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Media and education technology by profession. Writing is drug. Minute observer, believe in instinct, curious, science communicator, agnostic, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Monday, April 22, 2024

India's Shashi Tharoor and Pakistan's?

इसे-इसे, माणसां पै कुछ जमता-सा नहीं है ना, भारत का शशि थरुर और पाकिस्तान का इमरान खान?

ये तो  India's Shashi Tharoor and Pakistan's Imran Khan ही कहने में थोड़े जमते-से हैं? 

हिंदी में यूँ कह सकते हैं, 

वो किसना है? 

या 1, 2 का 4?


और हरियान्वी में ? 

जो अपने आपको ठेठ हरियान्वी समझते हैं, वो बताएँ?

वैसे गानों से परे, वापस शशि थरुर और इमरान खान पे आएँ? आप क्या सोचते हैं, इन दो महानों के बारे में? एक बॉर्डर के इस पार और दूसरा? बॉर्डर के उस पार?

Depends की सन्दर्भ क्या है? अगली पोस्ट में जानने की कोशिश करते हैं। 

Thursday, April 11, 2024

संतुलन जरुरी है

जैसे स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार जरुरी है। संतुलित शरीर का प्रयोग जरुरी है, चाहे वो फिर घुमना-फिरना, साईकल चलाना, तैरना, व्यायम या कसरत करना हो। वैसे ही, जितना हम अपने आसपास से, पर्यावरण से या प्रकृति से लेते हैं, कम से कम उतना, उसे वापस देना भी जरुरी है। जहाँ-जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ का वातावरण उतना ही खराब है। फिर चाहे वायु हो, पानी या ज़मीन। पेड़-पौधे हों, जीव-जंतु, या पक्षी। जीव-निर्जीव, इन सबसे किसी ना किसी रुप में आप कुछ ना कुछ लेते हैं। कुछ ऐसा जो अनमोल है, जो आपके जीवन के लिए जरुरी है। इनमें से कुछ अहम कारकों को लेते हैं।  

वायु 

आप वातावरण से ऑक्सीजन लेते हैं, जो जीवनदायी है। अगर आपके वातावरण में उसी की कमी हो जाएगी या किसी और ज़हरीली गैस की अधिकता, तो साँस कैसे लेंगे? पेड़-पौधे वातावरण को शुद्ध करने का काम करते हैं। आपके आसपास कितने हैं? इसके इलावा बहुत कुछ इस वायुमंडल में ऐसा छोड़ते हैं, जो इसको साँस लेने के काबिल नहीं छोड़ता। उसके लिए आप क्या करते हैं? यहाँ सिर्फ हरियाणा, पंजाब, दिल्ली की सरकारों के एक-दूसरे पर राजनीतिक प्रहारों की बात नहीं हो रही। ये समस्या दुनियाँ में और भी बहुत जगह है या थी। उसके लिए उन्होंने क्या उपाय किए? तो शायद पता चले, की ज्ञान-विज्ञान को राजनीती से अलग समझना कितना जरुरी है। 

क्यूँकि, राजनीतीक उसी ज्ञान-विज्ञान का दोहन करके, राजनीतिक पॉइंट्स इक्क्ठे करने के लिए कहीं ज्ञान-विज्ञान का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे? कुर्सियों के चक्कर में, हर तरह से लोगों को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहे? 

इसीलिए हर आदमी के लिए भी इकोलॉजी की समझ बहुत जरुरी है। 

पानी 

मैं एक छोटा-सा उदाहरण अपने ही गाँव का लेती हूँ। क्यूँकि, बाकी गाँवोँ या शहरों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। आपके यहाँ सप्लाई का पानी रोज आता है? कितनी बार आता है? साफ़ पीने लायक आता है? या पीने लायक नहीं होता, मगर बाकी घर के कामों के लिए प्रयोग कर सकते हैं? या इस लायक भी नहीं होता की लैटरीन तक में डालने में ऐसा लगे, की फ़ायदा क्या?

अगर आपके यहाँ सरकार साफ़ पीने लायक पानी हर रोज सुबह-श्याम, आज तक भी नहीं पहुँचा पाई, तो आप कैसी सरकारों को चुन रहे हैं, इतने सालों से? और क्यों?  

आजकल जहाँ मैं हूँ, वहाँ सप्लाई का पानी 7-10 दिन या 10-15 दिन में एक बार आता है। जी। सही सुना आपने। आजकल, वो फिर भी थोड़ा बहुत फर्श वगरैह धोने लायक होता है। दो साल पहले जब यहाँ आई, तो ऐसे लगता था जैसी गटर से पानी सप्लाई हो रहा हो। यूँ लगता था, ये सप्लाई ही क्यों करते हैं? इसका अहम कारण है, यहाँ का वॉटर सप्लाई सिस्टम, शायद मेरे पैदा होने से भी पहले का है। जितना मुझे पता है। 46 साल की तो मैं ही हो गई। मतलब, इतने सालों तक किसी ने नहीं सोचा की उसकी क्षमता बढ़ाई जाए, जनसंख्याँ के अनुपात में? कहेँगे नहर कम आती है, पानी कहाँ से आए? नहर तो शायद पहले भी इतनी ही आती थी या इससे भी कम। मगर पानी पूरा आता था। और अब जितना गन्दा भी नहीं होता था।  

