महारे बावली बूचाँ के अड्डे, अर घणे श्याणे? फेंकम फेंक?
छिपाने को क्या है ऐसा? लोग इतना क्यों सर्विलांस एब्यूज, सर्विलांस एब्यूज कर रहे हैं? ये शब्द उन दिनों होते थे जब सर्विलांस एब्यूज का abc तक नहीं पता था। बस इतना पता था की फोन सुन लेते होंगे। यहाँ-वहाँ चोरी छुपे कैमरे लगाकर अपने मानसिक दिवालियेपन के पोर्नोग्राफी के भूत को शाँत कर लेते होंगे। इससे ज्यादा क्या?
2012-2013 जब पहली बार अहसास हुआ, लोग दूर बैठे आपको आत्महत्या के लिए उकसा सकते हैं। आपके यूट्यूब या सर्च इंजन पर बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा दिखाकर, समझाकर। और बाहर लोगों को समझ ही नहीं आएगा की हुआ क्या होगा? और बड़े लोग किसी खास तरह की संस्कृति के लोगों को करैक्टर के हेरफेर में उलझा कर, सबकुछ मरने वाले पे ही लपेट देंगे। ये वो दिन थे, जब पहली बार आप कहीं ये पढ़ रहे थे की आज आपने किस रंग के अंदरुनी कपड़े पहने हैं या आपके शरीर पर कहाँ तिल है या कोई और निशान है। और ये सब तकरीबन हर रोज यहाँ-वहाँ पढ़ने को मिल रहा था। खतरनाक दुनियाँ और समझ से परे भी जैसे?
एक दिन ऐसे ही एक ऑन्टी आए हुए थे घर पर मिलने और उन्होंने कहा बाथरुम कहाँ है? मुझे बाथरुम जाना है। और आप सोचें अब इन्हें क्या कह कर टाला जाए, की ये घर इस लायक नहीं है। मैं नरक में रह रही हूँ। ये H #16 वाले दिनों की बातें हैं, जब शुरु-शुरु में मुझे ये सब पता लगना शुरु हुआ था।
मैंने ऑन्टी को बोला, ऑन्टी अगर बहुत जरुरी ना हो तो घर जाके चले जाना बाथरुम। ये घर इस लायक नहीं है। नहीं तो आसपास कहीं ले चलती हूँ। और उन्होंने छूटते ही कहा, जब बेटी इसे घर मैं रह सैके सै तो मेरा बूढ़ी औरत का के उखाड़ेंगे ऊत? उनके घराहाँ बाहन-बेटी कोणी? अक उनके किमै और लाग रहा सै, जो महारे तै अलग सै। कमीण पैदा भी एक औरत न ए कर राखे होंगे, अक लोग न कर राखे हैं? और ये कहते-कहते ऑन्टी ने खुद ही बाथरुम ढूँढ लिया था।
धीरे-धीरे ये भी समझ आया की पुलिस और डिफ़ेन्स तक इस सबके बारे में जानते थे। सिर्फ जानते थे? या? और वो कर क्या रहे थे? या क्यों कुछ नहीं कर रहे थे, ये समझ से परे था। सर्विलांस एब्यूज की जानकारी का वो पहला एक्सपिरिएंस था। और सर्विलांस एब्यूज जैसे मेरा सबसे ज्यादा अहम विषय हो गया था। जहाँ, जिधर जितना पढ़ने, सुनने समझने को मिला, मैंने पढ़ा।
सर्विलांस एब्यूज के खतरे और बड़ी-बड़ी कंपनियों को उसका फायदा या राजनीतिक पार्टियों को कैसे उसका लाभ मिलता है? ये सबसे पहली समझ थी, जो शुरु-शुरु के सालों में समझ आया। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे समझ बढ़ती गई, उससे सर्विलांस एब्यूज और दुनियाँ पे कंट्रोल करने का साधन, जैसा विषय भी समझ आने लगा। ये सिर्फ मानसिक दिवालिएपन वाले लोगों की पोर्नोग्राफी तक सिमित नहीं है। वो तो जैसे बिगड़े हुए टीनेजर्स का टाइम पास टाइप मात्र है, जो न सिर्फ अपना वक्त और ज़िंदगी बर्बाद करते हैं, बल्की जिनको वो अपना टारगेट बनाते हैं, उनकी भी। उससे भी बड़ा सर्विलांस एब्यूज का खतरा वो है, जिसे पूरा समाज झेल रहा है। दिमागों और लोगों की ज़िंदगियों पर कंट्रोल। आज के वक़्त सर्विलांस एब्यूज जैसे विषयों से बच्चों को भी अवगत कराना चाहिए, ताकि वो इसके दुस्प्रभावों से बच सकें। क्यूँकि, ज्यादातर घरों में बच्चे जैसे पैदा होते ही मोबाइल उठा लेते हैं। और जल्दी ही उसका प्रयोग भी करने लगते हैं। मगर उन्हें नहीं पता होता की जो कुछ वो देख या सुन रहे हैं, वो उनके लिए कितना सही या गलत है। हकीकत तो ये है की ये ज्यादातर बड़ों तक को नहीं पता होता, खासकर भारत जैसे देशों में। इस जानकारी के अभाव में आपको अपने आसपास ही कितने शिकार मिल जाएँगे। मगर उन्हें अंदाजा तक नहीं होगा की कुछ घटनाएँ उनकी ज़िंदगी में इस फोन या टीवी या इंटरनेट की देन हैं।
दिमाग कंट्रोल, कोई जादू नहीं है की आप किसी को कुछ देर देखँगे और हो गया सम्मोहन के जैसे। इसके पीछे विज्ञान है। जितनी ज्यादा किसी के बारे में जानकारी, उतना ही ज्यादा गुप्त तरीकों से कंट्रोल आसान। जानकारी इक्कठ्ठा करने के तरीके भी गुप्त और उसका अपने फायदे के लिए दुरुपयोग भी गुप्त। इसका थोड़ा बहुत अंदाज़ा म्हारे बावली बूचाँ के कारनामों से मिल सकता है।
No comments:
Post a Comment