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Wednesday, August 27, 2025

Views and Counterviews 86

हम अपना या आसपास का, इस समाज का भविष्य कहाँ देखना चाहते हैं?

जाती, मजहब, धर्म के वाद-विवादों से आगे, या मारकाट के बीच? गरीबी और अमीरी की बढ़ती खाई की तरफ? या सबके लिए कम से कम, एक ढंग की ज़िंदगी जीने के लिए, आम-सी सुविधाएँ तो हों ही? पिछले कुछ सालों में जो समझ आया वो ये, की आप एक समस्या बताईये और वो आपको हजार समस्याओँ की फाइल्स थमा देंगे। आपको जिस समस्या का समाधान चाहिए था, वो तो शायद ही मिले। मगर, और कितनी ही अनदेखी, कल्पपनाओं तक में ना सोची-समझी समस्याओँ में जरुर उलझ जाओगे। तो क्या किया जाए?

ऐसा भी नहीं है की ज्यादातर लोग बुरे ही हैं। हर कोई आपका बुरा ही चाहता हो। मगर, समस्याएँ शायद कुछ ऐसे रुप में पेश आती हैं, की सबके अपने-अपने निहित स्वार्थ अड़ जाते हैं? सब चाहते हैं, की सबके लिए अच्छी शिक्षा हो। सबके पास रोटी, कपड़ा, मकान और किसी न किसी तरह का रोजगार या काम धाम हो। चारों तरफ साफ़ सफाई और प्रदूषण रहित वातावरण हो। फिर समस्या कहाँ है?

अपना फोकस समस्या पर नहीं, बल्की, उसके समाधान पर करो। आप एक समस्या का समाधान या हल देंगे, तो शायद चारों तरफ समस्या ही समस्या नहीं, बल्की, समाधान ही समाधान नजर आएँगे? तो अपना फोकस तो शिक्षा था और है और वही रहना है। हाँ। अब उसमें सुधार का थोड़ा-सा नजरिया जरुर बदल गया है। अब मैं हर चीज़ को सिस्टम, मीडिया कल्चर और उसके घटकों (ingredients) की नज़र से देखती हूँ। 

जैसे आपको कोई तकलीफ या बीमारी है तो आप खुद एक सिस्टम हैं। उसके बाद आपका आसपास जो आपको सीधे सीधे प्रभावित करता है, आपसे बड़ा एक सिस्टम है। आप उसे इकोसिस्टम भी कह सकते हैं। ऐसे ही छोटे से बड़े और बड़े इकोसिस्टम। पहले अपने सिस्टम पर फोकस करो, फिर आपका आसपास और उससे आगे उससे बड़ा आसपास। सब समस्याओं और बिमारियों की जड़ वहीँ है। और समाधान भी। मगर अगर आपको लगता है की एक हद से आगे समाधान आपके वश में नहीं है। तो माइग्रेशन उसका ईलाज है।                

एक तरफ नए युग की शिक्षा को गाते लोग, नई दुनियाँ की शिक्षा की सैर कराते लोग? AI और रोबॉटिकस का गुणगान गाते लोग? और दूसरी तरफ? आज तक रोटी, कपड़ा और मकान नहीं है, पर अटक गए हैं? ऐसा ही?

या हम भी एक ऐसे भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं, जहाँ शिक्षा, अच्छी शिक्षा, आज से कदम ताल मिलाती शिक्षा,  सबके लिए आसानी से और मुफ्त उपलभ्ध होगी? आपको अगर ये अध्यापक पसंद नहीं, तो दूसरा चैनल या विडियो लगा लो? शुद्ध, स्वच्छ पीने लायक पानी सिर्फ घरों में ही नहीं, बल्की, यहाँ-वहाँ नलों के जरिए हर जगह उपलभ्ध होगा? साफ़-सुथरी, हरी-भरी जगहें और खामखाँ के वाद-विवादों से परे ज़िंदगी? ऐसा भविष्य चाहते हैं क्या आप अपने आसपास का, समाज का? 

या बेतुके-से काँव-काँव से करते चैनल और नेता लोग? भविष्य की कोई खोज खबर नहीं? मगर, इतिहास को जैसे गिद्धों से, जाली-ज़ाली करते, यहाँ-वहाँ, कैसा-कैसा कीचड़ और मिर्च-मसाला लगाकर परोसता मीडिया? अब इतिहास क्यूँकि इतिहास है, तो वाद-विवाद का विषय रहेगा ही। मगर, अगर हमें भविष्य अच्छा चाहिए, तो अपना और अपने आसपास का वक़्त उसके लिए तैयार करने पर ही बनेगा। सिर्फ इतिहास को रोते या गाते रहने से नहीं। जिस किसी समाज का मीडिया जो कुछ परोसता है, वो समाज भी वैसा ही होता है? या बनता जाता है? तो अगर आपको अपना आसपास या वहाँ का समाज कुछ गड़बड़ लग रहा है तो वहाँ के मीडिया को बदल दीजिए। बहुत कुछ अपने आप बदल जाएगा। 

