गट्टरवादी सोच?
गोडम-गुडाई सोच?
चोदम-चुदाई सोच?
गाँडव विवाह?
या मच्छीबाज़ार?
या दो बोतल के बदले ज़मीन?
या भद्दे स्टीकर्स बहन-बेटियों तक पर?
1234? ABCD?
मुत्तो-हगो टेस्टिंग्स?
और भी पता ही नहीं
कितनी तरह की संस्कारी सोच, विचार और कारनामे?
ये सब करती हैं, हमारी राजनीतिक पार्टियाँ?
और इन सबमें भागीदार होती हैं, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ?
बात 21वीं सदी की और काम?
और काम कबीलाई दादागिरी वाले समुहों जैसे?
कौन हैं आप?
वो जो लड़कियों को क्या,
बल्की, जहाँ कहीं बस चले उस इंसान को
कभी बड़ा नहीं होने देते?
उसको उसकी ज़िंदगी अपने हिसाब से नहीं जीने देते?
ये है अल्टरनेटिव राजनीती भाँड़ पार्टी,
इसे बोलते हैं आप?
शराब के ठेकों की प्रधानता है इनकी?
और ये एक और अल्टरनेटिव राजनीती के उभरते सितारे?
अरविन्द केजरीवाल के 2. 0 बताए?
इनकी भी कुछ ऐसी-सी ही हैं प्राथमिकताएँ?
दो बोतल के बदले ज़मीन की मुफ़्तख़ोरी?
और बहन बेटियों की कोई नहीं हिस्सेदारी?
है। मगर सिर्फ बड़े लोगों की बेटियों की?
उनकी तो माओं तक की हिस्सेदारी है?
गरीबों की बेटियों को गोड दो हर तरह से।
ऐसे भी, और वैसे भी।
हर केस में सबूत इन so called बड़े लोगों के खिलाफ
मगर?
मगर हार जाओगे तुम?
क्यूँकि, वकील और जज भी हैं उसी सिस्टम का हिस्सा?
जो ऊँगली और अँगूठे दिखाता है लड़कियों को?
नंबरो या बेहुदा कोढ़ों के स्टीकर दिखाता है, लोगों को?
गुडम-गुडाई या चुदम-चुदाई है, उनके संवैधानिक नीति का आधार?
ओब्जेक्शन्स के बावजूद की बँध करो ये धँधा,
अपना बुचड़खाना और जुआरी बाज़ार।
बँध करो,
अपनी बहन बेटियों तक के बैडरूम और बाथरुम में घुसना।
उनके प्राइवेट पार्ट्स और अंदरुनी द्रव्यों तक पर ताक झाँक
और चौराहों के गुंडों जैसी टिक्का टिपणियाँ करना।
बँध करो ये लिचड़खाना।
बात हो,
मगर उस कोढ़स्तान की
जिसमें झोँक रखा है ये दुनियाँ भर का सिस्टम ऐसे
की कौन, कब पैदा होगा (होगी) या नहीं होगा
वो भी ये राजनीती बताएगी?
जो पैदा हो भी गया तो कब तक जिएगा?
और
कब और कहाँ और कैसे मरेगा?
ये भी, ये राजनीती बताएगी?
कब बच्चे बड़े होंगे
किस तारीख, महीने या साल
उनके पीरियड्स शुरु होंगे?
ये भी, ये राजनीती बताएगी?
कब तक किसी के मेंसिज़ चलेंगे
और किस-किस तारीख को शुरु होंगे,
ये भी, ये राजनीती बताएगी?
कब किसके बँध होंगे?
या ऑपरेट कर किस तारीख, महीने या साल
ओवरी ही निकाल दी जाएगी?
ये भी, ये राजनीती बताएगी?
राजनीतिक बिमारियों पे बात करने से कतराने की बजाय
PIL को बच्चों की तरह, IPL कह टालने की बजाय
ये हैं किसी भी समाज के लिए गँभीर मुद्दे।
ना की लोगों की ज़िंदगियों में इस कदर तांक झाँक करना
की वो,
ऐसे ऐसे कोर्ट्स को भद्दा मज़ाक समझने लग जाएँ।
बात हो,
मगर ये,
की दुनियाँ जहाँ की नज़रों के बावजूद
कोई स्तान कैसे किसी औरत को
उसके ऑफिस वाली जगह पर घेरकर पीट सकते हैं?
रिकॉर्डिंग्स के बावजूद,
ऐसे ऐसे गुंडे
आज भी वहीँ काम करते हैं?
और वो महिला इस कदर परेशान की जाती है
की नौकरी ही छोड़कर चली जाती है?
उसपर ऐसे ऐसे भी हैं वकील और जज
जो कहें सही हुआ?
ऐसे ऐसे वकील और जज
और क्या कुछ सही कहते होंगे?
सोचकर भी घिन्न आती है।
खलल ना पड़े, बस उनके ऐशो आराम में।
उन्हें घेला फर्क नहीं पड़ता
फिर समाज जाए किसी भाड़ में।
जो लड़कियों को ज़मीन कह गुडवा, लुटवा या बिकवा दें?
बड़े बड़े (कितने बड़े!) लोगों को या कंपनियों को ?
और ऐसे बाज़ारू धँधे के मालिक,
ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी मौतों पर
गिद्ध जैसे निगलने को बैठ जाएँ?
अपने लोग?
या हद दर्जे के घिनौने लोग?
कोर्ट्स?
यही सब देखने और शायद खुद भी करने के लिए बने हैं?
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