जब हम छोटे थे तो यही पानी सुबह-श्याम आता था। और बहुत बार ऐसे ही बहता था। हालाँकि, पीने के पानी के लिए तब भी लोग ज्यादातर कुओं पे निर्भर थे। आजकल या तो टैंकर आते हैं पानी सप्लाई करने। वो भी सरकार के नहीं, बल्की प्राइवेट। या लोग, खेतों के हैंडपंप या समर्सिबल पर निर्भर हैं और वहाँ से लाते हैं। खेतों में भी हर जगह मीठा पानी नहीं है। जहाँ-जहाँ है, वहाँ की ज़मीन के रेट अक्सर ज्यादा होते हैं। जहाँ पे अक्सर मारकाट या धोखाधड़ी भी देखी जा सकती है। एक तरोताज़ा केस तो अभी भाई की सिर्फ दो कनाल वाली जगह का ही है। 

टैंकर सप्लाई कौन करते हैं? और कहाँ-कहाँ वाटर पुरीफायर घर पे कामयाब हो सकते हैं? ये फिर से अलग विषय हो सकता है। क्यूँकि, यहाँ पे ज्यादातर लोग घरों में भी हैंडपम्प्स या समर्सिबल पर निर्भर हैं। इसीलिए तकरीबन हर दूसरे घर में आपको ये देखने को मिलेंगे। मगर यहाँ घरों के एरिया का पानी इतना जहरीला है की बर्तनों पे दाग पड़ जाते हैं। कपड़े ढंग से साफ़ नहीं होते। दाँत पीले पड़ जाते हैं (Fluorosis) । फर्श पे पड़ेगा, तो सुखते ही सॉल्टी नमी या धब्बे। अब जब तकरीबन सब जमीन के पानी का प्रयोग करेंगे और वापस उस ज़मीन में जाएगा नहीं, तो क्या होगा? हर साल जहर का असर बढ़ता जाएगा। और बिमारियों का भी। जिनमें त्वचा की बीमारी भी हैं और बहुत-सी दूसरी भी। कम से कम, बारिश के पानी को वहीं ज़मीन में वापस पहुँचाकर, इस समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। 

या ऐसी जगहों को छोड़ के कहीं अच्छी जगह खिसको, इसका एकमात्र समाधान है? तो ऐसी जगहों की सरकारों को क्या तो वोट करना? और कैसे चुनाव? जब सारे समाधान ही खुद करने हैं? उसपे ऐसे चुनके आई सरकारें, बच्चों तक को बहनचो, माँचो, छोरीचो, भतिजीचो और भी पता ही नहीं, कैसे-कैसे कार्यकर्मों या तमाशों में उलझाए रखेंगी। इसपे पोस्ट कहीं और। Social Tales of Social Engineering में।                           

ज़मीन   

ज़मीन आपको क्या कुछ देती है? आप उसे वापस क्या देते हैं? ज़हर?

हमारे घरों से, खेतों से, फैक्ट्री-कारखानों से, कितने ही ज़हरीले कैमिकल्स रोज निकलते हैं। वो कहाँ जाते हैं? पानी के स्रोतों में और उन द्वारा ज़मीन में? या सीधा ज़मीन में? आज के युग में भी waste treatment, sewage treatment, proper disposal  या recycling जैसा कुछ नहीं है, हमारे यहाँ? क्यों? ये तो दिल्ली के आसपास के या किसी भी बड़े शहर के आसपास के गाँवोँ क्या, उस आखिरी बॉर्डर के पास या दुर्गम से भी दुर्गम जगह पे भी होना चाहिए। ज़मीन से शायद इतना कुछ लेते हैं हम। उसके बगैर हमारा अस्तित्व ही नहीं है। फिर किस बेशर्मी से उसे बदले में ज़हर देते हैं? बिमारियों की बहुत बड़ी वज़ह है ये।         

 पीछे आपने पोस्ट में पढ़ा     

इन सबमें तड़के का काम किया है, आज की टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग ने

और बढ़ते सुख-सुविधाओँ के गलत तौर-तरीकों ने। व्हीकल्स, ए.सी. (AC), घर बनाने में सीमेंट और लोहे का बढ़ता चलन। मगर, घर की ऊँचाई का कम और दिवारों का पतला होते जाना। खिड़की, दरवाजों का छोटा और कम होते जाना। बरामदों का खत्म होना। घरों का छोटा होना। पेड़-पौधों का घरों में ख़त्म होना। घरों में खुले आँगनों का छोटा होते जाना। सर्फ़, साबुन, शैम्पू, कीटनाशक, अर्टिफिशियल उर्वरक, हार्पिक, डीओज़, ब्यूटी पार्लर प्रॉडक्ट्स आदि का बढ़ता तीखा और ज़हरीला असर। और भी ऐसे-ऐसे कितने ही, गलत तरीक़े या बुरे प्रभाव या ज़हर। तो क्या इन सबका प्रयोग ना करें? जँगली बनकर रहें? करें, मग़र सही तरीके-से और सोच-समझ कर। ये जानकर, की कितना और कैसे प्रयोग करें। इतना प्रयोग ना करें, की वो जहर बन जाए। जितना इनका प्रयोग करें, उतना ही इनके दुस्प्रभावोँ को कम से कम करने के उपाय भी करें। कैसे? आगे पोस्ट में। 

