Tuesday, July 29, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 21

Disease of convenience, मतलब? छलकपट? 

एक तरह के media culture में वो vitiligo लिख कर देंगे और दूसरे media culture में उसी को Fungal infection कहते नज़र आएँगे। एक जिसका अभी तक ईलाज नहीं है और दूसरी जो जुकाम सी मौसमी होती है और कुछ वक़्त के ईलाज और ऐतिहात के बाद चली भी जाती है। रौचक? ज़िंदगी और मौत का फर्क इतना-सा होता है? स्वास्थ्य और बीमार होने का फर्क भी इतना-सा ही होता है? और रिश्तों के बने रहने या इधर उधर खिसका देने का भी? दुनियाँ भर का ये राजनीतिक सिस्टम सच में बड़ा रौचक है। कितनी ही किताबें लिखी जा सकती हैं इसपे तो, और कितनी ही डाक्यूमेंट्री बनाई जा सकती है। 

दाद, खाज और खुजली? 

M onkey? 


ज़ालिम (Z?)

Ring Cutter? 
Ring? अखाड़ा? 


इससे आगे पुलिस और ज़मीन के किस्से कहानियाँ?

जानने की कोशिश करें? 
बड़ी ही चालाकी से, बड़ी ही धूर्तता से गूंथे बुने जाले?
कहीं खाटू सेठों के साथ मिलकर? 
तो कहीं?

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 20

Political System and Genetics, इनका आपस में क्या लेना देना है?

हर विषय के कुछ अपने सिद्धांत होते हैं। जिसकी नीँव पर वो विषय आगे बढ़ता है। ऐसा ही जैनेटिक्स के साथ भी है। आनुवंशिकी (Genetics) के अनुसार, आपको अपने बच्चों की शादी अपने घर, परिवार और जहाँ तक हो सके खून के रिश्तों से कहीं दूर करनी चाहिए। नहीं तो जो आनुवंशिक बिमारियाँ उनमें होंगी, वो आपके आगे की पीढ़ियों में जाने की गुँजाइश ज्यादा ही बढ़ जाती है। कैसी-कैसी बिमारियाँ, कैसे-कैसे आगे की पीढ़ियों में जाती हैं, इनके भी आनुवंशिकी के अनुसार कुछ सिद्धांत हैं। 

राजनितिक पार्टियाँ कुर्सियां पाने के लिए किसी भी तरह का अवरोध नहीं रखती। वहाँ सब जायज़ है, बस कुर्सी मिलनी चाहिए। उसके लिए कोई भी रिस्ता वर्जित नहीं है। क्या बाप, बेटी, क्या भाई, बहन, क्या चाचा, भतीजी या मामा, भांजी या माँ, बेटा या दादी, पोता। कोई भी, मतलब, कोई भी। इनके in out को जब समझना शुरु किया, तो यूँ लगा ये लीचड़ खेल क्या रहे हैं? ये लोगों से आसपास ही ऐसे ड्रामें करवा रहे थे या कहो करवा रहे हैं, की यूँ लगे पता नहीं लोगों ने आसपास ही कितनी लुगाई या लोग बनाए हुए हैं? घर बक्सा ना आसपड़ोस। 

या यूँ कहे, की वो आपसे आपकी जानकारी या अज्ञानता में खुद आपको या आपके घर में ही किसी को कोई बीमारी या मौत तो नहीं परोस रहे थे या हैं, ऐसे-ऐसे ड्रामों का हिस्सा बनाकर? क्या ये ड्रामें, कहीं न कहीं आपको मोटापा या पतला होना भी तो नहीं परोस रहे? और कुछ हद तक आपके बच्चों को उनकी कितनी लम्बाई होगी ये भी? इनमें से बहुत कुछ तो आनुवांशिक होता है ना? फिर राजनीतिक सिस्टम ये सब कैसे परोस सकता है? या परोस रहा है? ऐसा कैसे संभव है? आज के सिंथेटिक जहाँ में ये सब संभव ही नहीं बल्की हो रहा है। 

जैसे नशा एक बीमारी है और राजनीतिक सिस्टम की देन है। कोई भी इंसान किसी एक तरह के सिस्टम में नशे करेगा और दूसरी तरह के सिस्टम में नहीं करेगा। किसी भी सिस्टम में आप अपने आप गालियाँ देने लग जाएँगे और किसी सिस्टम में देना तो दूर, बल्की, उनसे नफरत करना सीख जाएँगे। कोई सिस्टम आपको कर्कश कौवा बना देगा और कोई सिस्टम मीठा जैसे कोयल? सिस्टम? राजनीतिक सिस्टम? या सिर्फ माहौल कहें इसे? या media culture? अगर आपको आपकी interactions की खास तरह की सुरंगों की खबर होगी तो ये सब एक ही नजर आएगा। बड़े लोगों या राजनीतिक घरानों या राजनीतिक पार्टियों के वश में कल भी बहुत कुछ था। मगर आज के टेक्नोलॉजी के युग और सर्विलांस एब्यूज ने इसे Human रोबॉटिक्स या कहो की Human Control तक पहुँचा दिया है।    

किसी भी सिस्टम (media culture) में थोड़े से बदलाव करके ही, इन सिस्टमों को बदला जा सकता है। कहीं ये बदलाव आप आसानी से कर पाएँगे और कहीं आपको काफी मेहनत करनी पड़ेगी। निर्भर करता है, की उस सिस्टम का आसपास या राजनीतिक सिस्टम कैसा है, जिसमें आप ये बदलाव करना चाहते हैं?  

इसे आप अपने आसपास के छोटे-छोटे उदाहरणों से ही समझ सकते हैं। किस घर में छोटे बच्चे ही आसानी से पोटी करना सीख जाते हैं? और कहाँ वो ये सब थोड़ा बड़े होकर सीखते हैं? कहाँ बच्चे जल्दी बोलना या चलना सीखते हैं और कहाँ थोड़े बड़े होकर? कहाँ वो अपने छोटे मोटे से काम अपने आप जल्दी करना सीखते हैं और कहाँ थोड़े बड़े होकर। 

ये सब बड़ों पर भी लागू होता है। एक ही घर में एक बच्चा जल्दी आत्मनिर्भर बनता है। जबकि दूसरा, संघर्ष करता नजर आता है। हमारे समाज में लड़कों के केस में खासकर देख सकते हैं। एक, क्या अपने, क्या घर के और बाहर के सब काम आसानी से करता नज़र आता है। दूसरा, ब्लाह जी यो तै पानी का गिलास भी खुद ना लेकै पिया करे। एक ऑफिस भी जाता मिलेगा और घर बाहर के कामों में हाथ बटाटा भी। दूसरा, ब्लाह जी ये काम तै लुगाई-पताईयाँ के होया करें। सब ट्रेनिंग पर निर्भर करता है। बहुत सी ऐसी ट्रेनिंग, एक अपने घर और आसपास से ही सीख जाता है। उसे किसी खास तरह की ट्रेनिंग की जरुरत नहीं पड़ती। सब सोच की वजह से। 

अपने आसपास के ही उदहारण देती हूँ। उन दिनों मैं हॉस्टल से बाहर ही आई थी, और सैक्टर 14 रहती थी। टाँग टूटने की वजह से हॉस्टल में उस तरह का सुप्पोर्ट सिस्टम संभव नहीं था, की आप किसी को साथ रख सकें। या कोई फिजियो के लिए सुबह-स्याम वहाँ आ सके। लेकिन बाहर रहने की अपनी दिक्क़तें भी थी। हॉस्टल की तरह वहाँ आपको बना बनाया खाना तो मिलेगा नहीं। मगर बाहर उसका इंतजाम किया जा सकता था। ऐसे ही जैसे सफाई या कपड़े वैगरह धोने का। या और ऐसे-ऐसे, छोटे-मोटे कामों का। कुक, मेड, दीदी, भांजे, भांजी, भतीजी या यूनिवर्सिटी का या PGI का सर्कल था इस सबके लिए। यहीं के सिस्टम की अगर बात करूँ तो कई बार वीकेंड्स पर दोस्त इक्कठे होते थे। जिनमें जूनियर, बैचमेट, या लैबमेट वगरैह होते थे, जो आसपास ही यूनिवर्सिटी या सैक्टर में रहते थे। खाना बनाने की जब बात होती, तो अक्सर कुछ जूनियर बनाते थे। जिनमें लड़के और लड़की दोनों थे।  

