अपने बहन भाईयों में बड़े होने के कई फायदे और नुकसान होते हैं। उसपर आप किसी ऐसे घर में पहला बच्चा हों, जहाँ उस पहले बच्चे के आने का इंतजार, उस वक़्त के हिसाब से थोड़ा सामान्य से ज्यादा हो। आप एक ऐसे दौर में, एक ऐसे समाज में पैदा हुए हों, जहाँ लड़के की अहमियत लड़की से ज्यादा हो और इंतजार लड़के के आने का हो, मगर? लड़की आ जाए? वो भी इतने इंतजार के बाद। जिस लड़के का नाम तक पहले ही सोच लिया गया हो? और आ जाए लड़की? क्या होगा? बच्चा पहला है तो स्वागत तो होगा, मगर नाम वही लड़के वाला मिलेगा। यहीं से शायद बड़ी बहन होने के थोड़े से और फायदे या नुकसान हो जाते हैं। शायद हाँ और शायद ना? ये हमारे समाज में कितने ही घरों की कहानी हो सकती है। अगला बच्चा अगर लड़का हो, तो वो शायद काफी कुछ कॉउंटर कर देता है? मगर ऐसा भी नहीं है की इससे उस इंतजार में अवतारी की कोई खास अहमियत कम हो जाती है?
इस सबको ऐसे ना देखकर, क्या हो अगर हम कोढ़ की दुनियाँ की नजर से देखने लगें? और लो जी, नाम में ही उलझ गए। इस पार्टी की सैटिंग में आपका नाम फिट है। मगर उस पार्टी की सैटिंग में नहीं है। आप राजनीती को पसंद ही नहीं करते। राजनीती मतलब बड़ा ही उलूल-जुलूल सा अजीबोगरीब-सा खेल है। इन सबसे जितना बच सकें, बचें। पर कोढों वाले ही बताते हैं, की राजनीती से बचना मुश्किल है, चाहे आप उसे कितना भी नापसंद करें। हाँ, उसे समझकर, जितना भी समझ आ सके, आगे बढ़ते रहना थोड़ा आसान हो सकता है। ये नाम गड़बड़ी की कहानी भी ऐसा नहीं की सिर्फ मेरी हो। यहाँ तो पहले नाम के बाद वाले adjective type शब्दों से दिक्कत रही। मगर कहीं-कहीं तो इस राजनीती ने लोगों का पहला नाम ही बदल डाला। ऐसा क्या होगा आम इंसानों के नामों में भी, की राजनीती को आपके नाम तक से दिक्कत हो? किसी भी इंसान का नाम, उसकी पहली पहचान है। दुनियाँ आपको पुकारती या जानती ही उस नाम से है। वो आपकी पहली पहचान और किसी भी सिस्टम में पहला पहचान पत्र है। उसके साथ खिलवाड़, मतलब आपकी ज़िंदगी के साथ खिलवाड़। आपको जिस पहचान की अहमियत तक नहीं पता, उसकी अहमियत इन जुआरी राजनितिक पार्टियों को है।
कैसे? जानने की कोशिश करें?
पैदाइशी नाम, विजय
10वीं के सर्टिफिकेट में जाने वो कैसे, विजय कुमारी हो गया? या शायद मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया? और PhD की डिग्री तक वही चला। PhD की डिग्री में बदलवाने की कोशिश के बावजूद।
मैंने 2007 में अपने नाम विजय से कुमारी नाम का adjective हटाकर दांगी रख लिया, ऑफिसियल तरीके से। मगर उस ऑफिसियल तरीके में बदलने वालों ने इतना कुछ बदल दिया, की लगे ये क्या बकवास है? और यही सब वजह रही की वो PhD की डिग्री में भी विजय कुमारी ही रहा। मगर विजय जैसे जिद्दी इंसान को कोई कहे की हम तेरे कहे अनुसार तेरे नाम नहीं बदलेंगे, तेरा नाम वही रहेगा जो हम चाहेंगे? कैसे हज़म होगा? यहाँ से सिलसिला शुरु हुआ हर डॉक्यूमेंट में उस नाम को सही करने का। वो नौकरी से शुरु हुआ और हर डॉक्यूमेंट में बदलता चला गया। मगर? इन्हीं राजनितिक पार्टियों ने जैसे ठान रखी हो, ऐसे कैसे बदलने देंगे? एक खास अभियान चला, उसे तहस नहस करने का। यहाँ विजय दांगी, यहाँ विजय कुमारी और यहाँ विजय कुमारी दांगी। खासकर नौकरी वाले ऑफिसियल कम्युनिकेशन में। हालाँकि, सभी पहचान पत्रों में वो विजय दांगी हो चुका था।
