Monday, July 14, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 10

आपकी पसंद-नापसन्द या आपका कोई भी निर्णय, आपके आसपास को या आसपास से भी आगे जहाँ को, कितना प्रभावित करता है?

क्या वो लोगों की ज़िंदगियों को बेहतर या बद्दतर कर सकता है?

क्या वो लोगों को स्वास्थ्य या बिमारियाँ या मौत तक परोस सकता है?

यूनिवर्सिटी में रहते हुए, एक अलग समाज की, अलग तरह की ज़िंदगियों के बारे में हमें खबर ही नहीं होती। 

अलग समाज? अलग तरह की ज़िंदगियाँ? कैसे संभव है? जबकी, इसी समाज में हम पैदा हुए और पले-बढे? शायद? थोड़ा बहुत ये समाज यूनिवर्सिटी या उसके आसपास भी होगा? 

शायद अपने छोटे से दायरे से आगे, कभी जानने या देखने समझने की जरुरत ही नहीं महसूस हुई? जहाँ पैदा हुए या बचपन बिता, वहाँ 10-15 दिन में दहाई के हाथ लगाने जैसा-सा रहा। दो, चार घंटे रुके, थोड़ा खाया पिया, थोड़े गप्पे हाँके और चलते बने। गाडी ने दायरा और छोटा कर दिया। इसलिए, घर से आगे, कोई इंटरेक्शन ही नहीं रहा। गली में भी इंटरेक्शन तब बढ़ा, जब किसी काम के लिए बाहर निकलना पड़ा। उससे आगे जहाँ फिर भी अन्जान ही रहा। या शायद अब उतना अन्जान भी नहीं?     

वैसे तो जितना गरीब समाज या मौहल्ला होता है, वहाँ की समस्याएँ उतनी ही ज्यादा कठोर तरह की होती हैं शायद। जिसमें क्या औरत और क्या पुरुष, भुगतते सब हैं। मगर, जो जितना कमजोर होता है, वो सबसे ज्यादा? खासकर, बच्चे और बुजुर्ग?

बच्चों पे फिर कभी। आज बुजर्गों की बात करते हैं। 

आपके घर में कोई बुजुर्ग है क्या? आसपास? आप उनके साथ रहते हैं? या दूर? साथ रहते हैं, तो आपके उनसे कैसे सम्बन्ध हैं? कितना सामजस्य है, या बिठा पाते हैं? जितनी ज्यादा सोच समझ में दूरी होगी होगी, शायद उतना ही सामजस्य बिठाना भी मुश्किल होगा? थोड़ा बहुत तर्क-वितर्क, वाद-विवाद या शायद झगड़े तक हो जाते होंगे? थोड़ा बहुत गाली गलौच भी हो जाता होगा? वो तो वैसे भी, इस समाज की पवित्र, सँस्कारिक भाषा का अभिन्न अंग है? उससे आगे कभी कभार गुस्से में हाथ भी उठ जाता है क्या? या हाथापाई भी हो जाती है? या वहाँ तक पहुँचने से पहले ही, आप उन्हें अपने घर से चलता कर देते हैं? 

अपने घर से? तो आप अपने बनाए घर में रहते हैं? फिर तो उनके पास भी अपना कोई घर होगा? शायद वही घर, जहाँ आपका मस्त बचपन गुजरा होगा? जहाँ आप पले बढे और स्कूल तक पढ़े भी? उन्होंने आपको कितने सालों झेला वहाँ पर? उसके फिर टुकड़े करके भी दिए होंगे, आपको? अपने घर के टुकड़े करके आपमें बाँट दिए? अपनी जमीन, जायदाद भी आपमें बाँट दी? और आप काफी हद तक या शायद कुछ हद तक, आज उसी सब की बदौलत, अपने खुद के घर के मालिक बने बैठे हैं? वो आपका कुछ नहीं करते तो जो कुछ आज आपके पास है, वो सब होता क्या? खैर। इतना भी क्या सोचना?

बस इतना-सा सोच लें, की आपको यहाँ तक पहुँचाने में, आपके माँ-बाप या बुजर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा है। उनके बगैर, आप कहीं नहीं पहुँचते। तो मेरा घर, या मेरे घर से निकल, कहते वक़्त कम से कम, उनके सामने तो थोड़ी बहुत शर्म करें। और मान भी लें, की उन्होंने आपको कुछ नहीं दिया या आपका कुछ नहीं किया, तो भी आप रोड पे तो पले बढे नहीं होंगे? आपको बचपन में, किसी ने तो पाला या सँभाला होगा? 

बचपन और बुढ़ापा, एक जैसा-सा ही होता है। दोनों में किसी न किसी तरह के सहारे की जरुरत होती है। पैसा हो तो भी। घर हो तो भी। कोई काम करने वाला रखा हुआ हो तो भी। मानसिक तौर पर वो बुजुर्ग, शायद कहीं न कहीं अपने बच्चों के पास ही बैठे होते हैं। जाने क्यों? ये आप सोचें। क्यूँकि, आप भी शायद आज किन्हीं बच्चों को पाल रहे होंगे। और कल को आप भी बुजुर्ग होंगे। और आपके पास भी शायद घर, पैसा और नौकर हों। मगर क्या हो, अगर वक़्त पड़ने पर, अपने बच्चे आसपास होते हुए भी आसपास ना हों?

तो ये तो हुई उन लोगों की बात, जिनके पास आम-सी सुविधाएँ तो हैं। जैसे घर, अपने खर्चे लायक थोड़ा-बहुत ही सही, पैसा और कोई न कोई काम करने वाला भी। बहुत से शायद, ऐसे भी होंगे, जिनके पास शायद, इतना तक नहीं होगा? उनका क्या? या शायद बहुत से ऐसे भी होंगे, जो बच्चों के पास रह रहे हों, मगर वहाँ के हालात रहने लायक ना हों? सिर्फ मजबूरी में रहते हों? उनके लिए हमारा समाज सोशल सिक्योरिटी जैसा कुछ देता है क्या? या शायद थोड़ी-सी भी कोशिश हो, तो दे तो सकता है? आगे थोड़ा इसी पर। 

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