अब अगर इसी वाक्य को अगर मैं अपने गाँव के आसपड़ोस या सिस्टम पर लागू करूँ तो? लुगाई-पताईयों के काम भला कौन लड़का करेगा? चाहे आपको कोई दिक्कत ही हो। फिर ठीक-ठाक होने पर तो ऐसा सोचना भी जैसे गुनाह हो? घर में अगर कोई बहन या भाई हों, तो कौन बनाएगा? बहन, चाहे कितनी भी छोटी क्यों ना हो? या भाई, चाहे कितना भी बड़ा क्यों ना हो? या भाई या भाभी? या दोनों इक्क्ठा मिलकर बना लेंगे? संभव है? शायद ज्यादातर तो यही कहेंगे की बाहर से ले आएँगे या बाहर जाकर खा आएँगे? नहीं तो माँ, चाची, ताई, दादी, बहनें ही करती नजर आएँगी ये काम? या शायद कर भी देंगे तो यो तो लुगाई का गुलाम है कहते बहुत से गँवारुं भी मिल जाएँगे? गाँवों में ना सिर्फ आर्थिक तंगी की बल्की ज्यादातर बिमारियों की, ये सोच भी एक वजह है। कैसे, जानने की कोशिश करेंगे आगे किसी पोस्ट में। 

वैसे कहीं सुना है, की खाना बनाना एक कला है, एक विधा है। इसमें जो जितना निपुण है, वो उतना ही ज्यादा अपने घर को बाँध कर रखता है। फिर क्या पुरुष और क्या औरत। और विधा या कला, लिँग की मोहताज़ नहीं होती। कहीं-कहीं आपको पुरुष, औरतों से ज्यादा अच्छा खाना बनाते मिल जाएँगे। सब ट्रेनिंग पर निर्भर करता है। तो किसी भी काम को लुगाई-पताई या औरत-पुरुष से ना जोड़कर, उसके पीछे छिपी बारिकियों से जोड़कर देखें। उसी काम को अगर रसोई या घर से आगे लैब की घड़ाई तक देखेने समझने लगेँगे, तो आपका और आपके आसपास का स्वास्थ्य या आगे बढ़ना या पीछे रहना ही नहीं, बल्की, वही काम कुछ और ही नज़र आएगा। सत्ता और कुर्सियां उसके आसपास डोलती नज़र आएँगी। बाजार उसके हवाले नज़र आएँगे। बड़ी बड़ी कंपनियाँ तक अपने कर्मचारियों को उस नाम पर जाने कैसी कैसी सुविधाएँ देती नज़र आएँगी। और ये सिर्फ खाने पर ही लागू नहीं होता, बल्की, हर उस काम पर लागू होता है, जिसका आपको abc नहीं पता और जिसे आप छोटा या लुगाई पताई का काम समझते हैं। फिर चाहे वो सफाई या माली का काम ही क्यों न हो।     

माहौल बनाता है, माहौल बिगाड़ता है 

बने हुए कामों को भी 

माहौल आगे बढ़ाता है और माहौल पीछे भी धकेलता है।   

सब निर्भर करता है की आप कैसे माहौल या लोगों के बीच हैं। वो माहौल या सिस्टम आपके अपने घर से शुरू होता है। जहाँ कहीं आप रहते हैं, वहाँ से शुरु होता है। जितना वक़्त आप या आपके बच्चे जहाँ कहीं बिताते हैं, उतना-उतना वो माहौल या सिस्टम या राजनितिक सिस्टम वहीं से बनता है। अब इसमें राजनीती कहाँ से आ गई? पहले मुझे भी नहीं पता था या यहाँ वहाँ जब पढ़ा सुना तो समझ ही नहीं आया, की ये कह क्या रहे हैं? भला राजनीती आपके अपने घर का या आपका अपना माहौल या सिस्टम कैसे बनाती या बिगाड़ती है? जितना आपको ये सब समझ आना शुरु हो जाएगा, उतना ही आपकी और आसपास की ज़िंदगी भी बेहतर होती जाएगी। 

 राजनीती सिस्टम या माहौल या media culture ऐसे है जैसे Disease of convenience. 

Disease of convenience, मतलब? छल कपट। आगे पोस्ट्स में और जानने की कोशिश करेँगे इन सबके बारे में।  

Friday, July 25, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 19

ब्लाह जी इतने शहर या यूनिवर्सिटी के धक्के खाकर आपको समझ क्या आया? कोई फायदा भी हुआ या इन पत्रकारों ने सिर्फ और सिर्फ धक्के ही खिलाए?

पहली बात तो वो किसी पत्रकार ने नहीं  खिलाए। मैं उनके लेख या प्रोग्राम देखती थी और मुझे लगा की जानना चाहिए, ये जो कह रहे हैं वो बला क्या है? इसी दौरान डिपार्टमेंट में भी इसी तरह की पढ़ाई चल रही थी। ज्यादातर स्टूडेंट्स लैब और क्लॉस में जैसे आ ही ड्रामे करने रहे थे। यही नहीं समझ आ रहा था, की कहाँ-कहाँ और किस-किस से और कैसे निपटा जाए? डिपार्टमेंटल मीटिंग के यही हाल थे। कुछ वक़्त बाद इतना समझ आने लगा था, की ये खुद नहीं कर रहे। इनसे राजनीतिक पार्टियाँ करवा रही हैं। 

डिपार्टमेंट और यूनिवर्सिटी के ड्रामों ने एक तरफ जहाँ फाइल्स, सिलेबस, कोर्स और डॉक्युमेंट्स को पढ़ना समझना सिखाया, तो दूसरी तरफ इंस्ट्रूमेंट्स, कैमिकल्स और कुछ हद तक बिल्डिंग्स के आर्किटेक्चर और इंफ्रास्ट्रक्चर को भी। कुछ वक़्त परेशान होने और झक मारने के बाद, जब लगा की कोई नहीं सुन रहा, मैंने ऑफिसियल डॉक्युमेंट्स इक्क्ठे करने शुरु कर दिए। और उन्होंने भी कहा जैसे, ले फाइल बना कितनी बना सकती है। हर कदम पर जैसे, एक नई फाइल सामने थी। उसपे सेहत भी गड़बड़ाने लगी थी। इनमें से कुछ एक फाइल्स ने कोर्ट का रुख भी किया। अब ये लोग मुझ पर उल्टे-सीधे केस लगाने लगे थे। आखिर उन्हें भी अपने प्रोटेक्शन के लिए कुछ चाहिए था। ऑफिसियल डॉक्युमेंट्स को भला कब तक और कैसे झूठलायेंगे? वो भी जब वो पब्लिक के बीच रखे जाने लगे हों? ये अलग दुनियाँ थी मेरे लिए। यहाँ यूँ लग रहा था की वकील वो जीतेगा, जो जितनी ज्यादा झूठ बोलेगा। आपके प्रूफ या तो दरकिनार कर दिए जाएँगे या आपके प्रूफ के ऊप्पर और प्रूफ घड कर रख दिए जाएँगे। जो कोर्ट के चक्कर काटेंगे वो हार जाएँगे, उनसे, जिनके वकील ऐसे लोगों के लिए काम कर रहे होंगे, जिन्होंने कभी कोर्ट ही ना देखें हों।       

यहाँ पर नई दुनियाँ के कोर्ट भी सामने आए, जिन्होंने कहा हम ऑनलाइन हैं। US और भारत के कुछ कोर्ट्स को ऑनलाइन भी देखना समझना शुरु किया। अब ये मामला कुछ ज्यादा ही इंटरेस्टिंग होता जा रहा था। इस इंटरेस्टिंग को आगे किसी पोस्ट में जानने की कोशिश करते हैं। 

