तेरी होली,
मेरी होली,
इसकी होली,
उसकी होली,
सबके इन त्यौहारों को समझने के,
मनाने के, शायद तौर-तरीक़े अलग हों।
क्यूँकि, मेरी समझ
तेरी समझ
इसकी समझ
उसकी समझ
जरुरी नहीं, एक हो
और सबके लिए नेक हो।
अपनी समझ
अपनी सोच
रखो पास अपने
अगर समझा ना सको
बातों से।
उसे जबरदस्ती
इसपे या उसपे
थोंपने का काम ना करो।
जरुरी नहीं,
हर कोई खेलना चाहे
कोई तो दर्शकदीर्घा भी हो
और ये भी जरुरी नहीं
की हर कोई
तुम्हारे तौर-तरीकों से खेलना चाहे
और ये भी तो हो सकता है
की कोई बिमार हो
या किसी को एलर्जी हो
तुम्हारे खुँखार रंगों से
या तुम्हारे गंदे पानी से
या शायद किसी को
तुम्हारे साफ़ पानी और रंगों से भी
परेशानी हो।
तो क्यों जोर जबरदस्ती?
खेलो उनसे, जो तुमसे खेलना चाहे
थोड़ा दूर उनसे
जो सिर्फ दर्शक-दीर्घा बनना चाहें
या अपने काम काज़ से
कहीं निकलना चाहें।
इस होली,
रंगो को मिलाओ ना ऐसे,
की वो कालिख़ बन जाएँ।
उन्हें सजाओ तुम ऐसे,
की वो इंदरधनुष-से खिल जाएँ।
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