मीडिया कल्चर किसी भी समाज का कैसा है? कैसे जाने?
आपके यहाँ धर्म बहुत अहम है? समाज में छुआछात है? और धर्म के ठेकेदार भी हैं? ठेकेदार जो ये निर्णय करते हैं की कौन धर्मी हैं और कौन अधर्मी? भगवान भी एक नहीं, बल्की, शायद उतने ही हैं जितनी जनसँख्या? और हर कोई, किसी न किसी तरह अलग मत रखने वाला? ये तो बहुत ही खतरनाक किस्म का धर्म नहीं है? ये भगवान अपनी खास तरह की स्वार्थ सिद्धि के लिए बने हैं? शायद, अपने अवगुण छिपाने के लिए? और अपनी भक्त जनता को, अपने किस्म के अवगुणों का चोला उढ़ाने के लिए?
आपके यहाँ कितने मंदिर हैं? किन-किन देवताओं के? कभी उनके भजन सुने ध्यान से? अगर नहीं, तो सुनके देखना। अगर दिमाग से सुनोगे, तो पता चलेगा की वो एक दूसरे से भिन्न कैसे हैं? क्या खास हैं उनमें? या क्या खतरनाक है, जो वो समाज को परोस रहे हैं? भगवान या भगवान के मंदिर और खतरनाक? पाप लगेगा? हैं ना? लगा हुआ है मुझे तो। तब से, जब से इनके और इन जैसों के खिलाफ बोलना शुरु किया। कब? जब पता चला कोई 3 बच्चों का बाप एक बच्ची को बहला-फुसला कर कहीं लेकर जा रहा था। और लड़की के घर वालों ने या कुछ अपने कहे जाने वालों ने उस बच्ची को मार दिया। अरे। ये तो बहुत पुरानी बात है। है ना कौशिक? कब की? क्यों मना किया था तुमने की ऐसी खबरें कहाँ से रिपोर्ट नहीं करते? कोई विजय साथ नहीं था शायद उसमें? मगर अपनी बहन को बचा भी कहाँ पाया? हाँ। उसके बाद पुलिस में जरुर लग गया?
उसके ढाई-तीन दशक बाद आपने ऐसा-सा कुछ ना सिर्फ खुद भुगता या आसपास कुछ लोगों को भुगतते हुए पाया, बल्की इन भागवानों से और ज्यादा नफरत हो गई।
उसपे जब ये पता चला, की तुम कैसे हायर एजुकेशन के इंस्टिट्यूट में हैं जो आपको पढ़ने-लिखने की या ऐसा माहौल देने की बजाए धकेल रहा है, कहाँ? और कैसे-कैसे स्टीकर चिपकाने वाले महान IAS, IPS, Scientist, Professors या Defence Officers हैं? फिर न्यायपालिका? वो तो लंजू-पंजू है? बेचारी है न्यायपालिका? उस बेचारी न्यायपालिका के पास कोई अधिकार ही नहीं है?
दीदी आपको पता है, उन शंकर क्यां न अपनी छोरी मार दी? शंकर? अरे ये कौन-से शंकर हैं जो आज तक ऐसा इतने खुले आम करने की हिम्मत रखते हैं?
और कहीं से जैसे आवाज़ आती है, की ये कहीं न कहीं आपके अपने हैं।
अपने?
शंकर भगवान वाले। शिव वाले। खाटू श्याम वाले।
क्या?
एक ना होकर भी एक जैसे ही हैं।
मतलब?
साथ में महाबली, हनुमान और गणेश को भी जोड़ लो।
क्या बक रहे हो तुम?
जबरदस्त खिचड़ी है, अपनी-अपनी तरह के स्वार्थों की या कहो की कुर्सियाँ पाने की। आम आदमी का फद्दू बनाकर। सब राजनितिक घढ़ाईयाँ हैं। वक़्त के अनुसार, राजनीती इन घड़ाईयोँ में हेरफेर करती रहती है। कहीं के भी जनमानष को मानसिक रुप से भेदने का अचूक साधन हैं ये भगवान, गुरु वगरैह। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
एक तरफ, वो बिमारियाँ और मौतें घड़ रहे हैं, वो भी ऐसे की कैसे हुआ है ये आम लोगों को खबर तक ना हो। और दूसरी तरफ, खेल, जुआ, जिसमें खास तरह के स्टीकर चिपकाने हैं, सामने वाले पर, दिखाना है, बताना नहीं के तहत?
एक ऐसा जुआ जिसमें बच्चा पैदा करने की राजनितिक प्रकिया, अपने ड्रामे की गोटी की पैदाइश के पहले के किर्याकल्पों से लेकर, पैदा होने के बाद तक की कहानी को, कितने ही लोगों की मौतों तक को बताकर रचना है? नहीं, बताकर नहीं, दिखाकर। देखो, इतने मर गए? जहाँ बच्चे क्या, औरतें क्या, बुजुर्ग क्या, सब गोटी हैं? वो बच्चा भी गोटी, वो भी वो, जो अभी पैदा तक नहीं हुआ? कहाँ ड्रामे या जुए के नंबर और कहाँ हकीकत की ज़िंदगानियाँ? जैसे इंसान, इंसान नहीं गाजर-मूली हो?
कैसी आदमखोर राजनीती है? और अपने आपको सबसे शिक्षित, सभ्य और ऊँचें दर्जे का कहने वाला ये वर्ग भी इसमें पार्टी है? शायद? किसी न किसी रुप में?
जानने की कोशिश करें आगे?
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