इसमें से कितना इस पोस्ट में है? जनरल या आम समझ। सिर्फ लेने से काम नहीं चलेगा, वापस भी देना होगा। वापस कैसे करें? अगली पोस्ट में AC से ही शुरू करें?    

Wednesday, April 10, 2024

आपका घर कहाँ है?

आपका घर कहाँ है?

ये प्रश्न 

"बेचारे तबकों" में शायद हर औरत का है? 

नहीं। 

हर बेहद गरीब इंसान का है? 

फिर इससे फर्क नहीं पड़ता 

की आप लड़की हैं या लड़का 

अगर लड़की हैं तो 

इससे भी फर्क नहीं पड़ता 

की आप दादी हैं?

माँ हैं?

बुआ हैं?

बहन हैं?

बेटी हैं?

या बहु? 

अगर आप लड़का हैं तो भी 

कुछ-कुछ ऐसा ही है। 

फिर किससे फर्क पड़ता है?

दादागिरी से?

गुंडागर्दी से?

सभ्यता से?

संस्कारों से? 

रीती-रिवाज़ों से?

या? 

आप कहाँ रहते हैं? 

और कैसे लोगों के बीच रहते हैं, शायद इससे?

Monday, April 8, 2024

हरियाणवीं, अठ्ठे के ठठ्ठे

जोक काफी पुराना है। हालाँकि, अभी कहीं सोशल मीडिया पे तरो-ताज़ा आया है। आप पोस्ट पूरी नहीं करते या ड्राफ्ट में ही फिर कभी के लिए छोड़ देते हैं। मगर लोगबाग उसके सन्दर्भ में कहीं फैंक रहे होते हैं। कैसी दुनियाँ में हैं ना हम?  कुछ-कुछ ऐसे शायद, जैसे अलग-अलग विषय के जानकार cell को कैसे परिभाषित करते हैं?

(या चेप दो), बेटा तुमने पढ़ाई क्यों छोड़ दी?   

बायोलॉजी टीचर: Cell को हिंदी में कोशिकाएँ कहते हैं। 

फिजिक्स: Cell को बैटरी कहते हैं। 

इकोनॉमिक्स : सेल को हिंदी में बिक्री कहते हैं। एण्डी C की बदली S से कर गए। 

इतिहास: Cell को इतिहास में जेल कहते हैं। 

इंग्लिश: Cell को मोबाइल कहते हैं।  

जब टीचर्स की सलाह ही एक नहीं है, तो ये हमें क्या पढ़ाएंगे?

लपेटने वाले ने इसमें थोड़ा और लपेट दिया। सच्चा ज्ञान हुआ शादी के बाद। जब घर वाली ने बताया, सेल का मतलब हो सै, सूट-साड़ी पे डिस्कॉउंट। कर लो बात? अब ये कौन से धड़े का माणस सै, ये तो बताने की ज़रुरत होनी नहीं चाहिए?   

ये कुछ-कुछ "अठ्ठे के ठठ्ठे" जैसा है। जैसे ये ईस्ट कोस्ट US और साउथ US की लड़ाई देखण उनकी यूनिवर्सिटी के आर्टिकल पढ़ रहे हैं? ऐसे-ऐसे तो हम कितने क्लास में टीचर्स पे फेँक दिया करते।  

अठ्ठे पे ठठ्ठा :)

आज अमेरिका में सूर्य ग्रहण है। ऐसे ही मैं कोई आर्टिकल पढ़ रही थी। दो अलग-अलग यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पे थोड़ी अलग-अलग जानकारी। कैसे भला? 

एक शायद कह रहा हो, अठ्ठे पे ठठ्ठा :) 

और दूसरा, हमारे घर नहीं, तुम्हारे।     

आजकल हमारे यहाँ भी बच्चा किसी किताब में ऐसा कुछ पढ़ रहा था। तो मैंने कहा, अच्छा बड़े डायग्राम बनाते रहते हो ग्रहों के और ग्रहणों के। ये सूर्य ग्रहण बताना क्या होता है?

बुआ, जब चाँद, सूरज और पृथ्वी के बीच आ जाए तो 

और मैं पता नहीं कौन से ग्रह पे थी? या चाँद पे? इसे बोलते हैं कुछ भी? 

