बड़े होकर भी, आप पर ही आश्रित होंगे। कुछ तो और भी महान हैं। बहुत ही छोटे-छोटे से गमलों में ही, कई-कई, पेड़-पौधे लगा दिए। कईयों ने एक ही गमले में कई तरह के। अरे महान किसानों, आप भूल गए की पेड़-पौधों को एक दूरी पर क्यों लगाया जाता है? कैसे पेड़-पौधों को एक साथ लगा सकते हैं और वो एक दूसरे को बढ़ाने में सहायता करेंगे? और कैसे पेड़-पौधे एक साथ लगाने पर, एक-दूसरे को पनपने नहीं देंगे? अब इसके लिए डॉक्टरेट या पोस्ट-डॉक्टरेट की डिग्री कहाँ चाहिए? ये तो स्कूल बच्चोँ तक को पढ़ाया जाता है। नहीं? मगर शायद समझाया नहीं जाता? ज्यादातर टीचर्स भी सिर्फ रटवाने का काम करते हैं और बच्चों को चूहा-दौड़ का हिस्सा बना देते हैं। बच्चे एक-दो नंबर कम आने पे स्ट्रेस लेते हैं, मगर उसे सिर्फ पेपरों तक ही याद रख पाते हैं। जैसे किसी इंजीनियरिंग की Night Before Fight हो।
ठीक ऐसे ही, जैसे जब आपने अपने आसपास के पानी के खुले संसांधनों, जैसे तालाब-जोड़ों को सूखा दिया या हड़प लिया, तो वातावरण में जो अपने आप वाष्प बनकर पानी जाता था और आपके आसपास के वातावरण के तापमान को कम रखता था। साफ़-सुथरा होकर वापस बरसता था, उसे बंद कर दिया। इसका प्रभाव? सूरज का तीख़ापन भी बढ़ गया। वातावरण बिल्कुल सूखा होगा तो क्या होगा? सूरज की वही पहले वाली किरणे, अब चुभने लगेंगे। शरीर के लिए घातक होंगी और कितनी ही बीमारियाँ आप तक मुफ़्त में परोसेंगी। इनमें न सिर्फ़ तवचा की बीमारियाँ अहम हैं, बल्की, बहुत-सी ऐसे सूखे और धूलभरे मौसम की एलर्जीज़ भी। जो पहले या तो थी ही नहीं, या बहुत ही कम होती थी और बहुत ही कम वक़्त के लिए होती थी।
इन सबमें तड़के का काम किया है, आज की टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग ने
और बढ़ते सुख-सुविधाओँ के गलत तौर-तरीकों ने। व्हीकल्स, ए.सी. (AC), घर बनाने में सीमेंट और लोहे का बढ़ता चलन। मगर, घर की ऊँचाई का कम और दिवारों का पतला होते जाना। खिड़की, दरवाजों का छोटा और कम होते जाना। बरामदों का खत्म होना। घरों का छोटा होना। पेड़-पौधों का घरों में ख़त्म होना। घरों में खुले आँगनों का छोटा होते जाना। सर्फ़, साबुन, शैम्पू, कीटनाशक, अर्टिफिशियल उर्वरक, हार्पिक, डीओज़, ब्यूटी पार्लर प्रॉडक्ट्स आदि का बढ़ता तीखा और ज़हरीला असर। और भी ऐसे-ऐसे कितने ही, गलत तरीक़े या बुरे प्रभाव या ज़हर। तो क्या इन सबका प्रयोग ना करें? जँगली बनकर रहें? करें, मग़र सही तरीके-से और सोच-समझ कर। ये जानकर, की कितना और कैसे प्रयोग करें। इतना प्रयोग ना करें, की वो जहर बन जाए। जितना इनका प्रयोग करें, उतना ही इनके दुस्प्रभावोँ को कम से कम करने के उपाय भी करें। कैसे? आगे पोस्ट में।
इकोलॉजी (Ecology) और बिमारियों की जानकारी?