अब राजनीतिक पार्टियाँ भी कह रही थी जैसे, की हम भी ऑनलाइन हैं। हमारी पँचायत भी ऑनलाइन है और कुछ समस्याओँ के समाधान भी। चारों तरफ वक़्त के साथ ताल पर ताल मिल रही हो जैसे? राजनीतिक पार्टियों के ड्रामें, थोड़े ज्यादा ही लग रहे थे। मेरा इंट्रेस्ट पढ़ाई-लिखाई के आसपास ही रहा और मैंने ऑनलाइन दुनियाँ भर की यूनिवर्सिटी की सैर करनी शुरु कर दी, किसी खास उद्देश्य से। ये ज्यादा सही रहा। यहाँ पे ना सिर्फ आप पढ़ाई लिखाई से जुड़े रह पा रहे हैं, बल्की, वक़्त भी ऐसी जगह लगा रहे हैं, जहाँ कुछ न कुछ अपनी रुची के अनुसार है। यहाँ तक पहुँच गए, तो कहीं न कहीं रस्ता भी मिल ही जाएगा। राह के रोड़े कब तक राह रोके खड़े रहेँगे? अनचाहे केसों और ड्रामों की फाइल्स कम होने लगी हैं। ऐसी पुरानी फाइलों की छटनी कर उन्हें बुकलेट्स की फॉर्म दे दी है या दी जा रही है। बायो फिर से फ़ोकस है, एक ऐसे interdesciplinary topic के साथ, की कहो किधर फेंकोगे? या घपले कर रस्ते मोड़ने-तोड़ने की कोशिश करोगे? ये विषय दुनियाँ के हर कोने में और हर जगह है। इसको ना तुम छीन कर इसका क्रेडिट अपने नाम कर सकते, और ना ही इसका रास्ता रोक कर खड़े हो सकते।  

जहाँ कहीं ज़िंदगी है, वहीँ ये है, Impact of system (political) on life. My focus is especially on human life. 

तो A से Z तक का सफर? 26 शब्द मात्र? जैसे ABCD of Views and Counterviews? बोले तो इतने सारे शब्द और उनके उससे भी कहीं ज्यादा जोड़तोड़, ज्यादा ही कॉम्प्लेक्स है ना? किसी ने कहा, तो simple कर लो and be silenced?     

Interesting?    

Wednesday, July 23, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 18

 Release my saving to this day happenings

वो कौन से इलेक्शन थे, जब MDU Finnace Officer ने बोला था की अभी इलेक्शंस चल रहे हैं, वहाँ व्यस्त हैं? रितु की मौत के आसपास कौन से इलेक्शंस चल रहे थे? 

उसके बाद से क्या चल रहा है? इलेक्शन ही चल रहे हैं। कभी ये राज्य और कभी वो राज्य और कभी लोकसभा? क्या बकवास है ये? 

बिहार इलेक्शंस?

बिहार के इलेक्शंस की preparation में बिहारी लोग हरि याना (?) के खेतों में धान उगाने आते हैं शायद? बारिश बहुत अच्छी होती है? और ये बिहार डूबता कब-कब है? बिहार या हरियाना या पंजाब? या दिल्ली? या असम? ये साँग अपनी तो समझ से बाहर है। कुछ ज्यादा ही काम्प्लेक्स नहीं है? पॉलिटिकल पंडित क्या-क्या पढ़ते होंगे? जबसे रितु गई है, तबसे ही कहीं न कहीं इलेक्शंस चल रहे हैं। क्यों, पहले नहीं होते थे वो? होते होंगे, मगर मेरे forms के साथ शायद तब इतना घपला नहीं होता था। या शायद होता भी होगा, तो मुझे इतनी खबर नहीं थी। थोड़ी बहुत ही थी। एक बायो का इंसान कहाँ-कहाँ निपटे? पहले spelling mistakes इधर उधर, फिर शब्दों की हेरा फेरी। फिर कलाकारों ने emails के attachment ही बदल डाले। आपको पता ही ना चले की क्या का क्या हो रहा है? एक ऐसी ही हेराफेरी के बाद ही कोई plane crash हुआ था। जैसे कह रहे हों, की अब भी पकड़ना चाहोगे कोई फ्लाइट? थोड़ा रुककर आपने कहीं और भर दिया form । पता नहीं कैसी-कैसी चिड़िया दिखा रहे हैं और कैसे-कैसे एक्टिव, इनएक्टिव :( 

उससे भी बड़ी हद तो जब हो गई, जब कहीं और अप्लाई करने की सोची। सिर्फ सोची? हाँ, मैं कई पोस्ट्स पर टिक मार्क लगाकर एक फ़ोल्डर बना देती हूँ कहीं। और इन कलाकारों को पता होता है की इनमें से ही किसी पे अप्लाई करेगी। किसी पोस्ट पर मुझे लगा की मैंने अप्लाई ही नहीं किया। और ये क्या? इन कलाकारों ने अप्लाई दिखा दिया? ये तो जब न्यूज़ चली की फॉर्म अपने आप भरे जा रहे हैं और उनमें ऐसा-ऐसा हो रहा है सुना, तब दिमाग की बत्ती ने काम किया। अच्छा? डाउनलोड तो कर इन्होने वहाँ CV या Cover लैटर के नाम पर भरा क्या है? उफ़। किसी स्कूल में चपड़ासी की भी पोस्ट ना मिले। 

फिर सोचा चल तब तक आसपास ही कहीं प्रोजेक्ट ले ले। वो तो मिल ही जाएगा। लो जी। लेकर तो दिखाओ। वो वेबसाइट ही नहीं खुलने दे रहे। या उलटी पुलटी तारीख दिखा रहे हैं। कौन-सी दुनियाँ है ये? जो नौकरी थी, ना वो करने दी। ना कहीं सेलेक्ट होने देंगे। और ना ही खुद का कोई काम करने देंगे। ऐसे तो कब तक जियेगा कोई? गुंडागर्दी की सब हदें, सब सीमाएँ पार। 

इन्हीं को इलेक्शंस कहते हैं क्या? अगर हाँ, तो खुल के बात करो। क्यों कोढ़ म कोढ़ लगे हुए हो और जनता का भी फद्दू काट रहे हो? अरे नितीश बाबू, प्रशांत जी ये आपके राज्य में चल क्या रहा है?   

इस सबसे कोई बीमारी भी निकलती है क्या? कुछ भी? ये 2020 में फिजियोलॉजी में नोबल प्राइज किसे मिला था? कौन सी यूनिवर्सिटी? कहाँ?    

कौन सी बीमारी?

Hepatitus C और Liver का आपस में कोई लेना-देना है? और जिसको उस दिन कोई बीमारी बताई, उसका? उफ़। कौन-सी दुनियाँ है?

कहाँ का कहाँ, क्या कुछ मिलता जुलता सा है? पहले भी यहाँ-वहाँ के इलेक्शंस में ऐसा-सा ही कुछ चलता बताया? हमारी भोली-भाली जनता को इस सबको समझने की जरुरत है। 

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 17

 A visit to my village hospital after years rather must say few decades.  

गाँव का ये छोटा-सा हॉस्पिटल, इससे कुछ ख़ास किस्म का नाता रहा है शायद? बचपन की कुछ यादें जुड़ी हैं इससे। यहाँ मेरी एक दोस्त रहती थी। गाँव का हॉस्पिटल, उन दिनों कितना छोटा होता होगा ना? नहीं, शायद उस वक़्त के हिसाब से भी ठीक-ठाक ही था। मगर वो तब इस जगह नहीं था। हाँ डॉक्टर का घर जरुर यहीं कहीं होता था। 

तब रोहतक या PGI की कोई खबर नहीं थी। पता ही नहीं था, की वो बला क्या हैं। 1987-88 शायद? यही कोई 10-11 साल की रही होंगी। आपमें से बहुत से ये ब्लॉग पढ़ने वाले तो पैदा ही नहीं हुए होंगे? मैं खुद पाँचवी क्लॉस में थी। नया-नया सरकारी स्कूल जाना शुरु किया था। शर्ट और निक्कर में, वो भी गाँव के सरकारी स्कूल? बच्ची कितनी ही छोटी हो, उसे तो कमीज और सलवार ही पहनने चाहिएँ, ये वो दौर था। बाल बड़े होने चाहिएँ। छोटे बालों वाली को उस वक़्त परकटी बोलते थे, कुछ ताई, दादी। खैर, अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी, उसपे पहला ही साल था सरकारी स्कूल का। प्राइवेट स्कूल के नाम पर उन दिनों मदीना में शायद एक ही स्कूल होता था, उसे टुण्डे का स्कूल बोलते थे। उन दादा का नाम आज तक नहीं पता मुझे। मतलब, स्कूल का कोई नाम ही नहीं था? आज तक नहीं पता। अंग्रेजी पढ़ाई के नाम पर, 4th या 5th में abcd सीखा देते थे :) बहुत था शायद?  

