Conflict of Interest क्या है?
Conflict टकराव या संघर्ष? जैसे खुद से ही?
Interest आपकी अपनी रुचि या हित से?
चलो, कुछ एक उदाहरण लेते हैं
जब नौकरी छोड़ने के बाद, मैंने शुरु-शुरु में घर आना ज्यादा शुरु किया, तो आसपास से कुछ एक अजीबोगरीब प्रवचन आने लगे, अपने ही घर के किसी सदस्य के खिलाफ।
"ये तो सबका खा गया।"
और आप सोचने लगें, क्या बक रहे हैं ये? है क्या इनके पास ऐसा जो इस तरह से बोल रहे हैं? मियाँ, बीबी कमाते हैं और जितना भी जैसा भी है, उसी में खुश हैं। ये ऐसा बोलने वालों को क्या दिक्कत है? इनके पास तो उनसे कहीं ज्यादा है। धीरे-धीरे आपको समझ आएगा की उनके अपने conflict of interest हैं, जो उनसे ऐसा कहलवा रहे हैं। और वो भी राजनीती के पैदा किए हुए। लड़के से थोड़ा ज्यादा पढ़ी-लिखी बहु, हज़म नहीं हो रही थी उन्हें। वो खुद अपने लड़के के लिए उसे चाह रहे थे। अजीब? इतनी छोटी-सी बात? या इससे आगे भी कहीं कुछ?
मैंने जब नौकरी छोड़ी, तो यूनिवर्सिटी घर नहीं छोड़ा। क्यों? क्यूँकि, मेरे हिसाब से मैंने नौकरी छोड़ी ही नहीं, बल्की, ऐसा माहौल तैयार किया गया की मजबूरी में मुझे छोड़नी पड़ी। इमेल्स में वो सब लिखा जा रहा था। उस पर इतने सालों बाद वापस गाँव आने की सोचना भी, जैसे, ईधर कुआँ और उधर झेरे जैसा था। हालाँकि, तब तक उन समस्याओँ के बारे में तो कहीं कोई खबर तक ही नहीं थी, जो आने के बाद झेली। मेरे लिए तो, लाइट, पानी, अपनी खुद की रहने की जगह या अपने हिसाब से पढ़ने-लिखने की जगह ना होना, शोर की समस्या जैसी छोटी-मोटी समस्याएँ ही महाभारत-सी लग रही थी। फिर यहाँ पे एक ही कमरा था मेरा। और, अब तो बैडरूम में तो पढ़ने की आदत ही नहीं रही। और उसपे आपको पूरा वक़्त राइटिंग के लिए चाहिए, तो एक नहीं, दो तीन, छोटे-मोटे कॉर्नर तो चाहिएँ, इधर-उधर जगह बदलने के लिए, थोड़ा बहुत घूमने के लिए। क्यूंकि, इतने सालों अपनी ही तरह के वातावरण और जगह पर रहने के बाद, ऐसे चक-चक, पक-पक माहौल में रहना, मतलब, आफ़त। कहाँ मालूम था, की जो समस्याएँ यहाँ आकर झेलनी पड़ेगी, उसका तो अभी अंदाजा ही नहीं तुझे। उनके सामने ये सब तो जैसे भूल ही जाएगी।
मेरा अपना खुद की पढ़ने लिखने के लिए छोटी-सी जगह बनाने का प्लान और भाभी का स्कूल का प्लान और किन्हीं बाहर वालों को दिक्कत? उन्हीं बाहर वालों ने conflict of interest पैदा करना शुरु कर दिया। ये तुम्हारी जमीन खा जाएगी, दिमाग में घुसाकर। अब सोचने वालों ने सोचा ही नहीं, की कैसे खा जाएगी? ना शादी की हुई और ना ही बच्चे। तुम्हारी ही बच्ची को गोद लेने की बातें। मतलब, राजनीती जहाँ conflict of interest ना हो, वहाँ भी पैदा करने के जुगाड़ रखती है। ऐसा ज्यादातर तब होता है, जब आप ज्यादा व्यस्त हैं और एक दूसरे से बात कम हो पा रही है। राजनीती वहाँ बाहर वालों को घुसेड़कर, ऐसा करवाती है। और वो बाहर हर वो जगह हो सकती है, जहाँ आप ज्यादा वक़्त गुजारते हैं। वो फिर चाहे आपका आसपड़ोस हो या ऑफिस या खेतखलिहान, कोई बैठक आदि?