इकोलॉजी (Ecology), आपका अपने आसपास से रिस्ता या यूँ कहो, की जिस किसी जीव या निर्जीव के संपर्क में आप आते हैं, या जो कुछ भी आपके आसपास है, उसका आप पर या उस पर आपका प्रभाव। इसमें आपके आसपास जो कुछ भी है, वो सब आ जाता है। हवा, पानी, खाना-पीना, इंसान, जीव-जंतु, कीट-पतंग, पेड़-पौधे, घर या बाहर का सामान, अड़ोस-पड़ोस, मोहल्ले, समाज में कैसे भी बदलाव। जीव या निर्जीवों का आना या जाना। और भी कितना कुछ। यही सब सोशल मीडिया कल्चर है। किसी भी जगह के जीव-जंतुओं का आगे बढ़ने का या रुकावट का माध्यम। बड़ी-सी माइक्रोबायोलॉजी लैब। या कहीं का भी सिस्टम।
मैंने अपने घर और आसपास के बच्चों की कुछ बिमारियों (या लक्षणों?) को जानने की कोशिश की थी, कुछ साल पहले। ये सब शुरू हुआ था, की पैदाइशी अगर किसी बच्चे के बाल सीधे, सिल्की और भूरे हैं, तो कुछ साल बाद ही, वो घुँघराले, खुरदरे (Rough) जैसे, और काले हो सकते हैं? और ऐसा होते ही, बच्चे का हुलिया ही कुछ और ही नज़र आने लगेगा? ऐसे ही जैसे, अगर किसी बच्चे के बाल पैदायशी घुँघराले और काले हैं, तो कुछ साल बाद ही वो सीधे, कम काले और सिल्की हो सकते हैं? यहाँ फिर से हुलिया अलग ही नज़र आने लगेगा। अब जितना जैनेटिक्स पढ़ी हुई थी, उसके हिसाब से तो ऐसा नहीं हो सकता। हाँ। वातावरण में बदलाव, खाने-पीने में बदलाव या आर्टिफिसियल तरीके से ऐसा संभव है। अर्टिफिशियल तरीके से कैसे? इनके माँ-बाप ही पार्लर नाम मात्र जाते हैं, वो भी किसी ख़ास प्रोग्राम पे ही। तो बच्चोँ का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ये मेरी अपनी भतीजी और भांजी का केस था, तो तहक़ीकात थोड़ी और शुरू कर दी।
भाभी ज़िंदा थे उन दिनों। माँ और भाभी से बात हुई, तो माँ ने बोला, ऐसे ही थे बचपन से। भाभी ने बोला, नहीं थोड़े बदल गए लगता है। उसपे माँ ने थोड़ा और जोड़ दिया, की भाई के भी शायद ऐसे ही हैं। जब मैंने कहा, की घर में तो ऐसे किसी के नहीं है, तो कैसे हो सकता है? जितना मुझे मालूम है, तो रिश्तेदारों में भी नहीं है। यहाँ सीधे से, घुँघराले होने लगे थे। भाभी ने इसपे कहा, शायद मेरी माँ पे हैं। उनके जड़ों से तो सीधे हैं, मगर थोड़े बड़े होने पे घुँघराले होने लगते हैं। मुझे भाभी और माँ, दोनों के ही तर्क, बेतुके लग रहे थे। माँ को बोला, आपको इतना तक पता नहीं, की आपके लाडले के बाल कैसे हैं? और उन्होंने डाँट दिया मुझे, जैसे हैं, ठीक हैं। दिमाग़ मत खाया कर, हर बात पे, खामखाँ में। भाभी हंसने लगे। और कर लो बहस। मैंने भाभी को कहा, की एक बार एल्बम लाना। माँ ने मेरी तरफ घूर कर देखा। और भाभी ने कहा, पता नहीं दीदी कहाँ पड़ी है एलबम, ढूँढ़नी पड़ेगी।
मैं घर आ गई, भाई के घर से। अपनी एल्बम निकाली, जिसमें भाई और गुड़िया की अलग-अलग वक़्त की फोटो थी। अब शक और बढ़ गया, की कुछ तो गड़बड़ घोटाला है। क्यूँकि, दोनों में से किसी के बाल घुँघराले नहीं थे।
अब पहुँची मैं ऑन्टी के पास। जिनका घर भाई के साथ ही लगता है। उनसे भांजी के बारे में बात हुई तो बोले, हाँ बचपन में तो ऐसे नहीं थे, अब बदलने लगे। यहाँ घुंघराले से, सीधे होने लगे थे। जाने क्यों, अब मुझे छोटी बहन (चाचा की लड़की) के बालों पे भी शक होने लगा। जिसके बाल घुँघराले जैसे-से हैं। मगर मेरे पास उसकी बचपन की कुछ फोटो हैं, जिनमें सीधे हैं। ये भी कुछ-कुछ ऐसा था शायद, जैसे भाभी ने अपनी माँ के बालों के बारे में बोला? इसी दौरान ऑनलाइन कुछ सर्च कर रही थी और किसी फ़ोटो को देखकर फिर से थोड़ा शंशय। ये अंकल की फोटो थी, जिसमें उनके बाल घुँघराले लग रहे थे। मुझे ऐसा कुछ ध्यान नहीं। शायद कभी ध्यान ही नहीं दिया।
फिर से एक दिन अंकल के घर थी और वही फोटो सामने देख रुक गई। पर ये तो यहाँ बहुत सालों से थी। मतलब, हम बहुत-सी बातों पर सामने होते हुए भी, ध्यान नहीं देते। क्यूँकि, जरुरत ही नहीं होती। ये तो जब जरुरत महसूस हो, तभी ध्यान जाता है। मैंने फिर से ऑन्टी से पूछा, की अंकल की ये फोटो कब की है? क्या अंकल के बाल घुँघराले थे? वो फोटो शायद, उनके आखिरी दिनों के आसपास की होगी। और उन्होंने बताया की घुँघराले तो नहीं थे।
टेक्नोलॉजी का गलत प्रयोग?