एकेडेमिक्स वाले शायद ऐसे ही बात करते हैं? या शायद कोढ़तंत्र वाले? फिर क्या सिविल और क्या डिफ़ेन्स?अब थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा है। उन आर्टिकल्स को पढ़के तो ऐसा ही लगा। उनकी और ऐसे-ऐसे आर्टिकल्स पे ठठ्ठे फिर कभी।    

मीडिया, इंदरधनुषी रंगो और प्रकारों का अनोख़ा माध्यम

"इसने ऑनलाइन धक्के खाण ते मतलब। इस यूनिवर्सिटी के फलाना-धमकाना डिपार्टमेंट पे इतने दिन रुकी और फिर उस डिपार्टमेंट या उस यूनिवर्सिटी के फलाना-धमकाना डिपार्टमेंट पे इतने दिन। टिकती ही नहीं कहीं। "

कुछ-कुछ ऐसा पढ़ा कहीं। कोई ऑनलाइन कहाँ और क्या देख रहा है या देख रही है या पढ़ रहा है या पढ़ रही है और किस इरादे से, उससे आपको या किसी को भी क्या मतलब? क्यों फॉलो कर रहे हैं आप ऐसे, किसी को? किस इरादे से? प्रश्न तो ये अहम है। नहीं? 

करने दो इन्हें भी अपना काम। शायद इनका काम होगा ये? 

 

किसी के लिए जैसे ऑनलाइन धक्के, 

तो किसी के लिए शायद, ऑनलाइन जानकारी? 

कुछ खास जानने के लिए? 

ऐसी जानकारी, 

जिसे अपने-अपने विषय के बड़े-बड़े जानकार दे रहे हों ? 

कितनी आसानी से उपलभ्ध है? 

वो भी आम-आदमी के लिए? 

और तक़रीबन मुफ़्त में?

बस इतना-सा ही देख रही हूँ मैं? 


ऐसी जानकारी के लिए,

क्या डिग्रीयाँ लेने की जरुरत है? 

वो भी पैसे देकर? 

या ऐसी जग़ह से ली जाए, 

जहाँ उसको हासिल करने के पैसे मिलते हों? 


एक ऐसा जहाँ, 

जहाँ अच्छी से अच्छी शिक्षा, 

सिर्फ़ मुफ़्त में ही उपलभ्ध नहीं है 

बल्की, 

सीखो और कमाओ का भी माध्यम है?

ऐसा कहाँ है? 


युरोप के कुछ देशों में? 

शायद, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिआ में भी? 

अरे नहीं। 

वहाँ तो स्टुडेंट्स को अच्छा-खासा भुगतान करना पड़ता है? 

वहाँ तो टीचर्स तक को,

कुछ नया जानने के लिए भी भुगतान करना पड़ता है? 

कितना सच है इसमें? 

मानो तो है? 

नहीं तो नहीं? 

वैसे तो ऐसे मीडिया के बहुत से माध्यम 

भारत जैसे देशों में भी हैं। 

मगर, 

फिर भी उतने और उस स्तर के नहीं शायद?  


मीडिया या संचार माध्यमों की,

इसमें अहम भूमिका हो सकती है।

हो सकती है? 

शायद कहीं ना कहीं, है भी? 

ऐसे मीडिया को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना 

और ऐसे मीडिया का हिस्सा होना? 


मीडिया का एक ऐसा जहाँ, 

जहाँ 75-80 साल के बुजुर्ग, 

कुर्सियों की रसाकस्शी में, 

सारे समाज में,

जहर परोसते नज़र ना आएँ? 

या सुनाई ना दें?


जहाँ बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी की कम्पनियाँ 

अपना वर्चस्व और फायदा बढ़ाने के लिए, 

एल्गोरिथ्म्स को भुना 

जनता का उल्लू ना बनाएँ?

ऐसा मीडिया, 

जहाँ डिफ़ेन्स, या सिविल के 

कुछ ऊटपटाँग रिश्तों के जाले 

और राजनीती की चाशनी के तड़कों का 

बाज़ार ना नज़र आएँ। 


ऐसा मीडिया, 

जहाँ कुत्ते, बिल्लिओं पे 

या साँप, करेलियों पे 

आदमी के खोलों के मुखोटों के रुप में,

घंटों-घंटों बहस नज़र ना आए? 


बुजर्गों को कहो, थोड़ा आराम करें 

गोल्फ़ के चश्कों वाले ये अमेरिकन 

70-80 के पार के बुजर्ग, 

आराम से गोल्फ़ खेलें। 

या ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे 

अपने शौक पुरे करें।  

मग़र, 

देशों को चलाती, "दिखने वाली" 

इन कुर्सियों को, किसी और के हवाले करें। 

जो सिर्फ़ दिखावे मात्र, 

उन कुर्सियों पे ना हों।  


ऐसा मीडिया,

जो किस्से-कहानियों सा पढ़ाता हो?

ऐसा मीडिया,

जो ब्रेकिंग न्यूज़ करता नज़र ना आता हो?

