दुनिया, अजब-गजब
पीछे कुछ सालों से मैं त्यौहार नहीं मनाती। इसी आस में की अपने त्यौहार, अपने घर मनेगें। किसी पड़दादाओं के खँडहर में तो बिलकुल नहीं। सही बोला जाए तो, यहाँ वो फीलिंग ही नहीं आती। हाँ, आसपास के त्योहारों के रंग-रुप जरुर देखती हूँ, उस नज़र से, जो पिछले कुछ सालों में विकसित हुई है। जैसे?
मीडिया कल्चर के रंग, त्योहारों के संग
नाली पे दिवाली? दिवाली घर के बाहर बिठा दी और दिवाला घर के अंदर? वो भी सुबह-सुबह?
एक हरा दिया, एक-आध जामिनि और बाकी? वही अपने देसी रंग-रुप वाले? पहली पैड़ी पे ये, दूसरी पे ये, तीसरी पे ये?
यहाँ, यहाँ, यहाँ? कुछ खास नहीं बदला है। हाँ, कुछ लोगबाग़ नए हैं। कुछ पुराने आए-गए हुए। किन्हीं घरों में बहुएँ, तो, कहीं बुजुर्ग। और किन्हीं के थोड़े और ज्यादा बेहाल हैं।
कहीं बुजुर्गों के बेहाल हैं। मगर, वो कह रहे हैं की पहले से बेहतर हैं। मतलब? पहले ऐसे क्या हाल होंगे? ऐसे घरों को देखकर तो शायद यही समझ आता है, "होलो, साँड़ पैदा कर कै खुश? पर चिँता ना करो, सांडा कै आग्य भी सांड हैं।" कहाँ-कहाँ सुना है ये? या शायद कुछ की माने तो, उनके घर के काम रुके हुए ही बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना हैं?
कुछ लोग गाँव वाले घर पर ऐसे टहलने आते हैं, जैसे माँ-बाप को सुनाने ही आते हों? जैसे, पता नहीं उन्होंने उनका क्या खा लिया हो? चलो फिर भी वो आते तो हैं। कुछ माँ-बाप तो इतने से में भी खुश हो जाते हैं। और ब्याज से ज्यादा मूल को पसंद करते हैं। बेटे बहुओं की बजाय, पोते पोतियों या दोहते दोहतियों को। और कुछ के प्रवचन बुजुर्गों से सुनकर तो ऐसे लगता है, जैसे जाने किस प्रजाती के जानवर पैदा किए हुए हैं इन्होंने? कुछ आते ही नहीं, माँ-बाप का सबकुछ लूट-खसौटकर। ये सबसे लायक प्रजाति बताए। ये ईधर की कहानियाँ बताई। उधर की भी कुछ तो होंगी ही? कुछ भी हों। मगर माँ-बाप को इस उम्र में इस हाल में यूँ अकेला छोड़ना? सभ्य इंसान तो नहीं करेंगे शायद?
तो कैसी रही दिवाली आपकी? या आपके यहाँ दीपावली मनती है? शब्दों का बस थोड़ा-सा ही हेरफेर, क्या कुछ कहता है? ऐसे ही जैसे रंगो का या डिज़ाइनस का। कभी नहीं सोचा ना? सुना है ये जाल भी मानव रोबॉटिक्स का एक हिस्सा है। बहुत बड़ा हिस्सा।
सोचके देखो, की आप जो शब्द चुनते हैं अपनी अभिव्यक्ति के लिए, वही क्यों चुनते हैं? उसके पीछे भी कहीं कोई राजनीती तो नहीं? थोड़ा ज्यादा लग रहा है ना? शुरु-शुरु में मुझे भी ऐसे ही लगता है, अब थोड़ा समझने की कोशिश करती हूँ, इस शब्दों के हेरफेर के कल्चर को। मीडिया कल्चर को। आगे किसी पोस्ट में आएँगे शब्दों, रंगो या डिज़ाइनस के जाल पर भी।
उम्मीद की आपकी दिवाली या दीपावली अच्छी ही रही होगी।
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