क्यूँकि, खुद की मेरी कितनी ही फोटो, पता ही नहीं कैसे-कैसे ख़राब की हुई थी और ऐसा ही बहुत-सी गुड़िया के केस में था। चलो फोटो में बदलाव तो समझ आते हैं, वो भी आज के युग में। मगर, जो वो सामने गुड़िया और भांजी के बालों के साथ हो रहा था, वो क्या था? ये उस दुनियाँ की सैर करवाने वाला था, जो कितने ही चाहे-अनचाहे बदलावों के और बिमारियों के राज खोलने वाला था।
जानकारी या ज्ञान-विज्ञान का गलत प्रयोग? और राजनीती के तड़के।
मतलब, छोटी से छोटी चीज़, जो आपके आसपास बदल रही है, वो कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रुप में आपको और आसपास के जीवों को प्रभावित कर रही है। वो फिर चाहे खाना-पीना है या ऐसा कोई भी उत्पाद, जो आप नहाने-धोने में या अपनी या अपने आसपास की किसी भी प्रकार की सफ़ाई में प्रयोग कर रहे हैं। और भी अहम, उसे आप किससे या कहाँ से ले रहे हैं? वो चाहे आपके कपड़ो का या बालों का स्टाइल का तरीका है या उनमें प्रयोग होने वाले उत्पादों के किस्म और प्रकार। वो चाहे आपकी हवा का रुखा-सूखा, धूल-भरा या साफ़ होना है या उसमें पानी की अलग-अलग मात्रा। वो आपके आसपास के तापमान का तीख़ापन है या सुहावना होना। वो आपके घर की शाँति है या लड़ाई-झगड़ों का बढ़ना। वो आपके ज़मीनी पेड़-पौधों का बदलना है या अच्छे से फलना-फूलना। वो आपके घर के पेड़-पौधों का इस जगह से, उस जगह खिसकना है या बाहर कहीं जाना। वो आपके ज़मीनी पेड़-पौधों का मरना है और सिर्फ गमलों वाले पौधों का ही जीवित रह जाना। वो आपके छोटे से छोटे गमलों में भी एक पौधे का होना है या उसमें भी दो, तीन या ज्यादा पेड़-पौधों का होना। वो एक ही, वो भी छोटे से गमले में भी, एक ही तरह के पेड़-पौधे का होना है या उसमें भी कई तरह के पेड़-पौधों का एक साथ लगा देना। वो आपके आसपास के कीट-पतंगों का बदलना है? या कुत्ते, बिल्लियों का सिर्फ एक, दो ना होकर कई सारे, पता ही नहीं कहाँ-कहाँ से अचानक आना शुरू हो जाना। और फिर अचानक से ग़ायब हो जाना। इनमें से बहुत कुछ अपने आप नहीं होता। बल्की, धकाया हुआ या जबरदस्ती लाया हुआ होता है। वो फिर बंदरों के झुंड हों या गाय-भैंसों के। वो फिर टिड़ियों के दल हों या अलग-अलग तरह की चिड़ियों के। अपने आसपास में हो रहे या किए जा रहे बुरे या भले बदलावों को समझना शुरू करो। बहुत कुछ समझ आएगा। बिमारियों को होने से रोकने के या होने पर ईलाज के समाधान डॉक्टरों के पास नहीं, आपके अपने पास या आसपास हैं। डॉक्टर तो तब के लिए होते हैं, जब बीमारी लाईलाज हो जाए। और वहाँ भी ज़्यादातर केसों में, जाने या अंजाने बढ़ती हैं, कम नहीं होती।
Wednesday, April 10, 2024
आपका घर कहाँ है?