खैर, 5th में जब सरकारी स्कूल जाना शुरु किया, तो जाते ही क्लास मॉनिटर बन गई थी। अंधों में काना राजा जैसे? मगर मेरे उस स्कूल के जाने के साथ-साथ ही, एक और लड़की आ गई थी, प्रतीक्षा, गाँव के हॉस्पिटल के डॉक्टर की लड़की। पहले दिन से ही हमारी पटनी शुरु हो गई थी। एक-आध बार, मैं उसे अपने घर ले आती थी। और एक आध बार वो मुझे अपने घर। उसका घर बहुत बड़ा था। घर तो मेरा भी बड़ा था। उन दिनो शायद ज्यादातर घर बड़े ही होते थे। मगर उसका कुछ ज्यादा बड़ा था। खासकर, उनके घर के बाहर का खेलने का एरिया। जहाँ हम हो-हल्ला करते हुए अक्सर छुपम-छुपाई खेलते थे। आज जहाँ गाँव का नया हॉस्पिटल है, उसका घर वहीँ कहीं था शायद। उस ईमारत को अंग्रेजों के दिनों में बनी कोई ईमारत बोलते थे, जहाँ अक्सर अंग्रेज ऑफिसर रहते थे। अब गाँव की ये जगह पहचान ही नहीं आती। बहुत बार इसके बाहर से जरुर निकली, मगर इतने सालों में कभी इसके अंदर जाना नहीं हुआ। वो लोग कम ही वक़्त यहाँ गाँव में रुके थे। उसके पापा की ट्रांस्फर फिर कहीं और हो गई थी। और उसके बाद उसके बारे में कोई खबर नहीं रही। हाँ। प्रतीक्षा नाम से आगे भी दो दोस्त या क्लासमेट जरुर रही। जो जाने क्यों कभी कभार ये याद दिला देती थी, की गाँव में भी इस नाम से, बचपन में एक लड़की मेरी दोस्त होती थी। एक अपने परिवार के साथ USA में  रहती है और एक दिल्ली। दिल्ली वाली तो है ही, घर-कुनबे से भांजी। यमुनानगर वाली pen friend बनी थी, एक दोस्त की दोस्त होती थी। कुछ वक़्त वो दिल्ली रही और वहीँ से फिर USA गई। और दिल्ली वाली MSc. क्लासमेट और hostelmate भी। गाँव का वो पुराना पोस्ट ऑफिस, दो तीन ऐसी दोस्तों के पत्र लाता था। हाँ, scribbling काफी पहले शुरु कर दी थी। शायद दादा जी के पत्र पढ़ते-पढ़ते ही। कॉलेज सर्कल यूँ लगता है, कहीं न कहीं, उसी एक्सटेंशन जैसा-सा था। अब इतने सारे किस्से कहानी सुनकर ऐसा ही लगता है।    

अब के गाँव के इस हॉस्पिटल में और तब के हॉस्पिटल में फर्क क्या है? पहले वाला शायद इससे सुंदर था। उस वक़्त के हिसाब से बड़ा भी था। आज के वक़्त के हिसाब से, ये बहुत छोटा है। ये शायद ये भी बताता है, की वक़्त और जनसँख्या के हिसाब से गाँवों में सुविधाएँ उतनी नहीं बढ़ी हैं, जितनी बढ़नी चाहिएँ थी। जितना ये है, इतने से हॉस्पिटल तो हर गाँव में होने चाहिएँ। बड़े गाँवों में, थोड़े बड़े हॉस्पिटल होने चाहिएँ। अगर गाँवों की बेसिक सुविधाएँ इतनी भी हों जाएँ, तो शहरों के हॉस्पिटल्स में या PGI जैसे हॉस्पिटल में जो भीड़ रहती है, उसे काफी हद तक कम किया जा सकता है। ये पोस्ट पड़ोस वाली दादी की सौगात है। अगर वो अपने साथ चलने को ना कहते, तो ये पोस्ट भी कहाँ होती?    

ऐसी सी ही एक पोस्ट, किसी दिन गाँव के स्कूल पर, फिर कभी। बचपन का वो स्कूल? वैसे सरकारी स्कूलों में alumni meet क्यों नहीं होती? शायद उससे इन स्कूलों के कुछ हालात थोड़े बेहतर हो जाएँ? वैसे, आसपास से ही किसी ने लड़कियों के सरकारी स्कूल जाने का कोई खास तरह का विजिट ऑफर दिया था। मगर जाने क्यों मुझे लगा, की वो किसी खास पार्टी की तरफ से था। और मैं राजनीती से कुछ कदम दूर ही रहना चाहती हूँ। कम से कम इतनी दूरी तो होनी ही चाहिए, की आप बिना किसी भेदभाव या हिचक के किसी भी पार्टी के गलत या सही पर लिख सकें। जो कोई अपने आपको लिखाई पढ़ाई के क्षेत्र में आगे बढ़ाना चाहता है, उसके लिए जरुरी भी है। मेरा मानना है की बचपन के स्कूल का किसी भी तरह का विजिट, ऑफिशियली स्कूल की तरफ से ही हो, तो ही अच्छा लगता है। उसके बाद स्कूल के वक़्त की कुछ और दोस्तों से मिलना भी हुआ। फिर से सालों, दशकों बाद, उनकी ज़िंदगी के उतार-चढाव जानकर लगा, जैसे, सबकुछ कहीं न कहीं पुराने से, जाने क्यों, किसी न किसी रुप में मिलता जुलता-सा है? जो किसी भी क्षेत्र की राजनीती और सिस्टम के बारे में काफी कुछ बताता है। शायद अभी इन जोड़तोड़ के किस्से कहानियों के बारे में काफी कुछ जानने की जरुरत है?  

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 16

EC से पिंक स्लिप आपको ईनाम के रुप में मिल गई? और आपको उसका मतलब तक पता नहीं चला? कितने भोले हैं आप? कोढों वालों की बेहुदगियों को और कहाँ-कहाँ झेलेंगे? EC से resignation एक्सेप्ट होने के बाद क्या होना चाहिए था? आपको अपना पैसा मिल जाना चाहिए था? यही ?

