Media and education technology by profession. Writing is drug. Minute observer, believe in instinct, curious, science communicator, agnostic, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel.
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मुझे तो आज़ादी और बेड़ियों का मतलब समझ, 2019 में ही आ गया था। तारीख क्या थी? और महीना? उसके बाद, उसी महीने में अगले साल कुछ खास था? खैर। इस दौरान जो दुनियाँ देखी, मुझे लगता है दूर से ही सही, वो एक बार तो जरुर सबको देखनी चाहिए। क्यों? अगर आप रिसर्च को खास समझते हैं तो शायद अपने पेपरों को ही या तो रद्दी के हवाले कर देंगे। या उनमें थोड़ा-बहुत तो जरुर कुछ और बेहतर करने का सोचेंगे। मगर रिसर्च ही क्यों?
आओ कुछ-एक भाषण सुनें।
रौचक भाषण, अगर जाती से परे थोड़ा देखें तो?
मुझे नेता-वेता या राहुल गाँधी कोई खास पसंद नहीं। मगर, एक-दो सत्यपाल मलिक के भाषण सुने हैं। काफी रौचक होते हैं। कुछ एक पॉइंट्स खासतौर पर जानने लायक। थोड़े बहुत मानने लायक भी शायद। जैसे इस भाषण में शिक्षा को लेकर।
शिक्षा पे जीतना ध्यान दोगे, उतना ही आगे बढ़ोगे। जीतना इससे दूर जाओगे, उतना ही पिछड़ते जाओगे। ये मैंने जोड़ दिया।
"गोली अगर आए, तो उसका जवाब गोले से देना"
गोली से आप क्या समझते हैं?
और गोले से?
हमारे मौलड़ जवाब कैसे देंगे? हथियारों से? और फिर?
ज्यादा पढ़े और उसपे कढ़े हुए लोग कैसे देंगे?
गोली के बारे में बात बाद में। पहले गोला समझें थोड़ा?
गूगल बाबा से पूछें?
AI (Artificial Intelligence) कभी-कभी बड़े रोचक परिणाम देती है।
जैसे किसी साइड की तरफ से कोड-डिकोड में सहायता?
कैसे पढ़ेंगे इस तस्वीर को आप?
आपके आसपास कोई गोले बेचने आता है क्या?
या गोली बेचने?
गोली तो शायद आप दूकान से लाते हैं? Pharma या Medicine Shop?
आपके आसपास किन-किन की हैं, वो दुकानें?
एक ही दवाई अलग-अलग दूकान से लेकर देखो।
किसी या किन्हीं ऐसी दवाईयों में कुछ फर्क मिलता है क्या?
ऐसे ही नारियल पानी कहाँ मिलता है?
या पानी वाला नारियल?
या किससे मिलता है?
और वो देने वाले कहाँ से लाते हैं?
और गोला?
आपके आसपास आता है कोई बेचने?
कौन? कहाँ से?
एक गोले के कितने टुकड़े करता है?
और कितने में मिलता है?
पूरा गोला कितने का और एक टुकड़ा कितने का?
और पानी वाला नारियल कितने का?
सूखे गोले में और पानी वाले नारियल में क्या फर्क है?
बिमारियों से जोड़कर देखो।
ये सब जानकर? अब ऊप्पर वाली गूगल की गूगली वाली तस्वीर को समझने की कोशिश करो। शायद कुछ खास बिमारियों के किस्से-कहानी समझ आ जाएँ? सम्भव है? कोशिश तो करके देखो। आप जो कोई खाना या पानी ले रहे हैं, बिमारियों के काफी राज उन्हीं में छिपे हैं। उसके बाद दवाईयों या हॉस्पिटल तक जाते हो, तो बाकी कोड वहाँ मिल जाएँगे।
उससे भी आगे, अगर कभी पहुँचना पड़े तो? जब तक बहुत सारे कोड और उनके मतलब ना पता हों, तो बहुत कुछ जानना तो मुश्किल है। मगर, खास तेहरवीं तक के वक़्त में, अगर कोई नेता या अभिनेता आ फटके, तो तारीख और वक़्त अपने आप काफी कुछ गा रहा होगा। कहीं-कहीं तो शायद ऐसा लगेगा, की इस साँप के डंक का दिन आज का है? ये साँत्वना देने आया है या अपने किन्हीं कांडों पे मोहर ठोकने जैसे? अजीब लग रहा है, ये सब पढ़कर? मगर राजनीति के इस धंधे में कुछ ऐसा-सा ही बताया। और बहुत बार तो जरुरी नहीं की नेता तक को कुछ ऐसा पता हो। क्यूँकि, वो महज़ एक proxy भी हो सकता है, किसी तरफ के किसी खास किरदार की। वो भी उसकी अपनी जानकारी के बिना।
चलो आपने In Depen Dence का गोला या गोली फेंक ली हो, तो अगले भाषण या शायद किसी इंटरव्यू को देखें? सुने? और थोड़ा समझने की कोशिश करें?
