कई बार यही अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा इंसान भी काफी कुछ ऐसा बोल जाता है की आप भी सोचते ही रह जाएं की कह तो सही ही रहे हैं।
"कोई भैंस या बैल, किसी के खेत में जुगाली कर जाएँ या गौबर या मूत, तो इससे वो खेत थोड़े ही उसका हो जाएगा? या उसकी जमीन-जायदाद या संसाधन थोड़े ही उनके नाम हो जाएंगे?"
मगर, राजनीती तो कुछ-कुछ ऐसा ही खेलती नज़र आ रही है। दादर नगर हवेली, अंडमान निकोबार, लक्ष्यद्वीप जैसी कहानियाँ? कहाँ से कहाँ तक? भला कैसे भीड़ा देते हैं लोगबाग, ऐसे-ऐसे कोड?
ठीक ऐसे ही जैसे, कोई इंसान अगर इस घर से उठा है, दुनियाँ से ही, तो वो कहीं और कैसे आ जाएगा? या उसकी जगह कोई और कैसे ले सकता है? कोढ़-कोढ़ जाले जैसे?
चलो आसपास के ही कुछ अनोखे से रहस्यों से अवगत होते हैं। जिनकी जानकारी मेरी भी नई ही है। या कहना चाहिए की अभी तक भी सही से समझ से बाहर। और ये अनोखे किस्से, हर घर या जगह के अपने हैं। अगर आप भी उन्हें ऐसे ही पढ़ना चाहें तो।
तब तक फाइनल नहीं था, की मुझे इस दौरान रहना कहाँ है। मैंने गाँव थोड़ा ज्यादा आना शुरु ही किया था। तो यहाँ-वहाँ मीटरों के नंबर, घरों के बाहर की दिवारों पर जाने क्यों कह रहे हों जैसे, पढ़ो हमें। गली से गुजरते-गुजरते ही, आप उस मकान का मीटर नंबर जान सकते हैं। उसके बाद मीटर कितना पुराना या नया है और उस पर क्या कुछ लिखा है? और रीडिंग क्या दे रहा है? मेरे अपने घर के नंबर ने ही रोक दिया जैसे। एक बार फिर से पढ़ो मुझे। ऐसा क्या खास?
ऐसा-सा ही फिर एक-आध, ईधर-उधर के मीटरों से लगा। पता नहीं क्यों? आपको पता हो, तो थोड़ा और प्रकाश डालना।
मीटर के बाद दादा का कमरा और भाई के घर के बदलाव। भला इतने से सालों में इतने सारे बदलाव कौन करता है? खामखाँ, पैसा वेस्ट जैसे? मगर ये बदलाव कब हुए और क्या-क्या हुए और क्यों हुए? ये शायद समझने लायक है। मगर ऐसा ही फिर कुछ, आसपास के घरों में नजर आया।
चलो इस खँडहर के डिज़ाइन से ही शुरू करें?
पीछे स्टोर (हरियान्वी में ओबरा), आधा इधर, आधा उधर। ईधर माँ वाले में क्या कुछ रुका पड़ा है? जाने दो। नहीं तो मेरी खैर नहीं। कुछ खास नहीं है। मेरे हिसाब से तो ज्यादातर कबाड़। मगर फिर भी रखने वाले के लिए खास होता है। और अकसर वही अड़चन या रुकावट या गले का फंदा जैसे? उसी ताला लगाने वाले के लिए? 19 या 20 -कड़ियाँ? 20 वीं बीच वाली दिवार में जैसे?