अरे नहीं खेल अभी बाकी है। 

अभी वो अपने कालिख से जुए के धंधे के आगे वाले स्वरुप से नहीं अवगत कराएँगे? तो वो आगे का खेल शुरु होता है। वो कहते हैं की हमने ऐसे सिस्टम बनाए हैं, जिनमें पैसा अपने आप आगे बढ़ता है। हमें कुछ नहीं करना पड़ता। ज़मीनी धंधा उनमें से एक है। धंधे के इस बेहूदा लोगों ने औरतों को ही प्रॉपर्टी घोषित कर दिया है। औरतें ही क्यों? पुरुष भी शायद? वेश्याव्रती के इस धंधे में, क्या अनपढ़ और क्या पढ़ी लिखी औरतें, सबको एक लाठी से हाँकने का चलन है। क्यूँकि, इनके धंधे के अनुसार आप एक इंसान नहीं है, प्रॉपर्टी हैं। और प्रॉपर्टी पर तो मारकाट मचती है? 2018 में जब कुछ पत्रकार खुलमखुला ऐसा लिख रहे थे, तो सबकुछ जैसे दिमाग के ऊप्पर से जा रहा था, की ये दुनियाँ कौन-सी है? और कहाँ है, जिसकी ये बात कर रहे हैं? उन्हीं में से कुछ एक ने बताया था की ये कोढ की दुनियाँ है और इसके जाले सारी दुनियाँ में फ़ैले हुए हैं। खासकर, उस so called साइकोलॉजी वाले ड्रामे के बाद, किसी सैर सपाटे से, जब चिड़ियाँ कहीं से फुर्र हो गई थी। कुछ लोगों के इशारों के बाद ही हुआ था ऐसा। 

EC के बाद ED आता है? ED कहाँ-कहाँ आता है? ED और शिक्षा का धंधा? इनका आपस में क्या लेना-देना है? आगे किसी पोस्ट में जानने की कोशिश करेंगे। 
       

इसी दौरान उन्हीं कोढों को जानने के लिए, मैंने कुछ बंद लैबों, साथ वाले बँध घर (29), रोड़ों, उनपे लिखे शब्दों या नम्बरों और ऑफिसों की खाख छाननी शुरु कर दी थी। इस खाख में रोहतक के कुछ ऐसे कोने भी थे, जहाँ मैं पहले कभी नहीं गई। या जिनके बारे में पता तक नहीं था, की ऐसा कुछ भी रोहतक में है। कुछ ऐसे पूल, जिनका मुझे पहले कोई अत्ता पता ही नहीं था। जैसे रोहतक इंडस्ट्रियल टाउन, जिसके पास से कितनी ही बार निकली होंगी, मगर कभी ध्यान ही नहीं दिया, की ये बला क्या है? सैक्टर 22, रोहतक में ऐसा कोई सैक्टर भी है? शिव कॉलोनी और आसपास का गन्दा-सा एरिया। ये भगवानों के नाम पर बनी इमारतों या जगहों पे इतना गंद क्यों होता है? और भी कुछ ऐसी-सी ही जगहें। जैसे SUPVA, आखिर ये बला क्या है? खुद अपनी यूनिवर्सिटी में शायद ही ऐसी कोई जगह छोड़ी हो, जहाँ मैं ना गई हों। जिस किसी बहाने या बस ऐसे ही घूमने। बस ऐसे ही? नहीं। शायद उन जगहों के बारे में कहीं न कहीं आर्टिकल्स में कुछ आ रहा था। 

इस सबको बताने समझाने में शायद कुछ एक लोगों का अहम रोल था, खासकर पत्रकारिता के क्षेत्र से। ऐसा भी नहीं है की मैं उन्हें कोई खास पसंद करती थी। मगर, उनके लेखों या प्रोग्रामों में कुछ तो खास होता था, जो अपनी तरफ खिंचता था? शायद कुछ ऐसी जानकारी, जो आपको और कहीं नहीं मिलती थी। थी क्यों? अब कहाँ गए वो लोग? सुना या पढ़ा था, की उन्हें कोरोना काल खा गया। कोरोना काल या उनके घोर विरोधी? जिन्हें उनकी वजह से कहीं न कहीं शायद नीचा देखना पड़ रहा था? इन कुछ खास लोगों को हार्ट अटैक हुआ था? मगर कैसे? वो भी शायद कुछ एक पत्रकारों को ही ज्यादा पता हो? लोगबाग क्यों नहीं खुलकर बात करना चाहते इन सबके बारे में? मरने से किसे डर नहीं लगता, वो भी सच उगलने पर बिन आई मौत जैसे?  

Toxicology, Bio-Chemical Terror और ऐसे-ऐसे विषय जाने कहाँ से आ गए थे? जिनके बारे में पहले बहुत कम या ना के बराबर जानकारी थी। आप जानते हैं, इन विषयों पर कहाँ-कहाँ काम हो रहा है? या ऐसे-ऐसे सँस्थान कहाँ-कहाँ हैं? और वहाँ का फोकस एरिया क्या है? जानने की कोशिश करें, शायद बहुत कुछ समझ आएगा। 

Monday, July 21, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 15

आप एक ऐसे सिस्टम का हिस्सा है या उसे झेल रहे हैं, जिसके पास लाखों, करोड़ों रूपए कृत्रिम बारिश, बाढ़ या गर्मी बरसाने के लिए जैसे फालतू पड़े हुए हैं? क्यूँकि, उस सिस्टम को या वहाँ की जुआरी राजनीती को, कुर्सियाँ पाने के लिए hype घड़ने हैं? या फिर छल कपट (manipulation), कहीं कहीं तो हद से ज्यादा छल कपट वाले तथ्य पेश करने हैं? छल कपट में हकीकत को जानना पहचाना कितना आसान या मुश्किल होगा, ये इस पर निर्भर करता है, की आपको कितना ऐसे लोगों के छल कपट वाले तरीकों का पता है? 

Interactions और किस्से कहानियों से ये बड़े सही से समझ आता है। जैसे अगर दो गाड़ियों और किसी खास वक़्त या तारीख को उनकी पोजीशन की ही बात करें? उस नौटँकी को घड़ने वालों के अनुसार, वहाँ भविष्य क्या है? जीरो या ख़त्म? या इससे आगे भी कुछ बचता है? रायगढ़ दरबार में आपका स्वागत है? या रायसीना हिल्स? या? अब इस या का जवाब आपको पता होना चाहिए, जिन्हें अपना या अपने आसपास का भविष्य घड़ना है? या उसे कोई रास्ता दिखाना है? या जीरो या ख़त्म कहने वालों या घड़ने की कोशिश करने वालों पर छोड़ देना है?  

मैंने यहाँ दो तरह के लोग देखे हैं। एक जिनके बच्चे नालायक, महानालायक। वो जिन्हें कहते हैं, की मेरा बेटा तै पानी का गिलास भी खुद लेके ना पीवै, जैसे ये उनकी तारीफ हो?  बुरे से बुरे जुर्मों के रचयिता और भुक्त भोगी भी, जिन्होंने हत्या जैसे केसों तक में जेल भुक्ति हो या भुगत रहे हों। मगर फिर भी उनके तारीफ़ के पूल बाँधते मिलेंगे। ऐसे गा रहे होंगे जैसे उनका भविष्य तो बहुत उज्जवल है। 

दूसरे, ऐसे आसपास को देखते हुए जिनके बच्चे हज़ार गुना अच्छे हों, मगर उन बेचारों को कभी उनमें कोई अच्छाई नज़र ही नहीं आती? ऐसे रो रहे होंगे जैसे इनका तो भविष्य ही ख़त्म। 

ये narratives कहीं न कहीं दिशा निर्धारित करने का काम करते हैं। खासकर, जब ऐसा सुनने के आदि बच्चे, ये सब मानना शुरू कर दें। किसी भी तथ्य या छल कपट तक की घड़ाई को मान लेना या लगातार सुनते रहना दिमाग पर असर छोड़ता है। अब वो असर कितना नगण्य या ठोस है, ये उसको मानने या न मानने वाले पर निर्भर करता है। 

तो अगर आप अपने बच्चों या आसपास को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं तो उन्हें वही बोलें, जो उनके आगे बढ़ने या बढ़ाने में सहायक हो। नहीं तो जाने अंजाने आप खुद उनके जीवन का एक रोड़ा हैं। कोई भी माहौल यही काम करता है। वो या तो आगे बढ़ाता है या पीछे धकेलता है। माहौल या संगत को ऐसे ही नहीं गाते समझदार लोग। आपके ना चाहते हुए भी अगर आपके आसपास काँटे ही काँटे हों या काँटों भरे पथ पर चल रहे हैं और उनसे सुरक्षा का कोई इंतजाम आपने नहीं किया हुआ, तो काँटों का काम है चुभना और वो चुभेंगे। जैसे फूलों के पथ पर अगर नंगे पाँव भी चल दोगे, तो वो कोई दर्द नहीं देने वाले। मगर ऐसा काँटों वाले पथ पर करोगे, तो लहू लुहान हो जाओगे। हर तरह के माहौल का अपना असर होता है, जिसे वो अपने आसपास परोसे बिना नहीं रहता।  जुबाँ भी उसी में से एक है। वो कुछ नैरेटिव कहती है। और उन नैरेटिव के अपनी ही तरह के असर होते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ माहौल भी घड़ती हैं और नैरेटिव भी। उनके नंबरों के जितने ज्यादा दाँव आपके आसपास हों, वो उतना ही ज्यादा बुरा या भला घड़ती हैं। उनके बूरे प्रभावों से बचने के तरीकों में अहम है, उनको ज्यादा से ज्यादा जानना और बुरे से बचने के रस्ते निकलना।              

Climate change, Environment changes या manipulations? किनके पैसों से होता है? आपकी जानकारी या इज्जाजत के बिना, ऐसा करने वालों के खिलाफ कौन से कोर्ट हैं? हैं क्या कहीं? खासकर, किसी भी देश की सरकार या राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ? शायद अभी तक तो नहीं? होने नहीं चाहिएँ? ये आगे किसी पोस्ट में।  

ऐसे ही शायद सिंथेटिक बिमारियाँ और मौतें तक परोसने वालों के खिलाफ। नहीं?          

