A visit to my village hospital after years rather must say few decades.
गाँव का ये छोटा-सा हॉस्पिटल, इससे कुछ ख़ास किस्म का नाता रहा है शायद? बचपन की कुछ यादें जुड़ी हैं इससे। यहाँ मेरी एक दोस्त रहती थी। गाँव का हॉस्पिटल, उन दिनों कितना छोटा होता होगा ना? नहीं, शायद उस वक़्त के हिसाब से भी ठीक-ठाक ही था। मगर वो तब इस जगह नहीं था। हाँ डॉक्टर का घर जरुर यहीं कहीं होता था।
तब रोहतक या PGI की कोई खबर नहीं थी। पता ही नहीं था, की वो बला क्या हैं। 1987-88 शायद? यही कोई 10-11 साल की रही होंगी। आपमें से बहुत से ये ब्लॉग पढ़ने वाले तो पैदा ही नहीं हुए होंगे? मैं खुद पाँचवी क्लॉस में थी। नया-नया सरकारी स्कूल जाना शुरु किया था। शर्ट और निक्कर में, वो भी गाँव के सरकारी स्कूल? बच्ची कितनी ही छोटी हो, उसे तो कमीज और सलवार ही पहनने चाहिएँ, ये वो दौर था। बाल बड़े होने चाहिएँ। छोटे बालों वाली को उस वक़्त परकटी बोलते थे, कुछ ताई, दादी। खैर, अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी, उसपे पहला ही साल था सरकारी स्कूल का। प्राइवेट स्कूल के नाम पर उन दिनों मदीना में शायद एक ही स्कूल होता था, उसे टुण्डे का स्कूल बोलते थे। उन दादा का नाम आज तक नहीं पता मुझे। मतलब, स्कूल का कोई नाम ही नहीं था? आज तक नहीं पता। अंग्रेजी पढ़ाई के नाम पर, 4th या 5th में abcd सीखा देते थे :) बहुत था शायद?
खैर, 5th में जब सरकारी स्कूल जाना शुरु किया, तो जाते ही क्लास मॉनिटर बन गई थी। अंधों में काना राजा जैसे? मगर मेरे उस स्कूल के जाने के साथ-साथ ही, एक और लड़की आ गई थी, प्रतीक्षा, गाँव के हॉस्पिटल के डॉक्टर की लड़की। पहले दिन से ही हमारी पटनी शुरु हो गई थी। एक-आध बार, मैं उसे अपने घर ले आती थी। और एक आध बार वो मुझे अपने घर। उसका घर बहुत बड़ा था। घर तो मेरा भी बड़ा था। उन दिनो शायद ज्यादातर घर बड़े ही होते थे। मगर उसका कुछ ज्यादा बड़ा था। खासकर, उनके घर के बाहर का खेलने का एरिया। जहाँ हम हो-हल्ला करते हुए अक्सर छुपम-छुपाई खेलते थे। आज जहाँ गाँव का नया हॉस्पिटल है, उसका घर वहीँ कहीं था शायद। उस ईमारत को अंग्रेजों के दिनों में बनी कोई ईमारत बोलते थे, जहाँ अक्सर अंग्रेज ऑफिसर रहते थे। अब गाँव की ये जगह पहचान ही नहीं आती। बहुत बार इसके बाहर से जरुर निकली, मगर इतने सालों में कभी इसके अंदर जाना नहीं हुआ। वो लोग कम ही वक़्त यहाँ गाँव में रुके थे। उसके पापा की ट्रांस्फर फिर कहीं और हो गई थी। और उसके बाद उसके बारे में कोई खबर नहीं रही। हाँ। प्रतीक्षा नाम से आगे भी दो दोस्त या क्लासमेट जरुर रही। जो जाने क्यों कभी कभार ये याद दिला देती थी, की गाँव में भी इस नाम से, बचपन में एक लड़की मेरी दोस्त होती थी। एक अपने परिवार के साथ USA में रहती है और एक दिल्ली। दिल्ली वाली तो है ही, घर-कुनबे से भांजी। यमुनानगर वाली pen friend बनी थी, एक दोस्त की दोस्त होती थी। कुछ वक़्त वो दिल्ली रही और वहीँ से फिर USA गई। और दिल्ली वाली MSc. क्लासमेट और hostelmate भी। गाँव का वो पुराना पोस्ट ऑफिस, दो तीन ऐसी दोस्तों के पत्र लाता था। हाँ, scribbling काफी पहले शुरु कर दी थी। शायद दादा जी के पत्र पढ़ते-पढ़ते ही। कॉलेज सर्कल यूँ लगता है, कहीं न कहीं, उसी एक्सटेंशन जैसा-सा था। अब इतने सारे किस्से कहानी सुनकर ऐसा ही लगता है।
अब के गाँव के इस हॉस्पिटल में और तब के हॉस्पिटल में फर्क क्या है? पहले वाला शायद इससे सुंदर था। उस वक़्त के हिसाब से बड़ा भी था। आज के वक़्त के हिसाब से, ये बहुत छोटा है। ये शायद ये भी बताता है, की वक़्त और जनसँख्या के हिसाब से गाँवों में सुविधाएँ उतनी नहीं बढ़ी हैं, जितनी बढ़नी चाहिएँ थी। जितना ये है, इतने से हॉस्पिटल तो हर गाँव में होने चाहिएँ। बड़े गाँवों में, थोड़े बड़े हॉस्पिटल होने चाहिएँ। अगर गाँवों की बेसिक सुविधाएँ इतनी भी हों जाएँ, तो शहरों के हॉस्पिटल्स में या PGI जैसे हॉस्पिटल में जो भीड़ रहती है, उसे काफी हद तक कम किया जा सकता है। ये पोस्ट पड़ोस वाली दादी की सौगात है। अगर वो अपने साथ चलने को ना कहते, तो ये पोस्ट भी कहाँ होती?
ऐसी सी ही एक पोस्ट, किसी दिन गाँव के स्कूल पर, फिर कभी। बचपन का वो स्कूल? वैसे सरकारी स्कूलों में alumni meet क्यों नहीं होती? शायद उससे इन स्कूलों के कुछ हालात थोड़े बेहतर हो जाएँ? वैसे, आसपास से ही किसी ने लड़कियों के सरकारी स्कूल जाने का कोई खास तरह का विजिट ऑफर दिया था। मगर जाने क्यों मुझे लगा, की वो किसी खास पार्टी की तरफ से था। और मैं राजनीती से कुछ कदम दूर ही रहना चाहती हूँ। कम से कम इतनी दूरी तो होनी ही चाहिए, की आप बिना किसी भेदभाव या हिचक के किसी भी पार्टी के गलत या सही पर लिख सकें। जो कोई अपने आपको लिखाई पढ़ाई के क्षेत्र में आगे बढ़ाना चाहता है, उसके लिए जरुरी भी है। मेरा मानना है की बचपन के स्कूल का किसी भी तरह का विजिट, ऑफिशियली स्कूल की तरफ से ही हो, तो ही अच्छा लगता है। उसके बाद स्कूल के वक़्त की कुछ और दोस्तों से मिलना भी हुआ। फिर से सालों, दशकों बाद, उनकी ज़िंदगी के उतार-चढाव जानकर लगा, जैसे, सबकुछ कहीं न कहीं पुराने से, जाने क्यों, किसी न किसी रुप में मिलता जुलता-सा है? जो किसी भी क्षेत्र की राजनीती और सिस्टम के बारे में काफी कुछ बताता है। शायद अभी इन जोड़तोड़ के किस्से कहानियों के बारे में काफी कुछ जानने की जरुरत है?
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