मगर, राजनीती ने उसकी दुर्दशा करके यूँ लगता है, जैसे, गतवाड़ा बना दिया हो। बहुतों को शायद गतवाड़ा क्या होता है, यही नही मालूम होगा। हरियाणा और आसपास के राज्यों में, गरीब लोग गाएँ-भैंसों के गोबर के उपले बनाते हैं। वो भी हाथ से। फिर, उन उपलों को सूखा कर, स्टोर करते हैं। गरीब हैं, तो स्टोर करने तक को कोई जगह नहीं होगी, जहाँ उन्हें बारिश से बचाया जा सके। तो उपलों को खास तरकीब से तहों पे तहें रख कर, बाहर से गोबर से लेप देते हैं। उसे गतवाड़ा कहते हैं। ये गोबर से बने उपले, गैस की जगह प्रयोग होते हैं। गतवाड़े को ठेठ हरियाणवी में बटोड़ा और उपलों को गोसे भी कहते हैं।
एक कहावत भी है, अगर कोई कुछ ढंग का बोलने की बजाय या दिखाने या समझाने की बजाय, या करने की बजाय, अगर फालतू की बकवास करे तो? हरियाणा में उसे "नरा बटोड़ा स। बटोड़े मैं त गोसे ए लकड़ेंगे।" भी बोला जाता है। राजनीती के अपमानकर्ताओं के कुछ ऐसे से ही हाल बताए। ये, ईधर के अपमानकर्ता और वो उधर के। इन हालातों को सुधारने के थोड़े शालीन तरीके भी हैं।
जैसे, गतवाड़े अगर किताबवाड़े हो जाएँ? तो क्या निकलेगा उनमें से? तो चलो मेरे देश के खास-म-खास महान नेताओ, और कुछ नहीं तो अपने-अपने नाम से या खास अपनों के नाम से ही सही, कुछ एक किताबवाड़े ही बनवा दो? जहाँ से "फुक्कन जोगे", "अपमानकर्ता गोसे", नहीं, ज्ञान-विज्ञान के पिटारे निकलेंगे, किताबों के रुप में। और आसपास के बच्चों, बड़ों या बुजर्गों को इक्क्ठे बैठने के लिए या आपसी संवाद के लिए, या कुछ नया या पुराना सीखने के लिए, न सिर्फ जगह मिलेंगी, बल्की समाज का थोड़ा स्तर भी बेहतर होगा। उन्हें किताबवाड़े की जगह बैठक भी बोल सकते हैं। जहाँ हुक्के, ताशों या तू-तू, मैं-मैं की बजाय, थोड़ा बेहतर तरीके से संवाद हो। वैसे, जिनके पास थोड़ी बड़ी बैठकें हैं या जो अपनी बैठकों को खास समझते हैं, वो भी उन्हें कोई खास नाम देकर, ऐसा कुछ बना सकते हैं।
ऐसे ही शायद, जैसे भगतों या शहीदों के नाम पर सिर्फ पथ्थरों की मूर्तियाँ घड़ने के, वहाँ ऐसा कुछ भी हो? तो शायद लोगों को ऐसी जगहें ज्यादा बेहतर लगेंगी।
"चलती-फिरती गाड़ी, कबाड़ की। लाओ, जिस किसी माता-बहन ने कबाड़ बेचना है। कबाड़ लाओ और नकद पैसे लो। चलती-फिरती गाडी कबाड़ की।" अब ये क्या है?