2015 में मुझे अपना पासपोर्ट Renew करवाना था, मगर पता चला ऑफिशियली नाम में बड़ी गड़बड़ चल रही है। तो एक दो-बार, यहाँ-वहाँ verbally बोला। और बताया गया की typo mistake हैं, आगे से ठीक कर देंगे। 2016 में पासपोर्ट renewal के लिए अप्लाई किया और उसके साथ ही पता चला, अपनी यूनिवर्सिटी से उसके लिए NOC से लेना पड़ेगा। पासपोर्ट renewal के लिए यूनिवर्सिटी से NOC? क्यों? हरि याना सरकार का एक खास ऑर्डर निकला था, उसके तहत। उसके लिए अप्लाई किया, तो पता चला NOC वाले फरहे में ही नाम फिर गड़बड़। उसे ठीक करने को बोला, तो बोला गया की पहले सब डिग्री सर्टिफिकेट में बदलवाओ। बस यही बच गया था, खामखाँ की बकवास करने को जैसे? इस वक़्त तक बाकी सब पहचान पत्रों में वो विजय दांगी था। नौकरी वाले पहचान पत्र तक में। NPS (पेँशन) वाले पहचान पत्र में भी। ओरिएंटेशन कोर्स हो या रिफ्रेशर, कांफ्रेंस हों या वर्कशॉप या सिम्पोजियम या ऐसी ही कोई भी और ड्यूटी, हर सर्टिफिकेट में विजय दांगी। तो अब डिग्रीयों में नाम बदलवाने का क्या लफड़ा रह गया था? खैर! रजिस्ट्रार और VC के ऑफिस के धक्के खाने के बाद वो फाइल यूनिवर्सिटी लीगल सैल पहुँचती है। और आपको लगता है, की ये कुछ ज्यादा ही नहीं हो रहा? अहम नाम नहीं बदला गया है। वो हर जगह, बचपन से आजतक विजय ही है। उसके साथ का सिर्फ कोई adjective बदलना, इतनी बड़ी आफ़त का काम हो सकता है? लीगल सैल से फरमान आता है की इसका एक तरीका है, जैसे 2007 में 2 न्यूज़ पेपर्स में विज्ञापन के तरीके से बदला था, वैसे ही बदल लो। फिर डिग्री में बदलने की जरुरत नहीं पड़ेगी। एक यही तरीका है, ऑफिशियली कहीं भी दिखाने का। 2007 के बाद फिर से 2016 में क्यों? अरे, आपने तब देखा ही नहीं की उन्होंने उसमें किया क्या हुआ था? फिर से देखो ज़रा
ये विज्ञापन तो, जो 2007 में देखा था, उससे भी अलग लग रहा है? हो सकता है, मुझे ही ढंग से याद ना हो? अब तब तक ये कहाँ पता था, की यहाँ-वहाँ कबाड़ मचाने वाले आपकी फाइल्स और डॉक्युमेंट्स तक बदल सकते हैं, आपके ऑफिस या घर तक रखे हुए? क्या एक आम इंसान का, खामखाँ सा नाम में बदलाव, इतनी अहमियत रखता है, किसी भी राजनितिक पार्टी के लिए? मगर क्यों? खैर। 2016 में नाम ठीक करने का, वो फिर से विज्ञापन जाता है और आखिर पासपोर्ट renewal के लिए NOC मिल जाता है। मगर? अब क्या मगर रह गया? ऐसे ही नहीं? पासपोर्ट renewal ऑफिस द्वारा काफी चक्कर कटवाने के बाद। अच्छे खासे झगड़े और मीडिया में जाने की धमकी के बाद। पासपोर्ट जिस दिन लाना था, उसी दिन हाईवे पर बहादुरगढ़ के पास एक स्कार्पियो (या कोई और SUV?) द्वारा एक्सीडेंट की कोशिश से बचते-बचाते। था क्या ये? समझ ही नहीं आया। मगर, इतना तो समझ आ गया था की कोई तो हैं, जो नहीं चाहते की आप भारत से बाहर जाएँ। मगर कौन और क्यों? इस नाम के हेरफेर में कुछ तो खास है, जो तुम्हारी समझ से बाहर है? नहीं तो एक पासपोर्ट renewal में थोड़े से नाम बदलाव पर इतना बवाल क्यों?
नया पासपोर्ट लेकर, घर सुरक्षित पहुँचने पर, उन दिनों H #16, टाइप-3, MDU, थोड़ा सा तो शुकुन मिला। आखिर एक नाम ठीक करने की फाइल को लेकर मैंने 8-9 महीने, अपनी ही यूनिवर्सिटी में, कभी इस ऑफिस और कभी उस ऑफिस धक्के खाए थे। चलो, पासपोर्ट तो हो गया। मगर ये क्या? इस पासपोर्ट में भी घौटाला? क्या? फिर से कुछ गड़बड़? अब क्या? ये भी ऑनलाइन ही कहीं पढ़ने को मिला, मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया था। मगर क्यों? अब ये क्या था? जानते हैं आगे।
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