हमें लगता है की अब तो इलेक्शन बड़े शांत तरीके से हो जाते हैं? पहले की तरह लठ, गोली, बूथ लूटना नहीं होता? ऐसा ही? कुछ सालों पहले शायद ऐसी सी कोई पोस्ट भी लिखी थी मैंने? पर जब पता चला की इलेक्शन वो हैं ही नहीं, जो हम सोचते हैं। ये तो कुछ और ही तरह का जुआ है। पहले इंटरनेट या फ़ोन की इतनी सुविधा नहीं थी, तो लठ, गोली वैगरह ज्यादा दिखते थे। अब? अब राजनीती का ज्यादातर जुआ ऑनलाइन चलता है? तब दुनियाँ यूँ ग्लोबल नहीं थी, जैसे अब? की अभी यहाँ कुछ हुआ और सिर्फ खबर ही नहीं, बल्की, action, reaction या response भी उसी वक़्त, दुनियाँ के किसी और हिस्से में भी।
Bio Chem Physio Psycho या Electrical युद्ध उस वक़्त भी होते थे। मगर, कहाँ क्या चल रहा है, उसकी उसी वक़्त खबर कम से कम आम आदमी को, कोडों के जरिए ऐसे नहीं होती थी जैसे अब? अब तो अभी कहाँ क्या पक रहा है या इनका या उनका अगला कदम क्या हो सकता है, उसकी खबर तक ऑनलाइन मिल जाती है। बढे चढ़े या बिगड़े रुप में शायद? हाँ, इस खबर के नुकसान भी काफी हैं। बहुत बार अगर खबर का माध्यम ही संदिग्ध हो, तो बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा भी समझ आ सकता है।
सोचो राजनीतिक पार्टियाँ आपको बिमारियों के बारे में बता रही हों?
ऐसे?
BJP का दिल्ली में DENGUE से क्या लेना देना है?
ऐसे ही जैसे, AAP का FOGGING से?
कैसे कोड हैं ये?
राजनीतिक पार्टियाँ बिमार हैं क्या, जो वो ऐसे बिमारी फैलाती हैं?
शायद?
या शायद बहुत कुछ ऐसा सा, सीधा-सीधा या उल्टा-सीधा भी उसी वक़्त जाने कहाँ-कहाँ और किस किस रुप में देखने सुनने को मिलता है?
आगे कोशिश करते हैं, ऐसा ही कुछ जानने की?
No comments:
Post a Comment