किताबों पे या इनके आसपास के विषयों पे, जब कुछ ऐसा लिखा जाता है, तो जाने क्यों, बाहर कोई ऐसा-सा बंदा जा रहा होता है। या फिर, "काटड़ा बेच लो।" कुछ भी जैसे? है ना :)
आधार केन्द्रित? मूल? जिसपे ब्याज भी लगता है? और जिसका टैक्स भी कटता है? और? अगर आप इनके अनुसार ना चले, तो टैक्स भी भारी-भरकम लगता है।
जहाँ पढ़ने वालों को क्लासों से, लैब्स से बाहर निकालने की कोशिश होती हैं। पढ़ाई-लिखाई या कैरियर ओरिएंटेड लोगों को प्रोफ़ेशनल जोन से ही बाहर धकेलने की कोशिशें होती हैं। जाने कौन-से मैट पे और कैसे-कैसे तरीकों से? जैसे, उस खास किस्म के मैट के बिना ज़िंदगी ही ख़त्म है। उसके बिना कुछ नहीं ज़िंदगी में। जैसे कुछ लोगों के हिसाब-किताब से एक उम्र तक शादी नहीं की, तो आपकी ज़िंदगी में है ही क्या? जैसे जिन्होंने शादी कर ली, उन्हीं की ज़िंदगी में सब है। शायद थोड़े से ज्यादा झमेले? और जो सारी उम्र ना करें, वो तो बिलकुल ही ख़त्म होंगे? अब किसी की शादी हो गई और बच्चे नहीं हुए या पैदा नहीं कर रहे, तो उन ज़िंदगियों में कुछ नहीं है? एक दकियानुशी दायरे में कैद सोच, जो चाहे की सब उनके दायरे वाली कैदों के हवाले रहें। उनके खास टैस्टिंग वाली लैब्स के टैस्ट से गुजरें। नहीं तो ---
और इन खास सोच वालों के हिसाब-किताब से ना ही इन ज़िंदगियों को कुछ चाहिए। जो है वो सब उनके हिसाब-किताब वाली ज़िंदगियों को अवार्ड होना चाहिए। ऐसे लोगों को देख-सुनकर या झेलकर समझ ही नहीं आता, की तानाशाही के कितने रुप हो सकते हैं? क्यों कोई किसी के जबरदस्ती के स्टीकर उठाए घूमें? और क्यों सबकी ज़िंदगियाँ, इन खास वाले ठेकेदारों के हिसाब-किताब से चलें?
हिसाब-किताब? बेबी को बेस पसंद है, वाले? या
"जब वो मैट पे कुस्ती लड़ रहे थे, तो ये विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।"
--पे तो हमारी राजनीतिक पार्टियों की पॉलिसी चलती हैं?
बताओ ऐसे-ऐसे हमारे युवा नेता, खास बाहर से पढ़े-लिखे, क्या और कितना देंगे समाज को? प्रश्न हैं, ऐसे-ऐसे कुछ अपने खास नेताओं के लिए। वो फिर इस पार्टी के हों या उस पार्टी के। ये खास "बेस पसंद सिस्टम" या "खास टच पैड सिस्टम", बाहर निकल पाएगा क्या, 23rd पेअर सैक्स क्रोमोजोम से ? महज़ XY के हॉर्मोन्स से? 44 क्रोमोजोम और भी हैं। ठीक ऐसे जैसे, इन खास जुआ खेलने वाले वर्ग के। सारे समाज को क्यों घसीटते हो वहाँ? ये कम पढ़ी-लिखी या तकरीबन अनपढ़ माएँ, चाचियाँ, ताई या दादियाँ, कैसे-कैसे पानी के खेल खेलते हो इनके साथ आप? और तो क्या कहें भाईचारे वाले इन नेताओं को, "गलत बात"। आप समाज को आगे बढ़ाने और उठाने के लिए हैं, ना की यूँ गिराने के लिए।
ऐसे तो नेता को "अपमानकर्ता" से संबोधित करना पड़ेगा। फिर राजनीती के लिए सही शब्द क्या होगा ? "Insult to life, insult to death", के लिए एक हिंदी या हरियान्वी शब्द?