इस conflict of interest के जरिए, राजनीतिक पार्टियाँ दो धारी तलवार की तरह काम करती हैं। वो दोनों तरफ मार करती हैं। और उसका दोष भी आपके ही लोगों पर रख देती हैं। इस सबके बीच, खुद जो काँड ये पार्टियाँ रचती हैं, उसपे आपका दिमाग तक नहीं जाने देती। जैसे खाना, पानी या हवा को इन्फेक्ट करने का काम। बीमारियाँ पैदा करने के तरीके। जो बीमारी ना हों, वहाँ भी बीमारियाँ डिक्लेअर करना। वो सिर्फ कोरोना नहीं है। हर बीमारी आपके राजनीतिक सिस्टम की देन हैं। क्या जुकाम, क्या छोटा-मोटा बुखार। या फिर चाहे कैंसर और लकवा ही क्यों न हो। मगर कैसे? इसको भी शायद आगे किन्हीं पोस्ट में पढ़ेंगे। ये भी काफी हद तक राजनीती के पैदा किए गए conflict of interest की मार ही हैं। ये आपका खाना या पानी कहाँ से आता है? हवा प्रदूषित करने वाले कारक या स्त्रोत क्या हैं? या फिर लाइफ स्टाइल वाली बीमारियाँ? राजनीती या कहीं के भी सिस्टम का सीधा-सीधा और छिपा हुआ दोनों तरह का हिस्सा है इनमें।
घर आने के बाद किस किस के conflict of interest पैदा किए गए, जो थे ही नहीं? या थोड़ा-सा भी सोचा जाता, तो होने ही नहीं थे? उनमें कुछ एक आज तक भी चल रहे हैं, जैसे जमीन के विवाद।
इसकी नौकरी और यूनिवर्सिटी का घर दोनों छुड़वाने हैं। किन्होंने ये दिमाग में डाला कुछ अपनों के? और क्यों? किसका फायदा होना था? और क्यों अहम है यहाँ। जो जिनके दिमाग में डाला गया, उन्हें नुकसान नहीं बताया गया। उन्हें ऐसा करवाने वालों के साथ आगे क्या होना है, वो भी पता था, मगर नहीं बताया गया। क्यों? क्यूँकि, हितैषी वो उनके भी नहीं। सिर्फ तब तक रुंगा बाँटेंगे उन्हें भी, जब तक उनके अपने स्वार्थ कहीं न कहीं सिद्ध हो रहे हैं। रुंगा किसलिए कहा? क्यूँकि, दिमाग या काबिलियत सबमें है। बस निर्भर करता है, की किसको कैसा माहौल या कैसे लोग मिलते हैं। और ये पार्टियाँ, आपको उतना देना ही नहीं चाहती, की आप इनसे इंडिपेंडेंट हों पाएँ। ऐसा हो गया, तो फिर इनके आगे-पीछे कौन घुमेगा? हमने सलाम और जी-हज़ूरी वाली पार्टियाँ सिर पर बिठा रखी हैं। सलाम और जी-हज़ूरी वाली पार्टियाँ सिर पर कौन बिठाता है? जिन्हें खुद की काबिलियत का अंदाजा ना हो? और ऐसा वहाँ होता है, जहाँ का शिक्षा तंत्र ही लंजू-पंजू या फेल हो। क्यूँकि, वो शिक्षा को मुश्किल बनाता है, आसान नहीं। उससे डरना या भागना सिखाता है। वो सिर्फ डिग्रियों या ग्रेड को अहमियत देता है। उनसे मिल क्या रहा है या मिलेगा क्या, वो नहीं। ये भी एक तरह का conflict of interest ही है, खासकर, शिक्षा को मात्र कमाई का साधन बनाने वालों द्वारा।
चलो वापस आसपास के Conflict of interest के मुद्दों पर आएँ।
ऐसे जैसे ये तुम्हारी ज़मीन खा जाएगी, किसने दिमाग में डलवाया? उन्होंने, जो दिख या कह रहे थे? या उन्होंने, जिन्हे ये दोनों ही नहीं जानते? आज तक भी?
ज़मीन खा जाएगी? नौकरी छुडवानी है? और यूनिवर्सिटी का घर भी छुड़वाना है? भाभी की मौत के बाद, ये चेहरे खुलकर सामने आए, बड़े ही घटिया और ओछे रुप में। जो आपको सामने दिख रहे थे, ये वो थे? या जो दूर बैठे, उन्हें अपना रोबॉट बना ये सब करवा रहे थे वो?
जो दिख रहे थे, वो अड़ोस-पड़ोस या घर-कुनबा ही है। और जो करवा रहे थे? ज्यादा अहम किरदार यहाँ किसका है?
