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Monday, April 8, 2024

मीडिया, इंदरधनुषी रंगो और प्रकारों का अनोख़ा माध्यम

"इसने ऑनलाइन धक्के खाण ते मतलब। इस यूनिवर्सिटी के फलाना-धमकाना डिपार्टमेंट पे इतने दिन रुकी और फिर उस डिपार्टमेंट या उस यूनिवर्सिटी के फलाना-धमकाना डिपार्टमेंट पे इतने दिन। टिकती ही नहीं कहीं। "

कुछ-कुछ ऐसा पढ़ा कहीं। कोई ऑनलाइन कहाँ और क्या देख रहा है या देख रही है या पढ़ रहा है या पढ़ रही है और किस इरादे से, उससे आपको या किसी को भी क्या मतलब? क्यों फॉलो कर रहे हैं आप ऐसे, किसी को? किस इरादे से? प्रश्न तो ये अहम है। नहीं? 

करने दो इन्हें भी अपना काम। शायद इनका काम होगा ये? 

 

किसी के लिए जैसे ऑनलाइन धक्के, 

तो किसी के लिए शायद, ऑनलाइन जानकारी? 

कुछ खास जानने के लिए? 

ऐसी जानकारी, 

जिसे अपने-अपने विषय के बड़े-बड़े जानकार दे रहे हों ? 

कितनी आसानी से उपलभ्ध है? 

वो भी आम-आदमी के लिए? 

और तक़रीबन मुफ़्त में?

बस इतना-सा ही देख रही हूँ मैं? 


ऐसी जानकारी के लिए,

क्या डिग्रीयाँ लेने की जरुरत है? 

वो भी पैसे देकर? 

या ऐसी जग़ह से ली जाए, 

जहाँ उसको हासिल करने के पैसे मिलते हों? 


एक ऐसा जहाँ, 

जहाँ अच्छी से अच्छी शिक्षा, 

सिर्फ़ मुफ़्त में ही उपलभ्ध नहीं है 

बल्की, 

सीखो और कमाओ का भी माध्यम है?

ऐसा कहाँ है? 


युरोप के कुछ देशों में? 

शायद, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिआ में भी? 

अरे नहीं। 

वहाँ तो स्टुडेंट्स को अच्छा-खासा भुगतान करना पड़ता है? 

वहाँ तो टीचर्स तक को,

कुछ नया जानने के लिए भी भुगतान करना पड़ता है? 

कितना सच है इसमें? 

मानो तो है? 

नहीं तो नहीं? 

वैसे तो ऐसे मीडिया के बहुत से माध्यम 

भारत जैसे देशों में भी हैं। 

मगर, 

फिर भी उतने और उस स्तर के नहीं शायद?  


मीडिया या संचार माध्यमों की,

इसमें अहम भूमिका हो सकती है।

हो सकती है? 

शायद कहीं ना कहीं, है भी? 

ऐसे मीडिया को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना 

और ऐसे मीडिया का हिस्सा होना? 


मीडिया का एक ऐसा जहाँ, 

जहाँ 75-80 साल के बुजुर्ग, 

कुर्सियों की रसाकस्शी में, 

सारे समाज में,

जहर परोसते नज़र ना आएँ? 

या सुनाई ना दें?


जहाँ बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी की कम्पनियाँ 

अपना वर्चस्व और फायदा बढ़ाने के लिए, 

एल्गोरिथ्म्स को भुना 

जनता का उल्लू ना बनाएँ?

ऐसा मीडिया, 

जहाँ डिफ़ेन्स, या सिविल के 

कुछ ऊटपटाँग रिश्तों के जाले 

और राजनीती की चाशनी के तड़कों का 

बाज़ार ना नज़र आएँ। 


ऐसा मीडिया, 

जहाँ कुत्ते, बिल्लिओं पे 

या साँप, करेलियों पे 

आदमी के खोलों के मुखोटों के रुप में,

घंटों-घंटों बहस नज़र ना आए? 


बुजर्गों को कहो, थोड़ा आराम करें 

गोल्फ़ के चश्कों वाले ये अमेरिकन 

70-80 के पार के बुजर्ग, 

आराम से गोल्फ़ खेलें। 

या ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे 

अपने शौक पुरे करें।  

मग़र, 

देशों को चलाती, "दिखने वाली" 

इन कुर्सियों को, किसी और के हवाले करें। 

जो सिर्फ़ दिखावे मात्र, 

उन कुर्सियों पे ना हों।  


ऐसा मीडिया,

जो किस्से-कहानियों सा पढ़ाता हो?

ऐसा मीडिया,

जो ब्रेकिंग न्यूज़ करता नज़र ना आता हो?

ऐसा मीडिया,

जो नेट फ़्लिक्स-सा तो हो 

की जब चाहे, जिस वक़्त चाहे, 

जो देखो या पढ़ो  

मगर,

मसाला मूवी या सीरियल्स की बजाय, 

टेक्नोलॉजी की मूवी और सीरियल्स दिखाता हो।  


ऐसा मीडिया, 

जिसे बच्चे अपने आप देखने को तत्पर हों। 

जिसके लिए उन्हें, 

ऐसे न बिठाना पड़े 

जैसे होमवर्क के लिए, कोई जबस्दस्ती हो।  

कुछ-कुछ ऐसा यूट्यूब पे है 

मगर ढूँढना पड़ता है। 

क्यों ना ऐसे कुछ ख़ास चैनल्स हों?