आपका घर कहाँ है?
ये प्रश्न
"बेचारे तबकों" में शायद हर औरत का है?
नहीं।
हर बेहद गरीब इंसान का है?
फिर इससे फर्क नहीं पड़ता
की आप लड़की हैं या लड़का
अगर लड़की हैं तो
इससे भी फर्क नहीं पड़ता
की आप दादी हैं?
माँ हैं?
बुआ हैं?
बहन हैं?
बेटी हैं?
या बहु?
अगर आप लड़का हैं तो भी
कुछ-कुछ ऐसा ही है।
फिर किससे फर्क पड़ता है?
दादागिरी से?
गुंडागर्दी से?
सभ्यता से?
संस्कारों से?
रीती-रिवाज़ों से?
या?
आप कहाँ रहते हैं?
और कैसे लोगों के बीच रहते हैं, शायद इससे?
Tuesday, April 9, 2024
आप कहाँ पे हैं? (Geolocation?)
आप कहाँ पे हैं?
आप किस पोज़िशन में हैं?
क्या कर रहे हैं?
बैठे हैं? खड़े हैं? लेटे हैं? क्या काम कर रहे हैं? आपके साथ या आसपास कौन-कौन हैं? आपसे कितनी दूरी पर या कितना पास हैं? वो क्या कर रहे हैं? आपने क्या पहना हुआ है? या नहीं पहना हुआ है? जो पहना हुआ है, वो साफ़ है या गन्दा है? कब पहना था? आपके आसपास का तापमान क्या है? आपके शरीर का तापमान क्या है? उसमें किस वक़्त कितना हेरफेर होता है? आपका ब्लड प्रेशर क्या है? आपको कितना पसीना आता है या नहीं? कब आता है और कब नहीं? आप कितनी देर में नहाधो के बाथरुम से बाहर निकलते हैं? कितना हगते हैं या मूतते हैं और कितनी देर? आपके पसीने, पोट्टी, या मूत का रंग या कॉन्टेंट कॉम्बिनेशन कैसा होता है? आप पुरे दिन में क्या कुछ खाते या पीते हैं? कितनी बार और किस मात्रा में? आप कितनी बार ब्रश या गार्गलेस करते हैं या मुँह साफ़ करते हैं? अपने शशीर की हर तरह की साफ़-सफाई के लिए कैसे-कैसे और कौन कौन से उत्पादों का प्रयोग करते हैं? आपके यहाँ का हवा, पानी या खाना कैसा है? साफ है या प्रदूषित है?
आपको कौन-कौन सी बीमारी हैं?
आप कौन सी भाषा बोलते हैं? या कितनी भाषाओँ का प्रयोग करते हैं या जानते हैं? आपका बोलने का तरीका या लहज़ा क्या है? धीरे बोलते हैं, तेज बोलते हैं? आराम से बोलते हैं या गुस्सा करते हैं? सभ्य भाषा का प्रयोग करते हैं या गाली-गलौच भी आपकी भाषा का हिस्सा है? आप प्यार से बोलते हैं या डाँट-डपट के? किन्हें प्यार से बोलते हैं और किन्हें डाँट-डपट के? आपके यहाँ या आसपास झगड़ा भी होता है? किसका? क्यों? और किन बातों पे? आपका झगड़ा जुबानी बहस तक रहता है या मार-पिटाई भी अक्सर उसका हिस्सा होता है? अगर हाँ तो क्यों? और किसके या किनके साथ?
आपका पहनावा या वेश भूषा क्या है? कहाँ से लेते हैं या सिलवाते हैं?
आप कितने पढ़े लिखे हैं? क्या करते हैं? कितना वक़्त खाली बिताते हैं और कितना किसी काम-धाम में व्यस्त रहकर? कौन-से और कैसे कामों में आपका ज्यादातर वक़्त बितता है? अपने घर आसपास या रिश्तेदारों से या दोस्तों के कितना सम्पर्क में रहते हैं? कितना वक़्त अपने अहम रिश्तों को देते हैं? और कितना उससे बाहर के लोगों को? आप अपने या आसपास के लोगों का भला चाहते हैं या बुरा? किससे या किनसे खुंदक रखते हैं? कितना वक़्त उस खुंदक को देते हैं? कितना अपना या आसपास का भला करने में? खुद के लिए कितना वक़्त होता है? होता भी है, या नहीं होता? कितना वक़्त औरों को देते हैं?
