षड्यंत्र पे षड्यंत्र (Plot after plot)
Handover to Google Takeover?
DD O DD to Fix it?
They tried hard as hard as they could, but did that happen especially the way they wanted?
Plot after plot
कितने षड्यंत्र? और कितने किस्से और कितनी कहानियाँ?
इन्होने एक प्लॉट यहाँ धरा, तो उन्होंने एक प्लॉट वहाँ। मतलब, सबका एक ही, सामने वाले को ख़त्म करना।
कहानी हैंडओवर से ही शुरु करें?
उन दिनों ऑफिस की तरफ से हैंडओवर की इमेल्स का दौर चल रहा था। मगर, वो आजतक नहीं हुआ। जैसे वो चाहते थे, कम से कम वैसे तो नहीं हुआ। मेरी तरफ से तो बिलकुल ही नहीं हुआ। मेरा सामान आजतक उसी ऑफिस में पड़ा है। हैंडओवर का किस्सा शुरु होने के बाद, मैं उस ऑफिस ही नहीं गई। हालाँकि, सुनने पढ़ने में आया, की वीर "भान" जैसे उपद्रवी तत्वोँ ने वो ऑफिस और उसका ज्यादातर सामान अपने नाम कर लिया। इंसान अपना कमाने की बजाय, दूसरों का हड़पने के लिए क्या कुछ तो नहीं करता? मगर ऑफिस तो छोड़िए, क्या उसका अपना घर तक उसके साथ जाता है? बस, इंसान इतना भर समझ ले, तो दूसरों का हड़पने और हडपाने के युद्ध ही ख़त्म हो जाएँ।
घर आने के बाद, मेरे लिए उस ऑफिस का जैसे कोई महत्व ही नहीं रह गया था। मैं एक अलग ही दुनियाँ में जी रही थी। वो ढेर सारी फाइल्स जो पिछले कुछ सालों में इक्कठी करली थी, उन्हें पढ़ने, समझने और उनकी केस स्टडीज़ लिखने में। ये वो दिन थे, जब भाभी का स्कूल का प्रोग्राम बन रहा था। उन दिनों पड़ोस वाले वो दादी ज़िंदा थे, जो बाद में कैंसर (?) की भेंट चढ़े। और आसपास घरों में कुछ लड़कियाँ भी ससुराल से आकर घर बैठी हुई थी। दादी की कुछ बातें वक़्त के उतार-चढ़ाओं के साथ-साथ थोड़ी और रहस्यमयी सी हो गई जैसे। उनको समझने में कहीं यहाँ वहाँ मीडिया से सहायता मिली, तो कहीं उसके बाद चले घटनाक्रमों से। उनमें से एक रहा ज़मीनों के हेरफेर। घर, प्लॉट और खेत या स्कूल के साथ वाली ज़मीन का मतलब। या कहीं की भी ज़मीन, चाहे वो फिर घर हो या प्लॉट या कोई सँस्थान या खेत खलिहान, उसके मालिक और उसके आसपास से घिरे पड़ोस के सिस्टम और इकोसिस्टम से बनी है। और वो इकोसिस्टम, उस जगह पर तरक़्क़ी या नुकसान को बनाता और बताता है। जहाँ आप रह रहे हैं या काम कर रहे हैं, वही आपका आज है और जो कुछ काम कर रहे हैं, उसी से आपका कल निर्धारित होना है।
दादी की कही कुछ बातें जिन्हें शायद अद्रश्य तरीके से कुछ राजनीतिक पार्टियाँ ही पहुंचा रही थी। या कुछ उनके अपने साथ हुए या आसपास के घटनाक्रम थे। जैसे भिवानी और 35 लाख का लेनदेन या हेराफेरी? ये सबका खा गया? और ऐसी सी ही कुछ बातें। हालाँकि, इनमें काफी कुछ से मैं आजतक सहमत नहीं हूँ। जैसा पहले भी लिखती आई हूँ, की हर केस अलग है और हर केस के पात्र और कहानियाँ ऊपरी सतह से आगे कुछ और ही दिखाते या बताते हैं।
35 लाख से 40
40 से 50
50 से 60
60 से 70
70 से करोड़, डेढ़ करोड़, 2 करोड़ और जैसे कोई हिसाब किताब ही नहीं।
अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ और अलग-अलग हिसाब-किताब। कुछ पीछे की तरफ भी जाती हैं, जैसे 10 या 20 या 12 । सबके अपने-अपने कोढ़ और अपनी ही तरह की गोटियाँ। निर्भर करता है, की किसको क्या फायदेमंद है।
ये सबका खा गया, की अलग ही किस्म की कहानी है। कुछ लोगों ने इसे 2005 के लड़कियों के ज़मीनी अधिकार से जोड़ा और मुझे पढ़ाना शुरु किया, की अपना हिस्सा ले ले। तेरे पास और कोई रस्ता नहीं है। या भारत छोड़ दे। ये लोग कौन थे? या कहना चाहिए की हैं? नहीं, शायद अब अपनी उस जुबान के साथ नहीं हैं? क्यूँकि, तब से अब तक, प्लॉट पे प्लॉट और प्लॉट पे प्लॉट कई तरह के धरे जा चुके। इधर वालों द्वारा भी और उधर वालों द्वारा भी। क्यूँकि, मैंने ऐसा करने से मना कर दिया। और हर प्लॉट ने कुछ आदमी खाए हैं, उनके अपने घर में? ऐसा ही? या कहीं कुछ गलत समझ आया मुझे? जहाँ खाए नहीं हैं, वहाँ बिमारियाँ तो जरुर दे दी हैं। और उन प्लॉटिंग के साथ-साथ, वो अलग-अलग स्टेज पर चल रही हैं?