Sunday, July 20, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 14

 ज्यादा 5, 7 मत कर, 9, 2, 11 कर दूँगी। पढ़ा था कहीं?

और फिर ये मूवी जाने कहाँ से यूट्यूब पर आ टपकी। 

देखी थी मैंने?



पता नहीं कहाँ कैसे और किन लोगों के झगड़े, आपकी ज़िंदगी को भी लपेटते जाते हैं? होता है ऐसे, आम लोगों के साथ भी? शायद? जैसे साँड़ों के बीच में झाड़। और जाने कौन लोग या कौन, कौन आपकी ज़िंदगी की ठेकेदारी लेने लगते हैं? जिम्मेदारी और ठेकेदारी में इतना ही अंतर होता है, जितना दिन और रात में? इस लड़ाई में लगे लोगों का अहम टारगेट लड़कियाँ होती हैं? इधर भी और उधर भी? जाने कौन, किसको अपने भाई या दोस्त के लिए पसंद है और कौन, किसको कहाँ फिट करना चाहते हैं या कहीं और धकेलना चाहते हैं? कुछ लड़कियाँ वक़्त रहते इन भद्दे जालों से निकल पाती हैं। और कुछ? वक़्त के साथ, ज्यादा और ज्यादा शिकार। ऐसा क्यों? पढ़ी, लिखे और समझदार आसपास का और कम पढ़े लिखे, ज्यादातर गाँव तक सिमित आसपास का बहुत फर्क होता है? पढ़े लिखे लोग, उन लड़कियों को साथ लेकर चलते हैं। लड़कियों के निर्णयों का सम्मान करते हैं और हर कदम पर उनके साथ खड़े होते हैं। कम पढ़े लिखे, ज्यादातर गाँव तक सिमित लोगों के यहाँ इसका उल्टा होता है। वहाँ इन so called अपनों को बीच में इसलिए लिया जाता है, ताकी अपने टारगेट का सफाया आसानी से किया जा सके। तरीके जिसके हज़ारों हैं। छुपम छुपाई खेलना उसका अहम हिस्सा है। उसपे कहीं इन लोगों को कुत्तों के टुकड़ों की तरह लालच के छोटे-मोटे टुकड़े डाले जाते हैं, तो कहीं, किन्हीं तरह के दबाव या डर दिए जाते हैं। सबसे बड़ी बात, इन आसपास वालों को बीच में कब लिया जाता है? सालों, दशकों बाद, जब कोई लड़की इन कांड़ों को पब्लिक करने लगती है।            

2010 में कोई काँड होता है, जिसे ऑफिसियल भागीदारी का काँड बोलते हैं? ऑफिसियल भागीदारी? उस जगह भी, जहाँ कोई लड़की पढ़ाती है? और किन्हीं कोर्ट्स या सुप्रीम कोर्ट की भी? ये सब खुद उस लड़की को तब पता चलने लगता है, जब राजनितिक पार्टियाँ एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए, एक दूसरे के काँड बाहर निकालती हैं। वो लड़की जब प्रश्न करने लगती है, तो कहीं से ठोस डॉक्युमेंट्स मिलते हैं और कहीं लोग भगौडे होने लगने हैं। कुछ उन डॉक्युमेंट्स को किसी भी कीमत पर बाहर नहीं आने देना चाहते। कुछ उन डॉक्युमेंट्स को, जो पब्लिक होने चाहिए, पब्लिक करने वालों की जान के दुश्मन हो जाते हैं। 

ऐसा क्या है, उन डॉक्युमेंट्स में? हमारे समाज का, उसकी भद्दी राजनीती का और उनके बनाए सिस्टम की पोलखोल का काम हैं वो डॉक्युमेंट्स। जो कहीं न कहीं इसका ठोस सबूत हैं, की जन्म से लेकर मर्त्यु तक, कैसे बड़ी-बड़ी कंपनियों और राजनीतिक पार्टियों ने लोगों को जुए में धकेला हुआ है। जिसमें गोटी के जैसे, हर इंसान पर दाँव है, वो आम इंसान तक, चाहे जिसके पास ज़िंदगी को जीने के लिए आम सी सुविधाएँ तक ना हों। यही सिस्टम और राजनितिक पार्टियाँ उस आम इंसान तक को बिमारियों और मौतों तक धकेल रहा है। आपके भगवानों के जैसे कह रहा हो जैसे, चलो अगला नंबर तुम्हारा। क्यूँकि, तरह तरह के भगवान भी यही राजनीतिक पार्टियाँ और बड़ी बड़ी कम्पनियाँ घड रही है।  

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 13

कोई और किस्सा कहानी बाद में। 

मगर उससे पहले, थोड़ा बुजर्गों के हालातों पर बात हो जाए?

कुछ तो मजबूरियाँ होंगी की उम्र के इस पड़ाव पर बच्चे उन माँ बाप को अकेला अपने हाल पर छोड़ देते हैं, जिनकी उँगलियाँ पकड़कर वो चलना सीखते हैं? कुछ केसों में तो कई बार यकीन तक करना मुश्किल होता है की वो? वो तो ऐसा नहीं कर सकते। 

बहुतों के पास शायद गाँवों में अपने घर होते हैं और वो शहरों में अपने ही बच्चों के घरों में बेघर से रहने की बजाय, शायद अपने ही घर में वापस आना पसंद करते हैं? वजह जो कोई भी हों, इस उम्र में तो कम से कम, कोई न कोई सुप्पोर्ट सिस्टम तो चाहिए। इस उम्र में एक तो शरीर साथ नहीं देता, तो छोटी मोटी सी बिमारियाँ तो जैसे लगी ही रहती हैं। उसपे अक्सर हमारे यहाँ बुजर्गों के पास कोई व्हीकल भी नहीं होता। तो बहुत मुश्किल है क्या की सिविल हॉस्पिटल से कोई डॉक्टर ऐसे लोगों के घरों पर विजिट कर जाएँ? हफ्ते में, दो हफ्ते में या महीने में ही सही? जिन्हें ज्यादा दिक़्क़त हो, उनके लिए कोई फ्री एम्बुलेंस सर्विस? हरियाणा जैसा राज्य तो फिर इतना गरीब भी नहीं की सरकार के लिए इतना सा करना बहुत मुश्किल हो? हाँ, कुछ बुजुर्ग गाँवों में खासकर, इतने गरीब हो सकते हैं की उन्हें अगर इतनी सी भी सुविधाएँ मिल जाएँ, तो उनकी ज़िंदगी का ये सफ़र थोड़ा कम मुश्किल हो सकता है।               

Saturday, July 19, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 12

 18-07-2025

चलो कोई सीन घड़ते हैं 

नहीं 

उससे पहले थोड़ा ऑनलाइन इंटरेक्शन्स की तरफ देखते हैं 

आपको कोई हकीकत की ज़िंदगी का सीन देखकर, जाने क्यों किसी गाने के कोई बोल याद आते हैं, खम्बे जैसी खड़ी है, लड़की है या छड़ी है? कौन-सा गाना है ये? अजीब-सा है शायद कोई काफी पुराना, यही सोचते-सोचते आप youtube खोलते हैं। और जाने क्यों किसी और ही विडियो पर आपकी निगाह टिक जाती हैं। पहले ये देखते हैं, क्या बला है?     