आप कितना कमाते हैं? उसका कितना हिस्सा खुद पे खर्च करते हैं और कितना औरों पे? आप कितना आत्मनिर्भर हैं और कितना दूसरों पर निर्भर? या कितने दूसरे आप पर निर्भर? कितना आप औरों के काम आते हैं या और आपके काम आते हैं? आप लेते अधिक हैं या देते अधिक हैं? या कोई बैलेंस ही नहीं है? जिनके आप काम आते हैं, वो आपके कितना काम आते हैं? या जो आपके काम आते हैं, उनके आप कितना काम आते हैं?
इसमें और कितना भी जोड़ सकते हैं। वो सब भी जो खुद आपको या आपके अपनों को भी अपने बारे में नहीं पता। दुनियाँ जहाँ में दूर बैठे कितने ही लोग आपके बारे में इतना कुछ जानते हैं। क्यों? इससे उन्हें क्या फायदा? किसी भी आम आदमी के बारे में इतना कुछ जानना? वो भी इतनी बड़ी जनसँख्या के बारे में? क्या करते होंगे दुनियाँ के इतने सारे लोग, इतनी बड़ी जनसंख्याँ का डाटा इक्कट्ठा करके?
क्या ये सब सिर्फ़ Geolocation के बारे में है? या उससे आगे बहुत कुछ है?
इसीलिए कहा है। राजनीती को ज्ञान-विज्ञान से थोड़ा अलग करना होगा। वो राजनीती, जिसको आपने जाने-अन्जाने अपना हिस्सा बना लिया है या अपने घरों में घुसेड़ लिया है। या वो राजनीती आपकी जानकारी के बिना जबरदस्ती घुसी हुई है, उसे बाहर निकालो अपने घरों से, अगर अपना भला चाहते हो तो। गाँव आकर ये भी समझ आया की यहाँ की ज़्यादातर समस्याओँ की जड़ भद्दी और बेहुदा राजनीती है। इन लोगों के पास जो कुछ भी है, उसे Autoimmune Disorder की तरह खा रही है। घर वालों को आपस में लड़ा-भिड़ा के बाहर निकालो और अपने लोगों को उन घरों में घुसा दो। फुट डालो, राज करो। उसपे उनको हर तरह से लूट कर ऐसे दिखाओ, जैसे तुम्हारा भला कर रहे हैं।
Monday, April 8, 2024
हरियाणवीं, अठ्ठे के ठठ्ठे
जोक काफी पुराना है। हालाँकि, अभी कहीं सोशल मीडिया पे तरो-ताज़ा आया है। आप पोस्ट पूरी नहीं करते या ड्राफ्ट में ही फिर कभी के लिए छोड़ देते हैं। मगर लोगबाग उसके सन्दर्भ में कहीं फैंक रहे होते हैं। कैसी दुनियाँ में हैं ना हम? कुछ-कुछ ऐसे शायद, जैसे अलग-अलग विषय के जानकार cell को कैसे परिभाषित करते हैं?
(या चेप दो), बेटा तुमने पढ़ाई क्यों छोड़ दी?
बायोलॉजी टीचर: Cell को हिंदी में कोशिकाएँ कहते हैं।
फिजिक्स: Cell को बैटरी कहते हैं।
इकोनॉमिक्स : सेल को हिंदी में बिक्री कहते हैं। एण्डी C की बदली S से कर गए।
इतिहास: Cell को इतिहास में जेल कहते हैं।
इंग्लिश: Cell को मोबाइल कहते हैं।
जब टीचर्स की सलाह ही एक नहीं है, तो ये हमें क्या पढ़ाएंगे?
लपेटने वाले ने इसमें थोड़ा और लपेट दिया। सच्चा ज्ञान हुआ शादी के बाद। जब घर वाली ने बताया, सेल का मतलब हो सै, सूट-साड़ी पे डिस्कॉउंट। कर लो बात? अब ये कौन से धड़े का माणस सै, ये तो बताने की ज़रुरत होनी नहीं चाहिए?
ये कुछ-कुछ "अठ्ठे के ठठ्ठे" जैसा है। जैसे ये ईस्ट कोस्ट US और साउथ US की लड़ाई देखण उनकी यूनिवर्सिटी के आर्टिकल पढ़ रहे हैं? ऐसे-ऐसे तो हम कितने क्लास में टीचर्स पे फेँक दिया करते।
अठ्ठे पे ठठ्ठा :)
आज अमेरिका में सूर्य ग्रहण है। ऐसे ही मैं कोई आर्टिकल पढ़ रही थी। दो अलग-अलग यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पे थोड़ी अलग-अलग जानकारी। कैसे भला?