हमारे शिक्षा तंत्र में इस मीडिया की कमी है। हमारा समाज ज्यादातर राजनीती या मनोरंजन वाले मीडिया से जुड़ा हुआ है। मीडिया सिर्फ आपको या आपके सँस्थान को advertise करने का साधन ही नहीं है। बल्की, जो कुछ आपके पास है, उसको दुनियाँ को बाटने का भी। जब आप अपने आपको advertise भी करते हैं, तो कोशिश करते हैं, की अच्छा और सिर्फ अच्छा दिखाएँ। इसी अच्छा दिखने या दिखाने की कड़ी में, अच्छे बदलाव भी लाते हैं। नहीं तो ज्यादा वक़्त तक, वही सब दिखाकर या बताकर ज्यादा नहीं चल सकते। दुनियाँ भर की यूनिवर्सिटी का मीडिया इसका उदाहरण है। किसी भी यूनिवर्सिटी की रैंकिंग या उसके सामाजिक प्रभाव को देखिए और उसके मीडिया को? जितना समृद्ध उसका मीडिया है, उतनी ही वो यूनिवर्सिटी? ऐसा मुझे ही लगा या ये सच है? ये आप खुद जानने की कोशिश कीजिए। 

सिर्फ यूनिवर्सिटी नहीं, कॉलेज या स्कूल भी। कुछ एक देशों के कुछ स्कूल या कॉलेज और कुछ एक स्कूल सिस्टम ही जैसे अपनी गुणवत्ता की गवाही आपको मीडिया के द्वारा ही देते नजर आएँगे। अब आप तो वहाँ गए नहीं। हकीकत कैसे पता चले? कोई भी सिस्टम, जो कुछ advertise करता है, और जितना ज्यादा करता है, उस पर views और counterviews भी शायद उतने ही होते हैं। 

नोट: यहाँ जब मैं मीडिया कह रही हूँ, तो उसका सीधा-सा मतलब, उस मीडिया कल्चर से ही है, जिसकी मैं बार-बार-बात करती हूँ। ये कुछ-कुछ ऐसे है, जैसे कोई कहे, "ब्याह ना होता मेरा, बेरा ना कद होवैगा।" यहाँ-वहाँ जैसे, हर जगह उसके मुँह से ये शब्द निकलते मिल जाएँगे। मगर, एंडी, बैठा बाबाओं के बीच हो? 

Media Culture matters? 

शायद ऐसे ही, जैसे, हम चाहते हों पॉश कॉलोनी में रहना, पढ़े लिखों के बीच उठना-बैठना मगर निकलना न चाहेँ गाँवों से? ऐसे गाँवों से, जो शायद आज भी कई सदी पीछे हों? चाहिए नौकरी? और वक़्त बर्बाद कर रहे हों, खामखाँ की परीक्षा धांधलियों वाली जगहों पर? या जहाँ सीट कम हों और कतारें लम्बी? या जहाँ हों बड़े-बड़े रसूख वाले लोग और उनके बच्चे? या जहाँ चलती हो, जिसकी लाठी उसकी भैंस? आपके पास कितना फालतू वक़्त है ज़िंदगी में, ऐसे-ऐसे खामखाँ के जैसे पचड़ों में उलझे रहने के लिए? जबकी, आपके पास थोड़े आसान और सीधे से रस्ते भी हों, ये सब पाने के?        

ऐसे ही समाज का है। जो समाज जितना ज्यादा पिछड़ा है, मतलब, वहाँ ऐसे मीडिया को बढ़ाने की जरुरत है, जो शिक्षा पर ज्यादा फोकस करता हो। जिस समाज में जितने ज्यादा परीक्षाओं से सम्बंधित घपले हैं, मतलब, उस समाज को उतना ही ज्यादा, ऐसी परीक्षाओं से दूर रहने की जरुरत है। वहाँ की समस्या परीक्षा नहीं हैं। शायद सीटों का कम होना है। शिक्षा में गुणवत्ता की कमी है। या शायद वक़्त के साथ अपने आपको अपडेट ना करना है। और शायद ऐसी जगहों की समस्या भी नेता लोग या राजनीती नहीं। बल्की, ऐसी राजनीती या नेता लोगों को ज्यादा मीडिया स्पेस देना है। उनकी जगह जितना मीडिया स्पेस, शिक्षा को मिलेगा, बाकी सब समस्याएँ भी अपने आप हल होती नज़र आएँगी।                 

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