The Odyssey 2026

Release date 17 July, 2026

मुझे ढिशूम-ढिशूम या ज्यादा हिंसा वाली मूवी पसंद नहीं आती। तो क्या बकवास है ये? पानी, आग, पथ्थर, अजीबोगरीब हथियार और मारकाट? छोड़ो। 

चलो कोई सीन घड़ते हैं 

एक तरफ काली थार HR 000 और 4 नंबर पे? चलो रख लो कोई खास नंबर। एक बुजुर्ग औरत के घर के बाहर खड़ी है। और उसमें कोई नौजवान बैठा है। शायद किसी का इंतजार कर रहा है। गाडी के आगे कोई बिजली का खम्बा है और साथ वाले घर की खिड़कियाँ एक साइड। 

दूसरी तरफ एक और गाडी खड़ी है। डिफेंस का या शायद हरा सा रंग DL 9C? फिर से एक बुजुर्ग के घर के बाहर। हालाँकि उतनी बुजुर्ग नहीं, जितनी दूसरी बुजुर्ग औरत। इसमें कोई नहीं है। मगर, इसके आगे भी एक बिजली का खम्बा है।  

दोनों औरतें अपने-अपने घरों पे अकेली रहती हैं। क्यों?

जो थोड़े ज्यादा बुजुर्ग हैं, उनके 5 बच्चे हैं। एक लड़की, सबसे छोटी शायद। और चार लड़के। सब आसपास के शहरों में ही रहते हैं। मगर कभी-कभार सिर्फ लड़की ही आती है शायद, उनसे मिलने। एक आध बार शायद उनका एक लड़का भी।    

दूसरी बुजुर्ग औरत का एक ही लड़का था। वो शायद से बुखार बिगड़ने की वजह से नहीं रहा, काफी साल पहले। इन दोनों गाड़ियों के बीच में दो घर हैं। एक रोड पर ही। और दूसरे घर की गली जाती है अंदर की तरफ। इसी रोड वाले घर के पीछे है वो घर। एक लड़की इन गाड़ियों को बड़े ध्यान से निहारते हुए घर के अन्दर जाती है। थोड़ी-थोड़ी बारिश आ रही है, जो जल्दी ही तेज हो जाती है। और ऐसे लग रहा है, जैसे, किसी हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा हो रही हो। जैसे पिछे दुबई की आर्टिफीसियल बारिश। एक आध मिनट बाद ही अंदर से बाहर कुछ लोग आते हैं। एक, काली थार में बैठ कर चले जाते हैं। और एक उस हरी-सी गाडी में। बाकी वापस घर के अंदर। 

ऐसे लग रहा था, जैसे, एक तरफ उन बुजुर्गों ने गाड़ियों को बाहर कर दिया हो? और दूसरी तरफ? गाड़ियों वालों ने या राजनितिक सिस्टम ने उन बुजुर्गों को अकेला? एक के तो कोई बच्चा नहीं है। मगर, जिनके चार-चार लड़के हों, वहाँ क्या कहा जाए?    

हर किसी की ज़िंदगी में शायद अपनी ही किस्म के झमेले हैं। तो अपने ही माँ या बाप के लिए वक़्त कहाँ होगा? या हो भी तो शायद, पीढ़ियों की दूरी होगी? Generation Gap? या शायद हर घर की अपनी ही कहानी है। मगर ये कहानियाँ जाने क्यों, ऊपर से तो किसी सिस्टम के कोढ़ में रची बसी सी लगती हैं? या सब Random है?

ओह ! भूल ही गई। सालों बाद किसी को उस घर पर देखा। या शायद उस घर के 2 हिस्से होने के बाद, पहली बार? ऐसे कैसे? जिससे मिलने आना था, उसके तो आते ही चल दिए? क्यूँकि, जवाब नहीं हैं, उसके सवालों के? पिछले कुछ सालों के हादसे कह रहे हैं, की जहाँ कहीं मुझसे छुपम-छुपाई या मुझे बाहर रख उस घर में कोई अहम फैसला हुआ है, तभी काँड हुए हैं। 

तुम्हे क्या लगता है, तुम मेरे बैगर उस ज़मीन का फैसला कर सकते हो? ये कोर्ट्स के लिए। ऐसे कोर्ट्स, जिन्होंने लड़कियों को महज़ प्रॉपर्टी बना कर मरने के लिए छोड़ है। पढ़ी लिखी यूनिवर्सिटी में नौकरी करने वाली वयस्क लड़कियों के एकाउंट्स तक कोई और ही, उनकी मर्जी के बिना, नही, विरोध के बावजूद कहना चाहिए, अपने ही हिसाब-किताब की सुविधा अनुसार ईधर-उधर कर रहे हैं ? अरे, सिर्फ लड़कियों के ही नहीं। लड़कों के भी, अगर वो किसी भी तरह से कमजोर पड़ रहे हैं। लूटो, खसूटो और चलता कर दो दुनियाँ से? बहाने तुम्हारे जैसे आदमखोरों के पास हज़ारों हैं। अब ये भी आप में से ही कुछ बताते हैं, वो भी अजीबोगरीब साक्ष्यों के साथ?

चलो, थोड़ा और समझने के लिए कोई और, हकीकत की दुनियाँ की कहानी सुनते हैं।  

Tuesday, July 15, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 11

 तेरा )13) के बाद ग्यारा (11)? 

आता है क्या?

बिल्ली मौसी कन्फू सिया गए हैं क्या?

बिहार इलेक्शन के पर्चे तै ना पढण बिठा दी यो?  
Enemy's State?
Or confused State?   

या शायद AI State?

ये क्या है? 
आप सोचो, जानने की कोशिश करेँगे आगे। 

Images have been taken from internet.

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 13

White and Grey warfare?

Or White and Black warfare?

Both one and same thing or different?

जानने की कोशिश करेंगे इसे आगे। तब तक आप सोचो की ये क्या है? और आप इसे कहाँ कहाँ और किस या कैसे कैसे रुप में देख, सुन या समझ पा रहे हैं?  

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 12

कब कहाँ-कहाँ बँधे लगेँगे और कब कहाँ-कहाँ वो बँधे खुलेंगे? ये आपका सिस्टम बताता है। वो बँधे, बाँधों पे भी हो सकते हैं। नहरों और रजभायों पे भी और बच्चेदानियोँ पे भी। वो लिखित में और बताकर भी हो सकते हैं और बिना लिखे या बताए हुए भी। 

कुछ-कुछ ऐसे, जैसे इंदिरा गाँधी का घोषित आपातकाल 1977 में। और मोदी का अघोषित आपातकाल 2014 में। जैसे संजय गाँधी का लोगों को पकड़ पकड़ कर नसबंधीयों के ऑपरेशन्स या मोदी शाह का (?) छुपे गुप्त तरीकों से सिंथेटिक नसबंधियाँ? सिंथेटिक नसबंधीयों के आकार प्रकार बहुत तरह के हैं। वो खाने पीने में गुप्त रुप से भी हो सकते हैं। और आपस में मनमुटाव पैदा कर या किसी भी तरह से दूर करके भी। 

एक ऐसा छद्दम युद्ध जहाँ जो दिखता है, वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। ऐसा ही? नहीं, अगर आप राजनीती के इन कोढों को अपने आसपास से ही समझने लगोगे, तो सब दिखेगा भी, सुनेगा भी और समझ भी आएगा। अपनी उन खास तरह के आँखों को, कानों को और दिमाग को खोल कर देखने-समझने की कोशिश तो करो।

