Political System and Genetics, इनका आपस में क्या लेना देना है?
हर विषय के कुछ अपने सिद्धांत होते हैं। जिसकी नीँव पर वो विषय आगे बढ़ता है। ऐसा ही जैनेटिक्स के साथ भी है। आनुवंशिकी (Genetics) के अनुसार, आपको अपने बच्चों की शादी अपने घर, परिवार और जहाँ तक हो सके खून के रिश्तों से कहीं दूर करनी चाहिए। नहीं तो जो आनुवंशिक बिमारियाँ उनमें होंगी, वो आपके आगे की पीढ़ियों में जाने की गुँजाइश ज्यादा ही बढ़ जाती है। कैसी-कैसी बिमारियाँ, कैसे-कैसे आगे की पीढ़ियों में जाती हैं, इनके भी आनुवंशिकी के अनुसार कुछ सिद्धांत हैं।
राजनितिक पार्टियाँ कुर्सियां पाने के लिए किसी भी तरह का अवरोध नहीं रखती। वहाँ सब जायज़ है, बस कुर्सी मिलनी चाहिए। उसके लिए कोई भी रिस्ता वर्जित नहीं है। क्या बाप, बेटी, क्या भाई, बहन, क्या चाचा, भतीजी या मामा, भांजी या माँ, बेटा या दादी, पोता। कोई भी, मतलब, कोई भी। इनके in out को जब समझना शुरु किया, तो यूँ लगा ये लीचड़ खेल क्या रहे हैं? ये लोगों से आसपास ही ऐसे ड्रामें करवा रहे थे या कहो करवा रहे हैं, की यूँ लगे पता नहीं लोगों ने आसपास ही कितनी लुगाई या लोग बनाए हुए हैं? घर बक्सा ना आसपड़ोस।
या यूँ कहे, की वो आपसे आपकी जानकारी या अज्ञानता में खुद आपको या आपके घर में ही किसी को कोई बीमारी या मौत तो नहीं परोस रहे थे या हैं, ऐसे-ऐसे ड्रामों का हिस्सा बनाकर? क्या ये ड्रामें, कहीं न कहीं आपको मोटापा या पतला होना भी तो नहीं परोस रहे? और कुछ हद तक आपके बच्चों को उनकी कितनी लम्बाई होगी ये भी? इनमें से बहुत कुछ तो आनुवांशिक होता है ना? फिर राजनीतिक सिस्टम ये सब कैसे परोस सकता है? या परोस रहा है? ऐसा कैसे संभव है? आज के सिंथेटिक जहाँ में ये सब संभव ही नहीं बल्की हो रहा है।
जैसे नशा एक बीमारी है और राजनीतिक सिस्टम की देन है। कोई भी इंसान किसी एक तरह के सिस्टम में नशे करेगा और दूसरी तरह के सिस्टम में नहीं करेगा। किसी भी सिस्टम में आप अपने आप गालियाँ देने लग जाएँगे और किसी सिस्टम में देना तो दूर, बल्की, उनसे नफरत करना सीख जाएँगे। कोई सिस्टम आपको कर्कश कौवा बना देगा और कोई सिस्टम मीठा जैसे कोयल? सिस्टम? राजनीतिक सिस्टम? या सिर्फ माहौल कहें इसे? या media culture? अगर आपको आपकी interactions की खास तरह की सुरंगों की खबर होगी तो ये सब एक ही नजर आएगा। बड़े लोगों या राजनीतिक घरानों या राजनीतिक पार्टियों के वश में कल भी बहुत कुछ था। मगर आज के टेक्नोलॉजी के युग और सर्विलांस एब्यूज ने इसे Human रोबॉटिक्स या कहो की Human Control तक पहुँचा दिया है।
किसी भी सिस्टम (media culture) में थोड़े से बदलाव करके ही, इन सिस्टमों को बदला जा सकता है। कहीं ये बदलाव आप आसानी से कर पाएँगे और कहीं आपको काफी मेहनत करनी पड़ेगी। निर्भर करता है, की उस सिस्टम का आसपास या राजनीतिक सिस्टम कैसा है, जिसमें आप ये बदलाव करना चाहते हैं?
