कब कहाँ-कहाँ बँधे लगेँगे और कब कहाँ-कहाँ वो बँधे खुलेंगे? ये आपका सिस्टम बताता है। वो बँधे, बाँधों पे भी हो सकते हैं। नहरों और रजभायों पे भी और बच्चेदानियोँ पे भी। वो लिखित में और बताकर भी हो सकते हैं और बिना लिखे या बताए हुए भी।
कुछ-कुछ ऐसे, जैसे इंदिरा गाँधी का घोषित आपातकाल 1977 में। और मोदी का अघोषित आपातकाल 2014 में। जैसे संजय गाँधी का लोगों को पकड़ पकड़ कर नसबंधीयों के ऑपरेशन्स या मोदी शाह का (?) छुपे गुप्त तरीकों से सिंथेटिक नसबंधियाँ? सिंथेटिक नसबंधीयों के आकार प्रकार बहुत तरह के हैं। वो खाने पीने में गुप्त रुप से भी हो सकते हैं। और आपस में मनमुटाव पैदा कर या किसी भी तरह से दूर करके भी।
एक ऐसा छद्दम युद्ध जहाँ जो दिखता है, वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। ऐसा ही? नहीं, अगर आप राजनीती के इन कोढों को अपने आसपास से ही समझने लगोगे, तो सब दिखेगा भी, सुनेगा भी और समझ भी आएगा। अपनी उन खास तरह के आँखों को, कानों को और दिमाग को खोल कर देखने-समझने की कोशिश तो करो।
2000 ने, 2002 या 2005 ने कहाँ-कहाँ ऐसे ताले जड़े? या मकड़ी के जैसे ताने-बाने से बुने? और उसके बाद कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे वो जाले या ताने-बाने से बुने गए? चलो, आपने ये ताले और जाले बनते और गूँथते हुए देखे या देख या समझ रहे हैं? तो अब इनसे बचने के रस्ते कैसे ढूँढे, ये अहम है। ये अहम उस आम आदमी लिए खासकर है, जो ना तो आज तक बहुत ज्यादा इस सिस्टम को जानता और ना ही जिसके पास इतने संसाधन, की वो इनसे निपट सके। संसाधनों वाले तो इधर उधर होकर या जहाँ हैं, वहीँ रहकर भी ऐसे सिस्टम से निपट लेंगे।
जैसे आपका वातावरण राजनीतिक है, की कब, कहाँ धूप-छाया या बाढ़ या भुकम्प आएँगे, वो बताता है। नहीं, सिर्फ बताता नहीं। जहाँ तक उसकी चल जाए, वहाँ घड़ता भी है। यही सिस्टम हर तरह की बिमारियाँ और मौत तक घड़ता है। तो साधनविहीन या कम संसाधनों वाले लोगों के लिए, ऐसी-ऐसी ज्यादातर समस्याओँ के ईलाज भी, कहीं का भी सिस्टम या वातावरण ही बताता है। कैसे? जानने की कोशिश करते हैं आगे।
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