ऐसा मीडिया,

जो नेट फ़्लिक्स-सा तो हो 

की जब चाहे, जिस वक़्त चाहे, 

जो देखो या पढ़ो  

मगर,

मसाला मूवी या सीरियल्स की बजाय, 

टेक्नोलॉजी की मूवी और सीरियल्स दिखाता हो।  


ऐसा मीडिया, 

जिसे बच्चे अपने आप देखने को तत्पर हों। 

जिसके लिए उन्हें, 

ऐसे न बिठाना पड़े 

जैसे होमवर्क के लिए, कोई जबस्दस्ती हो।  

कुछ-कुछ ऐसा यूट्यूब पे है 

मगर ढूँढना पड़ता है। 

क्यों ना ऐसे कुछ ख़ास चैनल्स हों?


ऐसा मीडिया,

जिसमें बड़ों की भी रुची हो 

कुछ नया सिखने के लिए 

कुछ नया जानने के लिए 

जो बुजर्गों को भी भाए, 

और कुछ अच्छा बताए। 

वो सिर्फ़,

भजनों या मंदिरों-मस्जिदों के हवाले ना हों। 

या फिर सास-बहु सीरियल्स पे नज़र गड़ाए 

या खामखाँ के,

बाबाओं या गुरुओं के जालों का शिकार ना हो। 


क्यूँकि,

किसी भी समाज की 

दशा या दिशा के लिए 

बच्चे, बड़े या बुजुर्ग के लिए 

अमीर, मध्यम वर्ग या गरीब के लिए,

मीडिया बहुत बड़ी भुमिका निभाता है। 

और ये भी 

की मीडिया महज़ पत्रकारिता नहीं है। 

ये तो हर विषय और हर वर्ग के लिए अहम है। 


जितने विषय, उतनी ही तरह का मीडिया।

हर डिपार्टमेंट का अपना मीडिया?

हर विषय का अपना मीडिया?

और अपनी-अपनी लाइब्रेरी?    

कहीं, वही पुराना पत्रकारिता स्टाइल 

कहीं टीवी तो कहीं प्रिंट 

कहीं रेडियो तो कहीं इंटरनेट। 


कहीं आर्ट्स और क्राफ्ट्स 

तो कहीं टेक्नोलॉजी और विज्ञान 

कहीं इमर्सिव तो कहीं स्टोरी टेलिंग 

किस्से-कहानियाँ वैसे ही, 

जैसे दादी-नानी की कहानियाँ  

मगर, वक़्त के साथ, कदम-ताल मिलाते 

अपने-अपने विषय के जानकार, ऐसे बताते 

जैसे, बच्चों के डूडल्स और बड़ों के ग्राफ़िक्स 

शब्दों से निकलकर, किताबों से चलकर 

चलचित्र से मानों स्टेज पर छा जाते। 


स्टेज भी कैसी-कैसी?

कोई फ्लैट कमरा जैसे 

आगे वही टीचर और चाक या मार्कर बोर्ड 

और सामने स्टुडेंट्स के झुंड जैसे लाइन्स में 

उसपे वही बड़ा-सा भारी भरकम बैग, किताबों का 

तो कहीं हाईटेक लेक्चर थिएटर 

कितना हाईटेक और कैसा माध्यम?

कितने प्रकार? और स्टुडेंट्स?

हल्के से बैग, मगर हाथों में?

दुनियाँ जहाँ की लाइब्रेरी जैसे। 


मीडिया,

एक, बताता इंसान को संसाधन 

तरासता ऐसे जैसे, 

हर कोई लगे डायमंड, सोने-सा धन 

तो दूसरा?

बच्चों तक का सोना, कानों से निकवाकार 

डालता लठ जैसे?

गरीब ये कैसे-कैसे? 

और कैसे-कैसे तुच्छ लोगों के सिखाए?   

लताड़ता, गिराता और पड़ताड़ित करता ऐसे जैसे, 

नौकरशाही या राजे-महाराजों का हर कोई गुलाम जैसे 

सफ़ेद पे फैंकता एसिड, 

तो काली चमड़ी को बताए-दिखाए ऐसे 

जैसे,

उनके कालिख़ के लिए बच्चा पैदा करवाने वाली कोई दाई जैसे?    


मीडिया, 

एक तरफ 70-80 के बुजर्गों को भी दिखाता नौजवान जैसे 

तो कहीं नौजवानों को बेउम्र ढालता, बुढ़ापे में ऐसे जैसे 

पिग्मेंट उतार के, चमड़ी उधेड़ के, आतुर ऐसे जैसे 

दिखने लगें न्यू जर्सी की चित्तकबरी गाएँ जैसे? 

इसीको एक मीडिया बताए, सिस्टम के जोड़-तोड़ 

और ये भी बताए, 

की कहाँ और कैसे बच सकते हैं, ऐसे अदृश्य प्रहारों से  

तो दूसरा, जैसे लाशों पे भी मखौलिये गिद्धों के झुंड जैसे? 