उसके आगे एक छोटी-सी रसोई और अंदर की तरफ छोटा-सा आँगन। रसोई की पथ्थरों और दो कड़ियों की छत, जो पुरानी को तोड़कर बनाई गई थी, जब हम इस घर रहने आए। तब मैं शायद स्कूल में ही थी। आँगन में सिरियों वाला जाल। रसोई के साथ निकली हुई सीढ़ियाँ V-Shape, जो ऊप्पर से N जैसा-सा दिखता है। जो पहले रसोई के अंदर से ही जाती थी, जिनकी वजह से अँधेरा रहता था। वो पहले वाली सीढ़ियाँ भी शायद बाद में बनी होंगी। जब कभी दादाओं का बटवारा हुआ होगा। इस सीढ़ी में 14-सीढ़ी ऊप्पर जाने के लिए। जिनमें नीचे से ऊप्पर जाते हुए 7 वें नंबर पर और ऊप्पर से नीचे आते हुए 9-वें नंबर पर बड़ा पैड़ा। इस रसोई के पिछे वाली साइड दादा दलजीत का घर, उनका अपना खरीदा हुआ। जिन्हें ज्यादातर जीत दादा कह कर ही बोलते हैं। मुझे भी अभी कुछ वक़्त पहले ही पता चला उनका पूरा नाम। जो फौज से रिटायर हैं। जो घर कम, आसपड़ोस की कार पार्किंग ज्यादा है। जीत दादा का रहने वाला घर इस पार्किंग वाले घर के सामने ही है। ये हमारे इस खँडहर के साथ वाली जगह दादा जीत ने चार मकानों को खरीद कर बनाई हुई है। हमारे बिल्कुल साथ वाला, जो पहले दयानन्द दादा का था। उससे आगे वाला राजबीर दादा का। उससे आगे वाला प्रताप दादा का। और गली के आखिरी कोने पर उन्हीं के बेटे हरिपाल दादा का। ये चारों, जीत दादा ने अलग-अलग वक़्त पर खरीदे हुए हैं। हरिपाल और प्रताप दादा वाला तो ज्यादातर खाली ही रहता है। दयानन्द दादा वाला हिस्सा और राजबीर दादा वाला हिस्सा, ज्यादातर आसपास की कारों की पार्किंग के काम आता है।
दयानन्द दादा बहुत पहले हांसी जा चुके। और राजबीर दादा रोहतक। राजबीर दादा, थोड़े अजीबोगरीब हालातों की वजह से। मगर ये सालोँ या दशकों पहले की बातें हैं। उसके आगे वाले भी दोनों काफी सालों पहले बेचकर जा चुके। हरिपाल दादा के बच्चे गॉंव ही रहते हैं, गाँव के बाहर की तरफ।
चलो वापस माँ के खँडहर पर आते हैं। रसोई से आगे माँ का ठीक ठाक साइज का कमरा (हरियाणवी में साल?) और ड्राइंग रुम भी वही। या कहो Multipupose है। 24-कड़ियाँ सहतीर के एक तरफ और 24 कड़ियाँ सहतीर के दूसरी तरफ। बीच में पथ्थर का पोल सहतीर के सुप्पोर्ट के लिए, और ईंटो से बना पहले वाले घरों जैसा-सा डिज़ाइन।
इनके ऊप्पर? पिछे वही स्टोर। जिसे छोटा-सा कमरा भी बोल सकते हैं। 19 -कड़ियाँ ? पीछे की तरफ निकला हुआ एक होल जैसा-सा, छोटा-सा जँगला। 10 वीं कड़ी के साथ। 9 कड़ी ईधर और 9 कड़ी उधर। इन छोटे से जंगलो से ऐसा समझ आता है की जब ये हवेली बनी होगी तो शायद इसके चारों तरफ खाली जगह ही रही होगी। वैसे भी इसके आसपास के मकान इसके बहुत बाद के बने हुए हैं।
रसोई की छत और उसके साथ वाली थोड़ी-सी जगह खाली है। आगे मेरा कमरा। आधे में 24 और आधे में 23-कड़ियाँ। यहाँ लकड़ी का पोल सहतीर के सपोर्ट के लिए। इस घर में मेरी पसंदीदा जगह, मेरे कमरे के साथ बाहर की तरफ का लकड़ी और लोहे के डिज़ाइन से बना बारजा। बाकी, मुझे इस घर में कुछ पसंद नहीं।
साथ वाला ताऊ का खंडहर भी बिल्कुल ऐसा ही है। थोड़ा-सा बदलाव। उनके पिछे वाला ऊप्पर का कमरा भी गुल है। बहुत पहले ही ताऊ ने तोड़ दिया था या कहो की टूटा ही पड़ा था। बीच में वही एक तरफ रसोई और अन्दर की तरफ छोटा-सा खाली आँगन। उसके आगे वही कमरा (साल और सीढ़ियाँ)। यहाँ सीढ़ियों की वजह से कड़ियाँ बच गई, 16 सहतीर के एक तरफ और 16-सहतीर के दूसरी तरफ? सीढ़ियों की 10 पैड़ियाँ और एक 4 या 5 पटियों-सा, चबुतरा जैसा पैड़ा? इन सीढ़ियों के पीछे दादा समँदर का घर। इन सबका ददारी (पड़-दादा) या दादरी (भिवानी) या दादर नगर हवेली कोड से क्या लेना-देना? या शायद अंडमान-निकोबार और लक्ष्यद्वीप से भी? मतलब इस खँडहर के एक तरफ कोंग्रेस है और दूसरी तरफ? बीजेपी? ना। ये हैं शायद जैसे पार्टियों के A, B, C, D? ईधर, उधर, आगे या पीछे?
और इस खँडहर के पीछे? और भी रौचक बन जाएगा, फिर तो?
