पिछले कुछ वक़्त से कुछ खास नोटिस हो रहा था। कहीं न कहीं कुछ चल रहा है और वो आपके आसपास किसी न किसी रुप में आ रहा है। वो फिर बच्चे हों, बड़े या बुजुर्ग और उनके किस्से-कहानी। कहीं न कहीं वो सब पहले से चल रहा होता है और हम नोटिस नहीं करते। और कहीं न कहीं, अचानक जैसे कहीं से भी, किसी किस्से या कहानी का अवतार जैसे, उतार दिया हो सामने आपके?
आप जैसे-जैसे लोगों के संपर्क में आते हो या रहते हो, चाहे आसपास ही, आपकी ज़िंदगी भी कुछ न कुछ, वैसे से ही किस्से-कहानी सुनाती नज़र आती है। शायद इसीलिए जरुरी है, अपना माहौल अपने अनुसार चुनना? मगर, आम लोग कितना उसे चुन पाते हैं? बहुत से तो पूरी ज़िंदगी, किसी एक खास माहौल के हवाले होकर, उससे निकल ही नहीं पाते?
निकलो उन माहौलों से और मौहल्लों से, जिन्हें आप पसंद तक नहीं करते। मगर इतना आसान होता है क्या? कहीं से भी निकल लेना? शायद ज्यादातर के लिए नहीं। कहीं न कहीं, कुछ न कुछ आ अड़ता है? और फिर जदोजहद होती है, उस माहौल को कुछ-कुछ अपने अनुसार ढालने की? और कुछ उस माहौल के अनुसार ढल जाने की? ऐसा ही होता है? आपका सामना कैसी कैसी Interactions से होता है? निर्भर करता है की आप कैसे माहौल और लोगों से घिरे हो? कुछ आपके विचारों से मिलते जुलते हो सकते हैं और कुछ उसके एकदम विपरीत भी? और कहीं कहीं या ज्यादातर शायद इन दोनों के बीच की खिचड़ी? एकदम विपरीत माहौल में सामजस्य बिठाना मुश्किल होता है? मिलते जुलते में आसान? और बीच वाले में सामजस्य बिठाने से काम चल जाता है? ऐसा ही?
इन्हीं interactions को अगर हम हिसाब-किताब, कम्प्यूटर, साइकोलॉजी और interdisciplinary ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में समझने लगें तो? कोड की भाषा, हर तरफ अपना नज़ारा दिखाती और सुनाती नजर आएगी? कैसे? जानते की कोशिश करते हैं आगे पोस्ट में।
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