मीडिया 

एक टीचर्स को भी निकालता क्लास और लैब से बाहर जैसे

और किताबों को, पढ़ाई-लिखाई को भी छीनने की जदोजहद में 

अपने ही जैसे जहरों से, चारों तरफ फेंकता-फ़िकवाता ज़हर  

और कहता जैसे,

तुम्हारे जैसे गुलामों के लिए, परोस दिए  हैं हमने 

कितने ही तरह के, चाहे-अनचाहे काम जैसे? 

तो एक तरफ वो भी मीडिया,

जो थोंपे गए चाहे-अनचाहे कामों से निपटने के,

बताता बेहतर से बेहतर तरीके जैसे।     

  

मीडिया, 

सच में शिक्षा का कितना बड़ा और अनोख़ा माध्यम है। 

इंदरधनुषी रंगों का ये, कितना अनोखा उपहार है,

अगर, सही से प्रयोग हो।  

यही मीडिया,

समाज को डुबोता और हकीकतों पे झूठ परोसता ज़हर भी है 

जो राजे-महाराजों के कर्म-कांडों को आईना दिखाने की बजाय 

जब उन्हें बला, बला थ्योरी मात्र का जामा पहना दे?  

और आम आदमी को झूठ पे झूठ परोस दे।      

Wednesday, April 3, 2024

शिक्षा का भविष्य? या भविष्य की शिक्षा?

शिक्षा का भविष्य? Future Education?

या भविष्य की शिक्षा?

कोरोना काल में अगर कुछ अच्छा रहा तो वो था भविष्य की शिक्षा से भारत जैसे देशों का जुड़ना। ऑनलाइन पढ़ाई और उसके बाद मिश्रित (Blended Mode Education) । सबसे पहले शिक्षा के इस रुप को मैंने शायद MIT के ओपन लर्निंग प्रोग्राम्स से जाना था। तब तक ये नहीं पता था की ये ओपन लर्निंग बहुत कुछ ऐसा भी बता रहा है जो आमजन के सामने होकर भी छुपा हुआ है। इसके पीछे छिपी टेक्नोलॉजी। और उस टेक्नोलॉजी का छुपा हुआ संसार, शिक्षा के संसार से बाहर भी, आम आदमी की ज़िंदगी में। ऐसा कैसे? अभी तक ये सब ज्यादातर पढ़ने-पढ़ाने वालों को ही मालुम नहीं था। तो आम आदमी को कैसे मालुम होगा? और इसका सीधा-सीधा सम्बंध कैंपस क्राइम की किसी किताब से भी हो सकता है?

ये सब बताने के लिए बहुत-सी फालतु या काम की इमेल्स में छुपे संदेश आते थे, जो उसकी तरफ ईशारा करते थे। मगर उन संदेशों को समझने में काफी वक़्त लगा। 

ठीक ऐसे ही जैसे कोई कहे कैम्ब्रिज अनालिटीका। और आप कहीं UK की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से कुछ समझने की कोशिश करें। मगर उसके असली राज शायद US के किसी कैम्ब्रिज में छुपे हों? इमेल्स से संबंधित कोई घपला था शायद, US के किसी इलेक्शन में? मगर क्या?

ऐसे ही जैसे आप टेक्नोलॉजी और विडियो गेम्स को समझने की कोशिश करें और युरोप की कुछ यूनिवर्सिटी उसपे टेक्नोलॉजिकली बेहतर बता पाएँ। US में MIT तो शायद इस सब में महारत लिए हो। खेलों का भला शिक्षा से क्या सम्बन्ध? वो भी यूनिवर्सिटी के स्तर पे? ये खेल महज़ कोई रेस, क्रिकेट, हॉकी या कब्बड्डी जैसे खेल नहीं हैं। ये दिमागी खेल हैं। जो दुनियाँ भर के दिमागों को सिर्फ टैस्ट नहीं करते, बल्की ईधर और उधर की टीमें एक-दूसरे को ओवरपॉवर करने की कोशिश करते हैं। ये ओवरपॉवर करना किसी भी हद को पार करने जैसा है, सबकुछ ताक़ पर रखकर भी। आम आदमी को यहाँ पर ज्यादातर जो समझ आता है, हकीकत उसके विपरीत होती है। ये सब आप किसी भी यूनिवर्सिटी के एक या दो प्रॉजेक्ट से नहीं समझ सकते, बल्की उस यूनिवर्सिटी में कौन-कौन से विषयों पे ख़ास फ़ोकस है। कौन-कौन से विषयों को सबसे ज्यादा पैसा मिलता है या खर्च होता है। वो वहाँ के सिस्टम को बताता है। वहाँ के समाज की दिशा और दशा वही निर्धारित करते हैं। यही नहीं, बल्की छुपे हुए तरीके से ये विकसित देशों का जहाँ, विकासशील और पिछड़े देशों की दशा और दिशा भी निर्धारित करता है। कुछ इन्हें बोर्ड गेम्स बोलते हैं तो कुछ राजे-महाराजों के नए दौर के शौक या जुआ।        