एक शायद कह रहा हो, अठ्ठे पे ठठ्ठा :)
और दूसरा, हमारे घर नहीं, तुम्हारे।
आजकल हमारे यहाँ भी बच्चा किसी किताब में ऐसा कुछ पढ़ रहा था। तो मैंने कहा, अच्छा बड़े डायग्राम बनाते रहते हो ग्रहों के और ग्रहणों के। ये सूर्य ग्रहण बताना क्या होता है?
बुआ, जब चाँद, सूरज और पृथ्वी के बीच आ जाए तो
और मैं पता नहीं कौन से ग्रह पे थी? या चाँद पे? इसे बोलते हैं कुछ भी?
एकेडेमिक्स वाले शायद ऐसे ही बात करते हैं? या शायद कोढ़तंत्र वाले? फिर क्या सिविल और क्या डिफ़ेन्स?अब थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा है। उन आर्टिकल्स को पढ़के तो ऐसा ही लगा। उनकी और ऐसे-ऐसे आर्टिकल्स पे ठठ्ठे फिर कभी।
मीडिया, इंदरधनुषी रंगो और प्रकारों का अनोख़ा माध्यम
"इसने ऑनलाइन धक्के खाण ते मतलब। इस यूनिवर्सिटी के फलाना-धमकाना डिपार्टमेंट पे इतने दिन रुकी और फिर उस डिपार्टमेंट या उस यूनिवर्सिटी के फलाना-धमकाना डिपार्टमेंट पे इतने दिन। टिकती ही नहीं कहीं। "
कुछ-कुछ ऐसा पढ़ा कहीं। कोई ऑनलाइन कहाँ और क्या देख रहा है या देख रही है या पढ़ रहा है या पढ़ रही है और किस इरादे से, उससे आपको या किसी को भी क्या मतलब? क्यों फॉलो कर रहे हैं आप ऐसे, किसी को? किस इरादे से? प्रश्न तो ये अहम है। नहीं?
करने दो इन्हें भी अपना काम। शायद इनका काम होगा ये?
किसी के लिए जैसे ऑनलाइन धक्के,
तो किसी के लिए शायद, ऑनलाइन जानकारी?
कुछ खास जानने के लिए?
ऐसी जानकारी,
जिसे अपने-अपने विषय के बड़े-बड़े जानकार दे रहे हों ?
कितनी आसानी से उपलभ्ध है?
वो भी आम-आदमी के लिए?
और तक़रीबन मुफ़्त में?
बस इतना-सा ही देख रही हूँ मैं?
ऐसी जानकारी के लिए,
क्या डिग्रीयाँ लेने की जरुरत है?
वो भी पैसे देकर?
या ऐसी जग़ह से ली जाए,
जहाँ उसको हासिल करने के पैसे मिलते हों?
एक ऐसा जहाँ,
जहाँ अच्छी से अच्छी शिक्षा,
सिर्फ़ मुफ़्त में ही उपलभ्ध नहीं है
बल्की,
सीखो और कमाओ का भी माध्यम है?
ऐसा कहाँ है?
युरोप के कुछ देशों में?
शायद, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिआ में भी?
अरे नहीं।
वहाँ तो स्टुडेंट्स को अच्छा-खासा भुगतान करना पड़ता है?
वहाँ तो टीचर्स तक को,
कुछ नया जानने के लिए भी भुगतान करना पड़ता है?
कितना सच है इसमें?
मानो तो है?
नहीं तो नहीं?
वैसे तो ऐसे मीडिया के बहुत से माध्यम
भारत जैसे देशों में भी हैं।
मगर,
फिर भी उतने और उस स्तर के नहीं शायद?
मीडिया या संचार माध्यमों की,
इसमें अहम भूमिका हो सकती है।
हो सकती है?
शायद कहीं ना कहीं, है भी?
ऐसे मीडिया को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना
और ऐसे मीडिया का हिस्सा होना?
मीडिया का एक ऐसा जहाँ,
जहाँ 75-80 साल के बुजुर्ग,
कुर्सियों की रसाकस्शी में,
सारे समाज में,
जहर परोसते नज़र ना आएँ?
या सुनाई ना दें?