ऐसा मीडिया,

जिसमें बड़ों की भी रुची हो 

कुछ नया सिखने के लिए 

कुछ नया जानने के लिए 

जो बुजर्गों को भी भाए, 

और कुछ अच्छा बताए। 

वो सिर्फ़,

भजनों या मंदिरों-मस्जिदों के हवाले ना हों। 

या फिर सास-बहु सीरियल्स पे नज़र गड़ाए 

या खामखाँ के,

बाबाओं या गुरुओं के जालों का शिकार ना हो। 


क्यूँकि,

किसी भी समाज की 

दशा या दिशा के लिए 

बच्चे, बड़े या बुजुर्ग के लिए 

अमीर, मध्यम वर्ग या गरीब के लिए,

मीडिया बहुत बड़ी भुमिका निभाता है। 

और ये भी 

की मीडिया महज़ पत्रकारिता नहीं है। 

ये तो हर विषय और हर वर्ग के लिए अहम है। 


जितने विषय, उतनी ही तरह का मीडिया।

हर डिपार्टमेंट का अपना मीडिया?

हर विषय का अपना मीडिया?

और अपनी-अपनी लाइब्रेरी?    

कहीं, वही पुराना पत्रकारिता स्टाइल 

कहीं टीवी तो कहीं प्रिंट 

कहीं रेडियो तो कहीं इंटरनेट। 


कहीं आर्ट्स और क्राफ्ट्स 

तो कहीं टेक्नोलॉजी और विज्ञान 

कहीं इमर्सिव तो कहीं स्टोरी टेलिंग 

किस्से-कहानियाँ वैसे ही, 

जैसे दादी-नानी की कहानियाँ  

मगर, वक़्त के साथ, कदम-ताल मिलाते 

अपने-अपने विषय के जानकार, ऐसे बताते 

जैसे, बच्चों के डूडल्स और बड़ों के ग्राफ़िक्स 

शब्दों से निकलकर, किताबों से चलकर 

चलचित्र से मानों स्टेज पर छा जाते। 


स्टेज भी कैसी-कैसी?

कोई फ्लैट कमरा जैसे 

आगे वही टीचर और चाक या मार्कर बोर्ड 

और सामने स्टुडेंट्स के झुंड जैसे लाइन्स में 

उसपे वही बड़ा-सा भारी भरकम बैग, किताबों का 

तो कहीं हाईटेक लेक्चर थिएटर 

कितना हाईटेक और कैसा माध्यम?

कितने प्रकार? और स्टुडेंट्स?

हल्के से बैग, मगर हाथों में?

दुनियाँ जहाँ की लाइब्रेरी जैसे। 


मीडिया,

एक, बताता इंसान को संसाधन 

तरासता ऐसे जैसे, 

हर कोई लगे डायमंड, सोने-सा धन 

तो दूसरा?

बच्चों तक का सोना, कानों से निकवाकार 

डालता लठ जैसे?

गरीब ये कैसे-कैसे? 

और कैसे-कैसे तुच्छ लोगों के सिखाए?   

लताड़ता, गिराता और पड़ताड़ित करता ऐसे जैसे, 

नौकरशाही या राजे-महाराजों का हर कोई गुलाम जैसे 

सफ़ेद पे फैंकता एसिड, 

तो काली चमड़ी को बताए-दिखाए ऐसे 

जैसे,

उनके कालिख़ के लिए बच्चा पैदा करवाने वाली कोई दाई जैसे?    


मीडिया, 

एक तरफ 70-80 के बुजर्गों को भी दिखाता नौजवान जैसे 

तो कहीं नौजवानों को बेउम्र ढालता, बुढ़ापे में ऐसे जैसे 

पिग्मेंट उतार के, चमड़ी उधेड़ के, आतुर ऐसे जैसे 

दिखने लगें न्यू जर्सी की चित्तकबरी गाएँ जैसे? 

इसीको एक मीडिया बताए, सिस्टम के जोड़-तोड़ 

और ये भी बताए, 

की कहाँ और कैसे बच सकते हैं, ऐसे अदृश्य प्रहारों से  

तो दूसरा, जैसे लाशों पे भी मखौलिये गिद्धों के झुंड जैसे? 


मीडिया 

एक टीचर्स को भी निकालता क्लास और लैब से बाहर जैसे

और किताबों को, पढ़ाई-लिखाई को भी छीनने की जदोजहद में 

अपने ही जैसे जहरों से, चारों तरफ फेंकता-फ़िकवाता ज़हर  

और कहता जैसे,

तुम्हारे जैसे गुलामों के लिए, परोस दिए  हैं हमने 

कितने ही तरह के, चाहे-अनचाहे काम जैसे? 

तो एक तरफ वो भी मीडिया,

जो थोंपे गए चाहे-अनचाहे कामों से निपटने के,

बताता बेहतर से बेहतर तरीके जैसे।     

  

मीडिया, 

सच में शिक्षा का कितना बड़ा और अनोख़ा माध्यम है। 

इंदरधनुषी रंगों का ये, कितना अनोखा उपहार है,

अगर, सही से प्रयोग हो।  

यही मीडिया,

समाज को डुबोता और हकीकतों पे झूठ परोसता ज़हर भी है 

जो राजे-महाराजों के कर्म-कांडों को आईना दिखाने की बजाय 

जब उन्हें बला, बला थ्योरी मात्र का जामा पहना दे?  

और आम आदमी को झूठ पे झूठ परोस दे।      

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