घर में संसार, गावँ में ही संसार, आपके शहर में ही संसार, राज्य या देश में ही संसार या वसुधैव कुटुम्बकम?
क्या संभव है की आपके घर में या आसपास में ही हिंदुस्तान, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक, दुबई, इजराइल, फिलिस्तीन, इंग्लैंड, फ्रांस, स्वीडन, नॉर्वे, अमेरिका, कनाडा, अफ्रीका आदि देशों का वास हो?
संसार वही है, जहाँ आप रहते हैं? जितना आप सोच सकते हैं? या जितनी जगह आप आ, जा सकते हैं और घुम या रह सकते हैं? शायद दोनों ही सच है?
स्वर्ग और नर्क का फर्क काफी हद तक आपकी सोच पर है और काफी हद तक आपके आसपास के लोगों पर। क्या करते हैं वो आसपास वाले? और आप क्या करना चाहते हैं? क्या जीवन शैली (lifestyle) है उनकी? और आपकी? क्या सपने हैं आपके और उनके? कितना सहयोग या दखल है उनका आपकी जिंदगी में? इनमें जितना ज्यादा समानता या अंतर होगा, आपका जीवन उतना ही स्वर्ग या नरक होगा। घर, संसार भी यही है, और वसुधैव कुटुम्भकम भी।
अगर आपकी सोच, आपके सपने, अपने आसपास से मेल नहीं खाते तो पहले तो ऐसी जगह ढूंढिए, जहाँ वो तालमेल बन सके। या अपने आसपास के वातावरण को जितना हो सके ऐसे बनाइए की वो तालमेल बन सके।
आपकी ज़िंदगी कैसी है, ये काफी हद तक आपके वातावरण पर निर्भर करता है। जैसे किसी पौधे की ज़िंदगी उसका वातावरण तय करता है। उसे कितना, किस मात्रा में खाद-पानी, धूप-छाँव चाहिए और कितना मिल रहा है। हाँ! यहाँ पौधों और इंसानों में एक खास फर्क है, वो है दिमाग का। खासकर, वयस्क इंसानों के लिए। उसका प्रयोग कर आप विपरीत वातावरण में भी काफी कुछ कर सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं। मगर ये तय आपको करना होगा, की उसके लिए क्या क़ीमत देने को आप तैयार हो सकते हैं ? और क्या नहीं दे सकते ?
विपरीत वातावरण और तनाव और उसके प्रभाव, एक दुसरे के होने का सिद्ध करना जैसे। ये इंसानों में ही नहीं, पेड़ पौधों और जानवरों में भी होता है। इसका थोड़ा बहुत होना, शायद जायज़ भी है और आगे बढ़ने के लिए जरूरी भी। मगर ज्यादा का मतलब, बीमारियों का घर। तनाव के होने के कारणों को रोकना मतलब, बीमारियों को रोकना। जानते हैं इन्हें भी किसी और पोस्ट में।
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