और आगे? क क क वालों का वीटा मिल्क प्लाँट, सॉरी घर। जसदेव अंकल और कविता मौसी का। और उनके पीछे, दादा कमेर का घर और डेरी । और इन आगे या पीछे वालों के आजू-बाजू? ऐसे पढ़ने लगो तो सब रौचक ही रौचक जैसे।
जीत दादा वाले कार पार्किंग से आगे इससे बड़ी गली। इस हवेली वाली इस छोटी गली के सामने ठीक T पॉइंट पर, दादा बलदेव सिंह का मकान, जो बटवारे के बाद दो भाइयों में बंट गया। आगे वाले हिस्से पर भाई का मकान और चाचा का पीछे, साइड से उनकी अपनी गली से जाते हुए। इस पढ़ाई के हिसाब से तो, वो आसपास भी बड़ा ही रौचक है। शायद हर जगह ही ऐसे है। खासकर, जब शुरु-शुरु में आपको ऐसा कुछ बताया, पढ़ाया या समझाया जाय? या कुछ हद तक खुद भी समझ आने लगे?
सुना है, या कहो की कहीं पढ़ा है, की सेनाओं या राजनीती के चैस को ऐसे पढ़ा जाता है। जिसमें वक़्त के साथ या कहो की राजनीती के हिसाब से सबकुछ बदलता रहता है। जमीन-जायदाद, घर और उनमें रहने वाले भी। वैसे, यूँ तो और भी बहुत से तरीके हो सकते हैं, ऐसे पढ़ने के?
तो आपके या आपके आसपास वालों के लिए कितनी सही है ये जगह? जितना मुझे समझ आया, उसके हिसाब से तो किसी के लायक भी नहीं। खासकर, अगर आप आगे बढ़ना चाहते हैं तो। राजनीतिक पार्टियों की चैस के बिमारियों और लड़ाई-झगड़ों और केसों वाले खाने हैं ये? राम सिंह वाली पड़-दादी से चलके, कहाँ-कहाँ निकल के जैसे? या कहना चाहिए की बलदेव सिंह और पार्वती की माँ। क्यूँकि, ये उनकी दूसरी शादी थी। पहली शादी से दादा हरदेव सिंह थे। जिनका स्कूल है और जो गाँव के बाहर की साइड और रोहतक रहते हैं। ददारी, दादरी, दादर नगर हवेली से लक्षयद्वीप तक के जमीन-जायदादों के कोढ़ वहाँ तक भी पहुँचते हैं। जैसे पीछे 2-कैनाल जमीन वाला किस्सा।
वैसे कोई जगह किसी के कितनी रहने लायक है। उसके लिए वहाँ का पढ़ाई-लिखाई का स्तर या सुविधाओं को जानना बहुत नहीं होगा शायद? घरों या ऑफिसों के डिज़ाइन की कहानियाँ तो ऐसे नहीं लगती, जैसे, कुछ भी फेंकम फेंक? गाँवों में, वो भी खँडहरों में या उसके आसपास की जगहों में कौन रहता है? इतना बहुत नहीं है कहना? रच दी गाथा। मगर शायद फिर भी काफी कुछ सिस्टम के बदलावों के बारे में तो बताते ही हैं। और कहीं का भी सिस्टम, वहाँ की ज़िंदगियों के हालातों से सीधा-सीधा जुड़ा है और उन्हें प्रभावित करता है। घरों के नंबर ही जैसे? गाँवों में घरों के नंबर नहीं होते? मगर यहाँ तो हैं। इस हवेली वाली गली में। बचपन से ही देख रही हूँ वो मैं। मगर शायद सब घरों पर नहीं हैं। ये नंबर हैं 196, 197, 199, 200. इनमें भी कुछ नंबर लगता है, इधर-उधर बदले हैं? बाहर वाली गली में नहीं हैं क्या? दिखाई नहीं दे रहे कहीं भी।
आप भी किसी भी घर को या उसके आसपास के माहौल को ऐसे भी पढ़ सकते हैं शायद? इन घरों में स्टोर में रखे हुए सामान कबाड़ जैसे होते हुए भी खास हैं शायद? कुछ-कुछ ऐसे, जैसे, ज्यादातर, रखने वालों के खुद ही जी का जंजाल? और हम कैसे-कैसे सामान से कितना लगाव रखते हैं? क्यूँकि, वो हमारे या हमारे पुरखों की यादें हैं? तो सँभाल कर रखना सही भी है शायद? मगर पुराने, सिर्फ यादों या इतिहास तक सिमट कर रह जाना कहाँ सही है? आगे बढ़ने वाले लोगों के पास तो उससे आगे कुछ अपना खुद का कमाया या अर्जित किया हुआ भी होगा ना? इसलिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी या तीसरी पीढ़ी का भी वहीं तक सिमित रह जाना, रुकावट ही है। या शायद पीछे रह जाने जैसा? उससे भी खतरनाक है, एक बार बाहर निकल कर फिर से वहीं आकर टिक जाना शायद? या शायद निर्भर करता है की आप क्या कर रहे हैं या आपकी जरुरतें क्या हैं? कहीं जबरदस्ती तो नहीं धकेले हुए? ये जानना भी अहम है शायद?