सबका खा गया, की कहानी में वो बता रहे थे की जबसे इसने शादी की है (2005), ये दोनों बहन भाई को लूट रहा है। वहीं से तुम लोगों की ज़िंदगी में रुकावट के लिए खेद है, घड दिया गया है। मुझे लगा, की कितना भड़का सकते हैं ये लोग? एक बहन को अपने ही छोटे भाई के खिलाफ? और अभी तक वो भडकाव चल ही रहा है। एक तरफ इधर भाई के खिलाफ, तो दूसरी तरफ उधर इन दो बहन भाई के खिलाफ। ईधर-उधर की प्लॉटिंग ने इसे थोड़ा और संगीन कर दिया है।
जब मैं घर आई, तो सुनील दादा जी के कमरे में रहता था और उन्हीं वाला बाथरुम प्रयोग करता था। ढेर सारा पीता था और इसके साथ उसके पियक्कड़ दोस्तों का जमावड़ा रहता था। तो बहन बेटियों या भाभी को दिक्कत तो होगी। यही सब देखकर मैंने कहना शुरु कर दिया, इसका कमरा खेत में बना दो या प्लॉट में। बिमारी थोड़ा दूर रहेगा तो रोज रोज का सिर दर्द भी कम होगा। और रितु के रहते ही, उसका वहाँ आना जाना बँध हो गया। अब उसकी अपनी सिर छुपाने लायक अलग जगह थी। मगर यहाँ दिक्कत और बढ़ गई। अब आलतू-फालतू लोगों के आने जाने पर कोई अँकुश ही ना रहा। माँ या बहन बेटी को उसने वहाँ घुसने पर ही पाबंदी लगा दी। उसने? ये जानना अहम रहा, की किसने? यहीं से शुरु हुआ, अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की अद्रश्य सुरँगों को जानना।
कुछ एक ऐसे तत्वों को बोला गया की आप यहाँ ना आया करें। मगर, उन्होंने जैसे ठान लिया लो, की ऐसा तो खुद आपके साथ होने वाला है। मैं वहाँ घूमने जाती थी, अब इन लोगों ने मेरा यहाँ घूमना ही बँध करवा दिया। पहले खेत जाती थी घुमने, मगर मेरी गाडी हुंडई द्वारा शातिर तरीके से छीनने के बाद, अब गाडी जिन भले लोगों ने दिलवाई थी, पता चला उन्होंने ही छिनवा भी दी। हालाँकि, ये सब करते तो माँ और भाई ही दिख रहे थे। फिर ऐसे कैसे?
जब माँ बाप या भाई बहन या कोई भी रिस्तेदार, अपने बच्चों या भाई बहन या अपनों से बात करने की बजाय, इन सुरँगों वालों से बात करते हैं, तो वहाँ कहानियाँ ऐसी ही बनती हैं। वैसे नहीं बनती, जैसे आप चाहते हैं। ऐसे लोग अपने लिए या अपनों के लिए काम करने की बजाय, इन राजनीतिक पार्टी वालों के काम बनाते हैं। उनके अद्रश्य चक्रव्यूहों में फंस जाते हैं। खुद और अपनों तक को लुटा बैठते हैं।
फोनी ताकतें और in-silico कंट्रोल (राजनीतिक पार्टियों की ऑनलाइन सुरँगे)
अपनों के साथ बातचीत ही ख़त्म और बाहर वालों से ज्यादा बातचीत (राजनीतिक पार्टियों का सीधा-सीधा कंट्रोल)
यहाँ से मैं आपको मानव रोबॉटिक्स की सैर पर लेकर चलूँगी। एक ऐसा जहाँ, जहाँ हममें से बहुतों को लगता है की हमारी ज़िंदगी में जो कुछ हो रहा है, वो हम ही कर रहे हैं। हक़ीक़त, इसके बिलकुल विपरीत भी हो सकती है। आपका और हमारा ये जहाँ, हमारी ज़िंदगियों का हर पहलू तक, गुप्त तंत्र की जकड़ में है। जिसके आका राजनीतिक पार्टियाँ और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ हैं। आप जितने ज्यादा अंजान और गरीब हैं, उतना ही ज्यादा इस तंत्र की जकड़ में भी। जितना ज्यादा आपके पास इस सबकी जानकारी और सँसाधन होंगे, उतना ही इनसे मुक्ती के रस्ते भी।
मानव रोबॉटिक्स पर आगे पोस्ट्स में आपको काफी कुछ पढ़ने को मिलेगा।
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