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Thursday, April 24, 2025

ABCDs of Views and Counterviews? 71

Grip on every person like some eagle?

जबड़े में लिया हुआ है, जैसे हर आदमी?

ऐसा है कहर, राजनीतिक पार्टियों का?

बाजार का, बड़ी-बड़ी कंपनियों का?

हर इंसान पर?

मगर, इतना संभव कैसे?       


साढ़े तीन दिन का खास सुनारियाँ की सैर ड्रामा, किसी एक पार्टी द्वारा, उसके द्वारा घड़ी गई कहानी दिखा, सुना, बता या समझा रहा था? वो सच में हकीकत थी या सिर्फ घड़ी हुई कहानी? उस पार्टी द्वारा, जिसने ये साढ़े तीन दिन का खासमखास ड्रामा रचा? अगर हकीकत थी, तो कितनी? आप हॉउस अरेस्ट हैं, इतने सालों से? 2005 से? या आप पुलिस द्वारा की गई गुंडागर्दी के फलस्वरूप किडनैप हैं, इतने सालों से? और ये सब ऐसे-ऐसे हुआ है? एक-एक घटनाकर्म किडनैपिंग से लेकर रिहा होने तक? मगर जिसे किडनैप किया गया था, उसे किस रुप में और क्या समझ आया, उस साढ़े तीन दिन के ड्रामे से?

वो सब वहीँ नहीं रुका। ये सब किसी युद्ध का हिस्सा था, जिसमें उसे बिल्कुल ख़त्म करना था? इसमें सबसे भद्धा और घटिया रोल खुद उस पार्टी का था, जिसने वो सब रचा? क्यूँकि?


या जैसे?

या?
और भी कितने ही किस्से कहानियाँ, इस पार्टी के, उस पार्टी के?
हकीकत कहाँ कितनी है, कैसे पता चले?

ये कुछ एक किताबें, जो 2018 या उसके बाद के कुछ एक सालों में खरीदी थी, यहाँ-वहाँ रिव्यु पढ़ कर। यूँ लगा, जैसे, इन किताबों का कवर पेज ही बहुत कुछ कह रहा हो। मगर, पढ़ नहीं पाई, बस खरीदी। क्यूँकि, एक के बाद एक, अजीबोगरीब फाइल्स इक्क्ठी करने का दौर शुरु हो गया था। वो फाइल्स अपने आप में किसी न किसी तरह की कहानी सुना रही थी। और शायद ये भी समझा रही थी, की राजनीतिक पार्टियाँ ये कहानियाँ घड़ती कैसे हैं?

इसके बाद एक दौर और भी शुरु हुआ, खासकर, राजद्रोह (sedition) के केस के बाद। उसमें सुप्रीम कोर्ट भी किसी और ही रुप में नजर आया। मानो कह रहा हो, कोर्ट आम आदमी के द्वार? खासकर, ऐसे माहौल में जब आपको लगे की आप केस कैसे लड़ेंगे, ऐसे माहौल में तो आप कोर्ट तक भी सही सलामत नहीं जा सकते? और कोर्ट जैसे आपके लैपटॉप की रजिस्ट्री में बैठे हों? कोर्ट ही नहीं, मीडिया और राजनीतिक पार्टियाँ भी। हर एक शब्द, हर एक तस्वीर, हर एक विडिओ जैसे कुछ कह रहा हो। सिर्फ आपके लैपटॉप पर नहीं, बल्की उनकी webites या सोशल मीडिया पर भी। और फिर जैसे कहीं से फरमान भी निकला, की अगर ऐसे माहौल में नहीं जीना तो भारत से निकल, और कोई रस्ता नहीं। मगर प्रश्न इतने सालों से वही रहा, कहाँ? कोई इस हाल में अपने लोगों को छोड़ कर ऐसे कैसे अकेला निकल सकता है? क्यूँकि,

जबड़े में लिया हुआ है, जैसे हर आदमी?

ऐसा है कहर, राजनीतिक पार्टियों का?

बाजार का, बड़ी-बड़ी कंपनियों का?

हर इंसान पर?

मगर, इतना संभव कैसे?
और सबसे बड़ी बात उन्हें आजतक खबर नहीं?

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