जहाँ बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी की कम्पनियाँ
अपना वर्चस्व और फायदा बढ़ाने के लिए,
एल्गोरिथ्म्स को भुना
जनता का उल्लू ना बनाएँ?
ऐसा मीडिया,
जहाँ डिफ़ेन्स, या सिविल के
कुछ ऊटपटाँग रिश्तों के जाले
और राजनीती की चाशनी के तड़कों का
बाज़ार ना नज़र आएँ।
ऐसा मीडिया,
जहाँ कुत्ते, बिल्लिओं पे
या साँप, करेलियों पे
आदमी के खोलों के मुखोटों के रुप में,
घंटों-घंटों बहस नज़र ना आए?
बुजर्गों को कहो, थोड़ा आराम करें
गोल्फ़ के चश्कों वाले ये अमेरिकन
70-80 के पार के बुजर्ग,
आराम से गोल्फ़ खेलें।
या ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे
अपने शौक पुरे करें।
मग़र,
देशों को चलाती, "दिखने वाली"
इन कुर्सियों को, किसी और के हवाले करें।
जो सिर्फ़ दिखावे मात्र,
उन कुर्सियों पे ना हों।
ऐसा मीडिया,
जो किस्से-कहानियों सा पढ़ाता हो?
ऐसा मीडिया,
जो ब्रेकिंग न्यूज़ करता नज़र ना आता हो?
ऐसा मीडिया,
जो नेट फ़्लिक्स-सा तो हो
की जब चाहे, जिस वक़्त चाहे,
जो देखो या पढ़ो
मगर,
मसाला मूवी या सीरियल्स की बजाय,
टेक्नोलॉजी की मूवी और सीरियल्स दिखाता हो।
ऐसा मीडिया,
जिसे बच्चे अपने आप देखने को तत्पर हों।
जिसके लिए उन्हें,
ऐसे न बिठाना पड़े
जैसे होमवर्क के लिए, कोई जबस्दस्ती हो।
कुछ-कुछ ऐसा यूट्यूब पे है
मगर ढूँढना पड़ता है।
क्यों ना ऐसे कुछ ख़ास चैनल्स हों?
ऐसा मीडिया,
जिसमें बड़ों की भी रुची हो
कुछ नया सिखने के लिए
कुछ नया जानने के लिए
जो बुजर्गों को भी भाए,
और कुछ अच्छा बताए।
वो सिर्फ़,
भजनों या मंदिरों-मस्जिदों के हवाले ना हों।
या फिर सास-बहु सीरियल्स पे नज़र गड़ाए
या खामखाँ के,
बाबाओं या गुरुओं के जालों का शिकार ना हो।
क्यूँकि,
किसी भी समाज की
दशा या दिशा के लिए
बच्चे, बड़े या बुजुर्ग के लिए
अमीर, मध्यम वर्ग या गरीब के लिए,
मीडिया बहुत बड़ी भुमिका निभाता है।
और ये भी
की मीडिया महज़ पत्रकारिता नहीं है।
ये तो हर विषय और हर वर्ग के लिए अहम है।
जितने विषय, उतनी ही तरह का मीडिया।
हर डिपार्टमेंट का अपना मीडिया?
हर विषय का अपना मीडिया?
और अपनी-अपनी लाइब्रेरी?
कहीं, वही पुराना पत्रकारिता स्टाइल
कहीं टीवी तो कहीं प्रिंट
कहीं रेडियो तो कहीं इंटरनेट।
कहीं आर्ट्स और क्राफ्ट्स
तो कहीं टेक्नोलॉजी और विज्ञान
कहीं इमर्सिव तो कहीं स्टोरी टेलिंग
किस्से-कहानियाँ वैसे ही,
जैसे दादी-नानी की कहानियाँ
मगर, वक़्त के साथ, कदम-ताल मिलाते
अपने-अपने विषय के जानकार, ऐसे बताते
जैसे, बच्चों के डूडल्स और बड़ों के ग्राफ़िक्स
शब्दों से निकलकर, किताबों से चलकर
चलचित्र से मानों स्टेज पर छा जाते।
स्टेज भी कैसी-कैसी?
कोई फ्लैट कमरा जैसे
आगे वही टीचर और चाक या मार्कर बोर्ड
और सामने स्टुडेंट्स के झुंड जैसे लाइन्स में
उसपे वही बड़ा-सा भारी भरकम बैग, किताबों का
तो कहीं हाईटेक लेक्चर थिएटर
कितना हाईटेक और कैसा माध्यम?