इसे आप अपने स्तर पर भी समझ सकते हैं, फिर चाहे आप दुनियाँ के किसी भी हिस्से में क्यों ना हों। समाज के ऊप्पर वाले हिस्से या तबक्कों में जो हो रहा है, उसी की हूबहू कॉपियाँ वहाँ का लोकल सिस्टम बनाने की कोशिश करता है। मगर ज्यादातर उसके बिगड़े या भद्दे रुप मैं। चाहे फिर उससे समाज के उस हिस्से को कितना भी नुकसान क्यों ना हो। समाज में जितनी ज्यादा शिक्षा की दरारें हैं या गैप है, उतना ही ज्यादा दूसरी तरह की असमानताएँ भी। इन्हीं असमानताओं की वज़ह से समाज का जो हिस्सा जितना ज्यादा पिछड़ा है, उसके दुष्परिणाम भी वो सबसे ज़्यादा भुगतता है। अगर किसी समाज को आगे बढ़ाना है तो शिक्षा पे ध्यान देना होगा। उसका स्तर जितना ज्यादा बढ़ेगा, वहाँ का समाज भी उसी हिसाब से आगे बढ़ेगा। मगर, ये शिक्षा महज डिग्रीयों तक या जैसे-तैसे टॉप करने की रेस मात्र ना रह जाय। 

संचार माध्यम की नई तकनीकों का प्रयोग करके इस गैप को कम किया जा सकता है। 

कैसे? जानते हैं अगली पोस्ट में।   

Tuesday, April 2, 2024

संचार माध्यम और साक्षरता (Media Education)

शिक्षा सिर्फ़ किताबी ज्ञान नहीं है 

और ना ही डिग्रीयों का इकट्ठा करना। 

शिक्षा अगर व्यवहारिक नहीं है, 

अगर वो आपकी ज़िंदगी को आसान नहीं बना रही, 

तो व्यर्थ है।  

शिक्षा, अगर ज़िंदगी को मुश्किल कर रही है, 

तो बेकार है। 

शिक्षा, अगर सच और झुठ का फर्क करना नहीं सिखा रही

तो एक पढ़े-लिखे इंसान और अनपढ़ में फर्क क्या है? 

शिक्षा, अगर नीरे जी हुजूर, 

या नीरे उपद्रवी पैदा कर रही है, 

तो वो भी शिक्षा कहाँ है? 

शिक्षा अगर आपको मुश्किलों से पार जाना, 

मिल बैठ संवाद से मुश्किलों के हल निकालना नहीं सिखा रही, 

तो ऐसी शिक्षा का भी क्या फायदा? 

वो अगर झूठ को झूठ, 

या सच को सच बता पाने की स्तिथि में नहीं है 

तो उसका भी क्या मतलब?


इक्कीशवीं सदी में, 

शिक्षा अगर सोलवीं, सत्तरवीं, अठारवीं, 

या उन्नीशवीं सदी में अटकी है,  

तो वो कैसे इक्कीशवीं सदी के, 

पढ़े-लिखों से तालमेल बिठा पायेगी? 

शायद इसीलिए, संचार माध्यम की नई तकनीकों 

और उनके प्रभावों या दुष्प्रभावों को जानना 

जरुरी ही नहीं, बल्की बहुत जरुरी है। 

संदर्भ और सोच

क्या सोचते हैं, आप जब किसी भी शब्द के बारे में सोचते हैं?

निर्भर करता है की संदर्भ क्या है? 

F for? 

बच्चों से पूछोगे तो शायद वही, जो उन्होंने ABCD पढ़ते वक़्त सुना होगा?

किसी के लिए Fox? 

किसी के लिए Fly? 

Flight?

Fix?   

किसी के लिए Friend? 

दोस्त? यार अनमुल्ले?

बहुतों ने ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे गाने भी बहुत सुने होंगे :


यहाँ तक तो सब हल्का-फुल्का सा है। नहीं?

उसके बाद, कहीं ये शब्द तो नहीं सुने कहीं F*** Off?
ये कौन से जहाँ का हिस्सा हो गए आप?

उससे भी आगे चलके 
F Block? 

और फिर तो पता ही नहीं क्या और क्या? 
किसी धुर्त जोन में पहुँच गए लगता है, नहीं?


वक़्त और हादसों के तकाज़े कहें, Back Off? ये सिर्फ तुम्हारी ज़िंदगी का प्रश्न नहीं है। यहाँ कितनी ही मासूम ज़िंदगियों को न जाने कैसे-कैसे लपेट दिया गया है। 

इस वापसी में आप किसी Reflection पे, या मनन-चिंतन पे निकलें। और लगे की औरों के गढ़े गए अर्थों या अनर्थों पे ना जाकर, सिर्फ और सिर्फ अपने अर्थों को जी सकें। शायद ऐसे ही, जैसे कोई खास जगह, अगर बहुत ही आक्रामक खेलों के लिए जानी जाती है, तो उससे कहीं ज्यादा शायद शैक्षणिक माहौल, हरे-भरे, खुले और शाँत वातावरण, दीर्घकालिक सोच, संवेदनशीलता और मददगार व्यवहार, प्रेरक और प्रेरणादायक जिज्ञाषा, सामाजिक चेतना और आगे बढ़ाने की सोच के लिए। 