माहौल कैसे प्रभावित करता है, किसी भी जीव को? उसकी ग्रोथ को या ज़िंदगी को?
छोटे-छोटे से उदहारण लेते हैं।
आवाज़ें आ रही हैं कहीं से। किसी छोटी-सी बच्ची पे डाँट पड़ रही है शायद।
गँवारपठ्ठे: हरामजादी, कुत्ती, सारा साल तो खेलती हाँडी, ईब बैठ क रोवै स, जब कल सर प पेपर है। ब्लाह, ब्लाह,
स्कूल के बच्चों पे इतना प्रेशर? और ये जुबान तो आम है यहाँ।
थोड़ी देर बाद बच्चा सुबकते हुए: मरुँगी मैं। मेरे को नहीं जीना। मरुँगी मैं।
क्या हुआ? सिलेबस पूरा नहीं हुआ ना? खेलने चले गए, मना करने के बावजूद?
पापा ले गए खेत, घुमाने।
पापा ले गए या आप खुद गए?
रोना बंद करो अब और लो पानी पीओ। क्या खाना है?
गुस्से में: कुछ नहीं खाना। मरना है मेरे को। मैं भी ....... मर जाती तो ब्लाह ब्लाह ब्लाह
ओह हो। इतना गुस्सा? इतने छोटे-से बच्चे में? पेपरों की वजह से भी कोई मरता है? ये अब गए, तो कल फिर आ जाएँगे। आज नहीं हुआ, तो कल हो जाएगा।
चुप करो। वक़्त नहीं है, मेरे पास।
बाप रे। अभी तो बहुत वक़्त है आपके पास। पूरी ज़िंदगी है।
नहीं है। मरना है मुझे।
बकवास बंद करो, नहीं तो
नहीं तो क्या
बैठ के पढ़ते हैं।
नहीं होगा। सारा सिलेबस पड़ा है।
अरे दिखाओ तो, मुझे भी पता है। इत्ता-सा तो सिलेबस है।
इत्ता-सा?
हाँ। बस 2-4 घंटे में हो जाएगा।
2-4 घंटे में?
हाँ। और अभी तो हमारे पास पूरी रात है।
मैं जाग लूंगी?
मैं जगा दूंगी।
नींद आई तो?
नहीं आएगी। नींद भगाने के तरीके होते हैं।
अभी किताब खोलो
और 12. 00 - 12. 30 तक सिलेबस निपट गया, समझो।
(बच्चों का सिलेबस ही कितना होता है? मगर, बच्चों के लिए तो वही पहाड़ होगा, अगर वक़्त कम होगा या समझ नहीं आएगा तो। )
जाओ अब सो जाओ। बाकी सुबह उठकर पढ़ लेना। मैं जगा दूंगी।
और पेपर के बाद बच्चा, पेपर अच्छा हो गया, अच्छा हो गया, करता आ रहा है।
और एक हमारी माँ करती थी।
माँ, सुबह उठा दियो। पेपर देने जाना है।
पेपर तेरा है या मेरा? देके आना हो तो उठ लियो।
:)
या फिर लेट तक जाग रहे हो और कोई थोड़ा बहुत शोर हो गया।
भाईरोई, पड़े न पड़न दे। किसे और क भी लाइट जले स? अक तू अ घणी पढ़ाकू स?