कितने प्रकार? और स्टुडेंट्स?
हल्के से बैग, मगर हाथों में?
दुनियाँ जहाँ की लाइब्रेरी जैसे।
मीडिया,
एक, बताता इंसान को संसाधन
तरासता ऐसे जैसे,
हर कोई लगे डायमंड, सोने-सा धन
तो दूसरा?
बच्चों तक का सोना, कानों से निकवाकार
डालता लठ जैसे?
गरीब ये कैसे-कैसे?
और कैसे-कैसे तुच्छ लोगों के सिखाए?
लताड़ता, गिराता और पड़ताड़ित करता ऐसे जैसे,
नौकरशाही या राजे-महाराजों का हर कोई गुलाम जैसे
सफ़ेद पे फैंकता एसिड,
तो काली चमड़ी को बताए-दिखाए ऐसे
जैसे,
उनके कालिख़ के लिए बच्चा पैदा करवाने वाली कोई दाई जैसे?
मीडिया,
एक तरफ 70-80 के बुजर्गों को भी दिखाता नौजवान जैसे
तो कहीं नौजवानों को बेउम्र ढालता, बुढ़ापे में ऐसे जैसे
पिग्मेंट उतार के, चमड़ी उधेड़ के, आतुर ऐसे जैसे
दिखने लगें न्यू जर्सी की चित्तकबरी गाएँ जैसे?
इसीको एक मीडिया बताए, सिस्टम के जोड़-तोड़
और ये भी बताए,
की कहाँ और कैसे बच सकते हैं, ऐसे अदृश्य प्रहारों से
तो दूसरा, जैसे लाशों पे भी मखौलिये गिद्धों के झुंड जैसे?
मीडिया
एक टीचर्स को भी निकालता क्लास और लैब से बाहर जैसे
और किताबों को, पढ़ाई-लिखाई को भी छीनने की जदोजहद में
अपने ही जैसे जहरों से, चारों तरफ फेंकता-फ़िकवाता ज़हर
और कहता जैसे,
तुम्हारे जैसे गुलामों के लिए, परोस दिए हैं हमने
कितने ही तरह के, चाहे-अनचाहे काम जैसे?
तो एक तरफ वो भी मीडिया,
जो थोंपे गए चाहे-अनचाहे कामों से निपटने के,
बताता बेहतर से बेहतर तरीके जैसे।
मीडिया,
सच में शिक्षा का कितना बड़ा और अनोख़ा माध्यम है।
इंदरधनुषी रंगों का ये, कितना अनोखा उपहार है,
अगर, सही से प्रयोग हो।
यही मीडिया,
समाज को डुबोता और हकीकतों पे झूठ परोसता ज़हर भी है
जो राजे-महाराजों के कर्म-कांडों को आईना दिखाने की बजाय
जब उन्हें बला, बला थ्योरी मात्र का जामा पहना दे?
और आम आदमी को झूठ पे झूठ परोस दे।
Sunday, April 7, 2024
छलावे? बुझो तो जाने?
बचपन में आपमें से बहुतों ने, बुझो तो जाने जैसी पहेलियाँ या तस्वीरों वाले या शब्दों या वाक्यों वाले, किसी ना किसी तरह के, छोटे-मोटे भेद या छलावे जरुर पढ़े, सुने, देखे या हल किए होंगे। आओ ऐसा ही कुछ ऑनलाइन या ऑफलाइन जानने की कोशिश करते हैं। पहले ऑनलाइन।
आपने कोई वेबसाइट खोली और लगा, शायद-से गड़बड़ घोटाला है। वो वेबसाइट सरकारी भी हो सकती है और प्राइवेट भी। असली वेबसाइट की हूबहू कॉपी जैसी होते हुए भी, असली सन्देश का गुड़-गोबर किए हुए। ज्यादातर, आम आदमी को जिसमें असली और नकली का भेद ही समझ ना आए। इसलिए, जब हूबहू कॉपी बोला जाता है तो मान के चलो, वो असली नहीं है या हक़ीकत जैसा दिखते हुए भी घपला है। मतलब, असली की कॉपी करके छलावा करने जैसा खेल है, जुआ है या राजनीती है।
या कुछ ऐसा भी हो सकता है की जब आप किसी असली वेबसाइट पे क्लीक करें और वो आपको कहीं और ही पहुँचा दे। जैसे, मान लो मैंने UIET, MDU की वेबसाइट पे क्लीक किया और खुला क्या?
ये