अब हर कोई खिलाड़ी तो नहीं हो सकता। इसलिए जरुरी है, की जिसकी जैसी रुचि हो, उसे उसी के अनुसार आगे बढ़ने के रस्ते देना। बजाय की अपनी सोच और रस्ते हर किसी पे थोंपना।  

दुनियाँ भर की यूनिवर्सिटी की सैर पे निकलना, ऑनलाइन ही सही, काफी मददगार रहा यहाँ तक समझने में। जबसे किसी खास मकसद से इस सैर पे निकली हूँ, तो इस जहाँ ने न सिर्फ सिखने को काफी कुछ दिया है, बल्की किसी खास किस्म के प्रतिध्वनी कक्षों (Echo Chambers) की भूमिका से भी अवगत कराया है। प्रतिध्वनी कक्षों की भूलभुलैय्या, जिसमें सच और झूठ वही होता है, जो वो आपको दिखाते, सुनाते या अनुभव कराते हैं। मगर तब तक, जब तक आप उसे फ़िल्टर करना नहीं सीख लेते। 

कुछ-कुछ ऐसे, जैसे जब भी कोई वेबसाइट आप खोलते हैं तो बहुत कुछ उसके प्रमोशन पेज पे मिलता है। ठीक वैसे ही, जैसे किसी क़िताब का जिल्द (cover page)। उसके अंदर क्या है, वो उस प्रमोशन पेज की हकीकत जानने का आईना हो सकता है। प्रमोशन इसलिए लिखा, क्यूँकि बहुत बार शायद, ऐसा कुछ मिल सकता है, जो सिर्फ कुछ वक़्त के लिए सच हो। शायद जब तक आप देख रहे हैं, तब तक के लिए। शायद कुछ वक़्त के लिए, जो वो सब प्रमोशन के लिए जरुरी है, सिर्फ तब तक के लिए। उससे आगे जानने के लिए, आपको उसके अंदर के पन्नों को खंगलना होगा। जिसमें अलग-अलग डिपार्टमेंट्स, फैकल्टी, स्टाफ़, स्टुडेंट्स या उनके बारे में जानकारी काफी कुछ बता सकती है। उसपे अलग-अलग वक़्त की जानकारी। और भी ज्यादा जानना है तो वहाँ रहना या उसका हिस्सा होना पड़ेगा। इसीलिए आज के वक़्त में सिर्फ शिक्षा जरुरी नहीं है, बल्की जो कुछ भी आपको परोसा जा रहा है, उसका सच जानना उससे भी ज्यादा जरुरी है। नहीं तो टेक्नोलॉजी के संसार की भूलभलैया में, आप बहुत ही आसानी से ईधर या उधर कर देने वाली, वो सबसे आखिरी लाइन वाली गोटी मात्र रह जाएँगे।     

ये सब कहाँ से आया?
Hovered over some such zones?  या कहुँ की ऑनलाइन किसी सैर के दौरान, ऐसा कुछ बताया या समझाया या अनुभव करवाया गया? Echo Chambers द्वारा? और फिर जो थोड़ा बहुत फ़िल्टर करने के बाद समझ आया। और आगे किसी पोस्ट में। 

Saturday, March 23, 2024

रंगो को मिलाओ ना ऐसे

तेरी होली, 

मेरी होली, 

इसकी होली, 

उसकी होली, 

सबके इन त्यौहारों को समझने के,

मनाने के, शायद तौर-तरीक़े अलग हों। 


क्यूँकि, मेरी समझ 

तेरी समझ 

इसकी समझ 

उसकी समझ 

जरुरी नहीं, एक हो 

और सबके लिए नेक हो। 


अपनी समझ 

अपनी सोच 

रखो पास अपने

अगर समझा ना सको 

बातों से।  

उसे जबरदस्ती 

इसपे या उसपे 

थोंपने का काम ना करो। 


जरुरी नहीं,

हर कोई खेलना चाहे 

कोई तो दर्शकदीर्घा भी हो 

और ये भी जरुरी नहीं 

की हर कोई 

तुम्हारे तौर-तरीकों से खेलना चाहे 

और ये भी तो हो सकता है 

की कोई बिमार हो 

या किसी को एलर्जी हो 

तुम्हारे खुँखार रंगों से 

या तुम्हारे गंदे पानी से 

या शायद किसी को 

तुम्हारे साफ़ पानी और रंगों से भी 

परेशानी हो। 


तो क्यों जोर जबरदस्ती?

खेलो उनसे, जो तुमसे खेलना चाहे

थोड़ा दूर उनसे 

जो सिर्फ दर्शक-दीर्घा बनना चाहें  

या अपने काम काज़ से 

कहीं निकलना चाहें। 


इस होली, 

रंगो को मिलाओ ना ऐसे, 

की वो कालिख़ बन जाएँ। 

उन्हें सजाओ तुम ऐसे, 

की वो इंदरधनुष-से खिल जाएँ।