या
इन पोथ्यां न त बिगाड़ दी। कम पढे ए, सही रहवे ए।
मतलब, यहाँ आजतक पढ़ाई पे खतरे हैं। बहाना कुछ भी हो सकता है।
इन लोगों ने देखा ही नहीं की दुनियाँ कितना-कितना पढ़ती है। और उनकी ज़िंदगियाँ मस्त हैं। कम से कम, यहाँ वाली औरतों जैसे हालात तो नहीं हैं। बोल चाल का तरीका, रहन-सहन का तरीका, सुख-सुविधाएँ, समझाने का तरीका या प्रेशर को बढ़ाने का, सिर्फ शब्दों ही शब्दों में या घटाने का, बहुत असर करता है ज़िंदगी पे। और भी कितनी ही छोटी-मोटी सी रोजमर्रा की बातें, ज़िंदगी को आगे बढ़ाने में या पीछे धकेलने में कितना तो योगदान देती हैं। तभी तो आप जो होते हैं, आपके बच्चे भी ज्यादातर वहीं तक रह जाते हैं। उससे आगे, उन्हें ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। और उस मेहनत को अक्सर ये माहौल, आगे बढ़ाने की बजाय, पीछे धकेलता मिलेगा।
ड्राफ्ट में पड़ी थी ये पोस्ट। कुछ महीने पहले की बात है। मगर जाने क्यों, पोस्ट करने का मन नहीं था। ऐसे ही जैसे कितना कुछ हम लिखते हैं, मगर सब पोस्ट कहाँ करते हैं? यूँ ही, छोटी-छोटी सी बातें समझ के। यही छोटी-छोटी सी बातें, कभी-कभी कितना कुछ बिगाड़ कर जाती हैं?
Rhythms of Life 4th अगस्त 2011 पोस्ट, ब्लॉग्स के organization, clutter, declutter में कहीं और गई।
आज ही के दिन कोई इंसान इस घर से गया था। जो इस घर का न होकर भी, अपने घर से ज्यादा इस घर का था। कोई बात ही नहीं थी। मेरे पास आया , स्टडी टेबल और कुर्सी दे गया। उन दिनों मै सैक्टर-14 रहती थी। घर पे भी ऐसी ही कुछ, कहानियाँ थी। मगर, ऐसी कहानियों के पीछे छिपे रहस्यों को जानना, बहुत मुश्किल भी नहीं होता शायद।
अरविंद केजरीवाल रैली और किसान हादसा : ऐसे केसों को जानना शायद थोड़ा बहुत मुश्किल हो ? शायद ?
ऐसा-सा ही कुछ ये भी शायद?
Generally, मैं स्पैम मेल्स नहीं खोलती। उसपे gmail तो वैसे भी yahoo से कम ही प्रयोग होता है। मगर जब भी खुलता है, तो ज्यादातर स्पैम बिना पढ़े डिलीट होती हैं। शायद यही होना भी चाहिए।
मगर, जाने क्यों कल जब कई दिन बाद चैक किया तो स्पैम मेल्स पे निगाह ठहर गई जैसे। इमेल्स भी पीछे की तारीख में होती हैं क्या, स्पैम ही सही? या महज coincidence जैसे? या कुछ नहीं मिलता-जुलता? या मिलता भी है और नहीं भी शायद? मगर कैसे? यहाँ-वहाँ , जाने कहाँ-कहाँ, सब जैसे साथ-साथ सा ही होता है? मगर कैसे? ये अहम है।
ऐसा ही कुछ है इस जुए के राजनीतिक धंधे में। और अपनी इन धमकियों या डरावों को कायम रखने के लिए ये पार्टियाँ कितनी ही तरह के साम, दाम, दंड, और भेद अपनाती हैं।
पहले भी लिखा किसी पोस्ट में, हर अपडेट, हर इंसान के लिए सही नहीं होता। और ना ही जरुरी। हाँ। अपडेट लाने वालों के लिए जरुर होता है। नहीं तो, उनके नए-नए उत्पाद कैसे बिकेंगे? और कैसे उनके व्यवसाय या धंधे आगे बढ़ेंगे? नए-नए अपडेट या उत्पाद बाजार में लाने का मतलब ही, पुरानों को ठिकाने लगाना होता है। और जरुरी भी नहीं, की नया पुराने से बेहतर ही हो। या उस बेहतर में ऐसा कुछ भी, जिसकी आपको जरुरत तक हो। जैसे पीछे भाभी गए, तो अपराधीक मानसिकता वालों ने उनके लैपटॉप का ना सिर्फ विंडो उड़ा दिया। बल्की, उसमें ऐसा कुछ भी कर दिया, जिससे, जिसे मुश्किल से विंडो दुबारा इंस्टॉल करने तक का ही ज्ञान हो, कम से कम, वो उसे फिर से ना ठीक कर पाए।
बिमारियों, इंसानों और रिश्तों के साथ भी ऐसा-सा ही है।