कोई इतना सब भला किसी और से कैसे करवा सकता है? वो भी आपस में अपने ही अड़ोसी-पड़ोसी या घर कुनबे से ही? Conflict of Interest के जाले घड़ कर। जो इन जालों के पार नहीं देख पाएँगे, वो आपस में ही एक दूसरे को काट खाएँगे।
यहाँ पे ऐसे-ऐसे किरदार आपके सामने होंगे, जिन्हें ये तक समझ नहीं होगी, की जिसकी आप बुराई कर रहे हैं या जिसके खिलाफ भर रहे हैं, वो उसी घर का एक सदस्य है। और हो सकता है, उल्टा, तुम्हारे जाहिल किरदार से ही नफरत करने लगे। ऐसा हुआ भी। जब भाभी के बारे में किसी ने थोड़ा ज्यादा ही तड़का लगाना शुरु कर दिया। वो भी उनके जाते ही। टिपिकल बेहूदा औरतोँ वाली बातें। "वो तो पैसे चुरा लेती थी। कई बार तो रसोई के डिब्बों में मिले।" चलो आपकी मान लेते हैं की वो पैसे चुरा लेती थी, मगर, तुम्हें ये कैसे पता और किसने बताया? सामने वाला ये नहीं सोचेगा क्या? थोड़ा सा भी दिमाग होगा, तो जरुर शायद? किसके पैसे चुरा लेती थी? तुम्हारे घर आती थी क्या चुराने? या अपने ही घर के पैसे, अपनी ही कमाई के कहीं यहाँ-वहाँ रख देती थी? या शायद ऐसा भी ना हो? क्यूँकि, ये सब ये तब बोल रही थी, जब भाभी इस दुनियाँ में ही नहीं थे। पहले क्यों नहीं बोला ये सब, ताकी जवाब दे पाती वो तुम्हें?
पता नहीं बकने वाली क्या बक रही थी, उस बेचारी को शायद खुद ही अंदाजा नहीं था। जब ऐसी-ऐसी बातों से आग लगती नहीं दिखी, तो भाई ने मार दी। जब वो भी पार चलती नहीं दिखी, तो माँ और बहन तक को घसीटने की कोशिश। जब कुछ भी पार नहीं चली, तो हद ही हो गई, जाने क्या बोल गई। "निकल मेरे घर से।" यूनिवर्सिटी घर की तरफ इसारा। समझ ही नहीं आया, की उस पर हँसा जाए या गुस्सा किया जाए? उसका घर? जिसकी क्वालिफिकेशन तक उस नौकरी के लायक नहीं? ऐसे बेवकूफ लोगों को ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहिए, बस सुनते रहना चाहिए और जानने की कोशिश होनी चाहिए की ये सब घड़ा कहाँ से जा रहा है? उसके लिए, यहाँ-वहाँ ऑनलाइन हिंट मिल जाते हैं।
इस सबमें अहम क्या है? ये पार्टियाँ लोगों का इस कदर दुरुपयोग कैसे कर पा रही हैं? किन्हीं ढंग के कामों में लगाने की बजाए, खामखाँ की बकवासों में वक़्त जाया करते लोग जैसे? वो भी अपने ही घर-कुनबे या अड़ोस-पड़ोस के ख़िलाफ़?
Conflict of Interest घड़ के? वो भी ऐसे, की आप उस घर में आ जा रहे हैं, उनके खास बने हुए हैं और उन्हीं को जड़ से ख़त्म करने पे आमदा हैं? क्या लगते हैं वो आपके? और क्यों चाह रहे हैं ऐसा आप? क्यूँकि, उन्हें इस सबमें खुद का कोई फायदा दिखा या समझा दिया गया है?
यहाँ फायदा दिखाया गया है। कहीं-कहीं केसों में डर, असुरक्षा की भावना और भी न जाने कितने ही साइकोलॉजिकल इम्पैटस पैदा करके, घड़के, ऐसा किया जा रहा है। ऐसे कितने ही केस भरे पड़े हैं, जिनमें सामने वाला यही नहीं समझ पा रहा, की तुझे इसका फायदा कैसे होगा? यही पार्टियाँ तुम्हारा नुकसान करती हैं, वो क्यों नहीं बताती तुम्हें? ना हुई बीमारियाँ घड़कर और जवान आदमी तक खाकर। यही पार्टियाँ तुम्हारे बच्चों या बहन, भाहियों को गलत रस्ते भी ले जा रही हैं, जानबूझकर सामान्तर घड़ाईयाँ घड़ कर। क्यों नहीं देख, समझ पा रहे तुम वो सब? क्यूँकि, उन सुरँगों या चालबाजों को कभी किसी ने दिखाया या समझाया ही नहीं। और अगर मैं गाँव नहीं आती, तो शायद ये सब समझ भी नहीं आना था। दुनियाँ में ऐसे-ऐसे विषय भी हैं? और ये विषय आपस में मिलकर कैसी-कैसी खिचड़ी पकाते हैं?
मीडिया भी जैसे कोड-कोड खेल रहा हो और पढ़े-लिखे, ये सब जानने समझने वाले भी? तो ये खामखाँ की तू-तू, मैं-मैं की बजाय, क्यों न उन विषयों को ही पढ़ाया या समझाया जाए, जो इन जालों और ताने-बानों के घड़े गए कारनामों को खुलकर बता और समझा रहे हैं? वो भी ऐसे, की आम लोगों की भी समझ आए की आपका सिस्टम या राजनीतिक माहौल आपको परोस क्या रहा है? दुनियाँ भर की यूनिवर्सिटी की सैर, शायद ऐसा ही कुछ पढ़ा या समझा रहा है।