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Sunday, April 13, 2025

ABCDs of Views and Counterviews? 65

Tax?

पानी पे टैक्स?

खाने पे टैक्स?

रहने की जगह पर टैक्स?

कपड़ो (या चिथड़ों) पर टैक्स?

संगत पर टैक्स?     

और कहाँ-कहाँ टैक्स देते हैं आप? या ये और ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे टैक्स देते हैं? ऐसा कितना कमाते हैं? उस कमाई से बचाते कितना हैं? कितना कहाँ-कहाँ और किस-किस रुप में ख़र्च होता है? या शायद ऐसे किसी सिस्टम का हिस्सा हैं जो अपने आप भी कोई बचत करवाता है? कितने ही बेफ़िजूली क्यों ना हों, वो बचत तो कहीं नहीं जानी?    

सबसे बड़ी बात जिनपे आप टैक्स देते हैं, उसकी गुणवत्ता क्या है? कहीं खाने-पीने के नाम पर जहर पे तो टैक्स नहीं दे रहे? कपड़ों की बजाय चीथड़ों पे? रहने की ठीक-ठाक जगह की बजाय, परेशानी वाली जगह पे? ये सब या ऐसा कुछ शायद तब तक समझ नहीं आता, जब तक आप अच्छा-खासा झटका नहीं खा लेते? उसके बाद अपना ही नहीं, बल्की, आसपास का भी बहुत-कुछ समझ आने लगता है। और अगर इतने सालों बाद मैं वापस गाँव नहीं आती, तो शायद ये सब समझ भी नहीं आता, की आप कहाँ-कहाँ कितनी तरह से लूटपीट रहे हैं? ज्यादा डिटेल में जाने की बजाय, जिसका निचोड़ इतना-सा है।  

जहरीले या ख़राब खाने-पीने पर टैक्स हमें नहीं, बल्की उन्हें देना चाहिए, जो ये सब परोस रहे हैं। और उसमें कहीं की भी राजनीती का बहुत बड़ा योगदान है। नेताओं को या पुलिस वालों को या ऐसी ही किन्हीं व्यवस्था को कंट्रोल में रखने वाली एजेंसी के बन्दों को शायद उसके लाभ का कुछ हिस्सा मिलता है? यही मिली-भगत आम आदमी को हर तरह से और हर स्तर पर खा जाती है।     

इससे मिलता जुलता भी और इससे थोड़ा सा परे भी एक और दायरा है, गाँव का। या शायद ऐसी सी जगहों का? ये आपको बताता है, खासकर, जब आप उस सबको थोड़ा ज्यादा समझना शुरु कर देते हैं?        

 

अमीरी चमकती है, और गरीबी?

अमीरी उम्र बढाती है और स्वस्थ रखती है और गरीबी?

अमीरी दिमागों को भी अपने लिए काम पर रखती है और गरीबी?

अमीरी और गरीबी दोनों ही बढ़ाई-चढ़ाई भी जा सकती हैं और घटाई भी। मगर कैसे?

एक 60, 70 साल की बुढ़िया ऐसे दिखती है और चलती है जैसे 80, 90 साल की हो। 

और एक 80, 90 साल की बुजुर्ग ऐसे, जैसे, अभी 60, 70 की हो। 

बुढ़िया और बुजुर्ग? कितना फर्क है ना अमीरी और गरीबी में? या शायद थोड़ा सभ्य और असभ्य होने में? ये जुबान से ही शुरु होती है शायद? या फिर दिमाग से? या आसपास के माहौल से? कुछ लोग जुबाँ का ही खाते हैं? और कुछ? उसी से गँवा देते हैं? यहाँ चापलूसी की बात नहीं हो रही, क्यूँकि, वो तो अलग ही तरह की जुबान होती है। 

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