इसे आप अपने आसपास के छोटे-छोटे उदाहरणों से ही समझ सकते हैं। किस घर में छोटे बच्चे ही आसानी से पोटी करना सीख जाते हैं? और कहाँ वो ये सब थोड़ा बड़े होकर सीखते हैं? कहाँ बच्चे जल्दी बोलना या चलना सीखते हैं और कहाँ थोड़े बड़े होकर? कहाँ वो अपने छोटे मोटे से काम अपने आप जल्दी करना सीखते हैं और कहाँ थोड़े बड़े होकर।
ये सब बड़ों पर भी लागू होता है। एक ही घर में एक बच्चा जल्दी आत्मनिर्भर बनता है। जबकि दूसरा, संघर्ष करता नजर आता है। हमारे समाज में लड़कों के केस में खासकर देख सकते हैं। एक, क्या अपने, क्या घर के और बाहर के सब काम आसानी से करता नज़र आता है। दूसरा, ब्लाह जी यो तै पानी का गिलास भी खुद ना लेकै पिया करे। एक ऑफिस भी जाता मिलेगा और घर बाहर के कामों में हाथ बटाटा भी। दूसरा, ब्लाह जी ये काम तै लुगाई-पताईयाँ के होया करें। सब ट्रेनिंग पर निर्भर करता है। बहुत सी ऐसी ट्रेनिंग, एक अपने घर और आसपास से ही सीख जाता है। उसे किसी खास तरह की ट्रेनिंग की जरुरत नहीं पड़ती। सब सोच की वजह से।
अपने आसपास के ही उदहारण देती हूँ। उन दिनों मैं हॉस्टल से बाहर ही आई थी, और सैक्टर 14 रहती थी। टाँग टूटने की वजह से हॉस्टल में उस तरह का सुप्पोर्ट सिस्टम संभव नहीं था, की आप किसी को साथ रख सकें। या कोई फिजियो के लिए सुबह-स्याम वहाँ आ सके। लेकिन बाहर रहने की अपनी दिक्क़तें भी थी। हॉस्टल की तरह वहाँ आपको बना बनाया खाना तो मिलेगा नहीं। मगर बाहर उसका इंतजाम किया जा सकता था। ऐसे ही जैसे सफाई या कपड़े वैगरह धोने का। या और ऐसे-ऐसे, छोटे-मोटे कामों का। कुक, मेड, दीदी, भांजे, भांजी, भतीजी या यूनिवर्सिटी का या PGI का सर्कल था इस सबके लिए। यहीं के सिस्टम की अगर बात करूँ तो कई बार वीकेंड्स पर दोस्त इक्कठे होते थे। जिनमें जूनियर, बैचमेट, या लैबमेट वगरैह होते थे, जो आसपास ही यूनिवर्सिटी या सैक्टर में रहते थे। खाना बनाने की जब बात होती, तो अक्सर कुछ जूनियर बनाते थे। जिनमें लड़के और लड़की दोनों थे।
अब अगर इसी वाक्य को अगर मैं अपने गाँव के आसपड़ोस या सिस्टम पर लागू करूँ तो? लुगाई-पताईयों के काम भला कौन लड़का करेगा? चाहे आपको कोई दिक्कत ही हो। फिर ठीक-ठाक होने पर तो ऐसा सोचना भी जैसे गुनाह हो? घर में अगर कोई बहन या भाई हों, तो कौन बनाएगा? बहन, चाहे कितनी भी छोटी क्यों ना हो? या भाई, चाहे कितना भी बड़ा क्यों ना हो? या भाई या भाभी? या दोनों इक्क्ठा मिलकर बना लेंगे? संभव है? शायद ज्यादातर तो यही कहेंगे की बाहर से ले आएँगे या बाहर जाकर खा आएँगे? नहीं तो माँ, चाची, ताई, दादी, बहनें ही करती नजर आएँगी ये काम? या शायद कर भी देंगे तो यो तो लुगाई का गुलाम है कहते बहुत से गँवारुं भी मिल जाएँगे? गाँवों में ना सिर्फ आर्थिक तंगी की बल्की ज्यादातर बिमारियों की, ये सोच भी एक वजह है। कैसे, जानने की कोशिश करेंगे आगे किसी पोस्ट में।
वैसे कहीं सुना है, की खाना बनाना एक कला है, एक विधा है। इसमें जो जितना निपुण है, वो उतना ही ज्यादा अपने घर को बाँध कर रखता है। फिर क्या पुरुष और क्या औरत। और विधा या कला, लिँग की मोहताज़ नहीं होती। कहीं-कहीं आपको पुरुष, औरतों से ज्यादा अच्छा खाना बनाते मिल जाएँगे। सब ट्रेनिंग पर निर्भर करता है। तो किसी भी काम को लुगाई-पताई या औरत-पुरुष से ना जोड़कर, उसके पीछे छिपी बारिकियों से जोड़कर देखें। उसी काम को अगर रसोई या घर से आगे लैब की घड़ाई तक देखेने समझने लगेँगे, तो आपका और आपके आसपास का स्वास्थ्य या आगे बढ़ना या पीछे रहना ही नहीं, बल्की, वही काम कुछ और ही नज़र आएगा। सत्ता और कुर्सियां उसके आसपास डोलती नज़र आएँगी। बाजार उसके हवाले नज़र आएँगे। बड़ी बड़ी कंपनियाँ तक अपने कर्मचारियों को उस नाम पर जाने कैसी कैसी सुविधाएँ देती नज़र आएँगी। और ये सिर्फ खाने पर ही लागू नहीं होता, बल्की, हर उस काम पर लागू होता है, जिसका आपको abc नहीं पता और जिसे आप छोटा या लुगाई पताई का काम समझते हैं। फिर चाहे वो सफाई या माली का काम ही क्यों न हो।
माहौल बनाता है, माहौल बिगाड़ता है
बने हुए कामों को भी
माहौल आगे बढ़ाता है और माहौल पीछे भी धकेलता है।
सब निर्भर करता है की आप कैसे माहौल या लोगों के बीच हैं। वो माहौल या सिस्टम आपके अपने घर से शुरू होता है। जहाँ कहीं आप रहते हैं, वहाँ से शुरु होता है। जितना वक़्त आप या आपके बच्चे जहाँ कहीं बिताते हैं, उतना-उतना वो माहौल या सिस्टम या राजनितिक सिस्टम वहीं से बनता है। अब इसमें राजनीती कहाँ से आ गई? पहले मुझे भी नहीं पता था या यहाँ वहाँ जब पढ़ा सुना तो समझ ही नहीं आया, की ये कह क्या रहे हैं? भला राजनीती आपके अपने घर का या आपका अपना माहौल या सिस्टम कैसे बनाती या बिगाड़ती है? जितना आपको ये सब समझ आना शुरु हो जाएगा, उतना ही आपकी और आसपास की ज़िंदगी भी बेहतर होती जाएगी।
राजनीती सिस्टम या माहौल या media culture ऐसे है जैसे Disease of convenience.
Disease of convenience, मतलब? छल कपट। आगे पोस्ट्स में और जानने की कोशिश करेँगे इन सबके बारे में।
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