2000 ने, 2002 या 2005 ने कहाँ-कहाँ ऐसे ताले जड़े? या मकड़ी के जैसे ताने-बाने से बुने? और उसके बाद कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे वो जाले या ताने-बाने से बुने गए? चलो, आपने ये ताले और जाले बनते और गूँथते हुए देखे या देख या समझ रहे हैं? तो अब इनसे बचने के रस्ते कैसे ढूँढे, ये अहम है। ये अहम उस आम आदमी लिए खासकर है, जो ना तो आज तक बहुत ज्यादा इस सिस्टम को जानता और ना ही जिसके पास इतने संसाधन, की वो इनसे निपट सके। संसाधनों वाले तो इधर उधर होकर या जहाँ हैं, वहीँ रहकर भी ऐसे सिस्टम से निपट लेंगे। 

जैसे आपका वातावरण राजनीतिक है, की कब, कहाँ धूप-छाया या बाढ़ या भुकम्प आएँगे, वो बताता है। नहीं, सिर्फ बताता नहीं। जहाँ तक उसकी चल जाए, वहाँ घड़ता भी है। यही सिस्टम हर तरह की बिमारियाँ और मौत तक घड़ता है। तो साधनविहीन या कम संसाधनों वाले लोगों के लिए, ऐसी-ऐसी ज्यादातर समस्याओँ के ईलाज भी, कहीं का भी सिस्टम या वातावरण ही बताता है। कैसे? जानने की कोशिश करते हैं आगे।                  

Monday, July 14, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 10

आपकी पसंद-नापसन्द या आपका कोई भी निर्णय, आपके आसपास को या आसपास से भी आगे जहाँ को, कितना प्रभावित करता है?

क्या वो लोगों की ज़िंदगियों को बेहतर या बद्दतर कर सकता है?

क्या वो लोगों को स्वास्थ्य या बिमारियाँ या मौत तक परोस सकता है?

यूनिवर्सिटी में रहते हुए, एक अलग समाज की, अलग तरह की ज़िंदगियों के बारे में हमें खबर ही नहीं होती। 

अलग समाज? अलग तरह की ज़िंदगियाँ? कैसे संभव है? जबकी, इसी समाज में हम पैदा हुए और पले-बढे? शायद? थोड़ा बहुत ये समाज यूनिवर्सिटी या उसके आसपास भी होगा? 

शायद अपने छोटे से दायरे से आगे, कभी जानने या देखने समझने की जरुरत ही नहीं महसूस हुई? जहाँ पैदा हुए या बचपन बिता, वहाँ 10-15 दिन में दहाई के हाथ लगाने जैसा-सा रहा। दो, चार घंटे रुके, थोड़ा खाया पिया, थोड़े गप्पे हाँके और चलते बने। गाडी ने दायरा और छोटा कर दिया। इसलिए, घर से आगे, कोई इंटरेक्शन ही नहीं रहा। गली में भी इंटरेक्शन तब बढ़ा, जब किसी काम के लिए बाहर निकलना पड़ा। उससे आगे जहाँ फिर भी अन्जान ही रहा। या शायद अब उतना अन्जान भी नहीं?     

वैसे तो जितना गरीब समाज या मौहल्ला होता है, वहाँ की समस्याएँ उतनी ही ज्यादा कठोर तरह की होती हैं शायद। जिसमें क्या औरत और क्या पुरुष, भुगतते सब हैं। मगर, जो जितना कमजोर होता है, वो सबसे ज्यादा? खासकर, बच्चे और बुजुर्ग?

बच्चों पे फिर कभी। आज बुजर्गों की बात करते हैं। 

आपके घर में कोई बुजुर्ग है क्या? आसपास? आप उनके साथ रहते हैं? या दूर? साथ रहते हैं, तो आपके उनसे कैसे सम्बन्ध हैं? कितना सामजस्य है, या बिठा पाते हैं? जितनी ज्यादा सोच समझ में दूरी होगी होगी, शायद उतना ही सामजस्य बिठाना भी मुश्किल होगा? थोड़ा बहुत तर्क-वितर्क, वाद-विवाद या शायद झगड़े तक हो जाते होंगे? थोड़ा बहुत गाली गलौच भी हो जाता होगा? वो तो वैसे भी, इस समाज की पवित्र, सँस्कारिक भाषा का अभिन्न अंग है? उससे आगे कभी कभार गुस्से में हाथ भी उठ जाता है क्या? या हाथापाई भी हो जाती है? या वहाँ तक पहुँचने से पहले ही, आप उन्हें अपने घर से चलता कर देते हैं? 

अपने घर से? तो आप अपने बनाए घर में रहते हैं? फिर तो उनके पास भी अपना कोई घर होगा? शायद वही घर, जहाँ आपका मस्त बचपन गुजरा होगा? जहाँ आप पले बढे और स्कूल तक पढ़े भी? उन्होंने आपको कितने सालों झेला वहाँ पर? उसके फिर टुकड़े करके भी दिए होंगे, आपको? अपने घर के टुकड़े करके आपमें बाँट दिए? अपनी जमीन, जायदाद भी आपमें बाँट दी? और आप काफी हद तक या शायद कुछ हद तक, आज उसी सब की बदौलत, अपने खुद के घर के मालिक बने बैठे हैं? वो आपका कुछ नहीं करते तो जो कुछ आज आपके पास है, वो सब होता क्या? खैर। इतना भी क्या सोचना?

बस इतना-सा सोच लें, की आपको यहाँ तक पहुँचाने में, आपके माँ-बाप या बुजर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा है। उनके बगैर, आप कहीं नहीं पहुँचते। तो मेरा घर, या मेरे घर से निकल, कहते वक़्त कम से कम, उनके सामने तो थोड़ी बहुत शर्म करें। और मान भी लें, की उन्होंने आपको कुछ नहीं दिया या आपका कुछ नहीं किया, तो भी आप रोड पे तो पले बढे नहीं होंगे? आपको बचपन में, किसी ने तो पाला या सँभाला होगा? 

बचपन और बुढ़ापा, एक जैसा-सा ही होता है। दोनों में किसी न किसी तरह के सहारे की जरुरत होती है। पैसा हो तो भी। घर हो तो भी। कोई काम करने वाला रखा हुआ हो तो भी। मानसिक तौर पर वो बुजुर्ग, शायद कहीं न कहीं अपने बच्चों के पास ही बैठे होते हैं। जाने क्यों? ये आप सोचें। क्यूँकि, आप भी शायद आज किन्हीं बच्चों को पाल रहे होंगे। और कल को आप भी बुजुर्ग होंगे। और आपके पास भी शायद घर, पैसा और नौकर हों। मगर क्या हो, अगर वक़्त पड़ने पर, अपने बच्चे आसपास होते हुए भी आसपास ना हों?

तो ये तो हुई उन लोगों की बात, जिनके पास आम-सी सुविधाएँ तो हैं। जैसे घर, अपने खर्चे लायक थोड़ा-बहुत ही सही, पैसा और कोई न कोई काम करने वाला भी। बहुत से शायद, ऐसे भी होंगे, जिनके पास शायद, इतना तक नहीं होगा? उनका क्या? या शायद बहुत से ऐसे भी होंगे, जो बच्चों के पास रह रहे हों, मगर वहाँ के हालात रहने लायक ना हों? सिर्फ मजबूरी में रहते हों? उनके लिए हमारा समाज सोशल सिक्योरिटी जैसा कुछ देता है क्या? या शायद थोड़ी-सी भी कोशिश हो, तो दे तो सकता है? आगे थोड़ा इसी पर। 

Thursday, July 10, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 9

 9-7-2025  (12:15 PM) 

औरतों का खास तरह का झलूस, या कोई खास प्रोग्राम या नया या पुराना रीती-रिवाज़? खाटू शयाम मंदिर से उलटी साइड कहीं जा रहे हैं? 

और गाने

खाटू वाला सेठों का सेठ। ...... 

भगवान और सेठ? नहीं। सेठों का सेठ? 


किसी लड़की को ससुराल के लिए छोड़ते हुए? कौन सी तारीख? किस लड़की को? ससुराल कहाँ है उसकी?   

हे महारे दयानन्द पै दया करियो  ........ 

काकी, ताई, दादियो या बहनों, ये क्या गा रहे थे आप? आपके दयानन्द ने ऐसे क्या जुर्म या काँड किए हुए हैं?     

या ऐसा-सा ही कुछ?


सत्संग? (7 संग?  या?)

AI के दौर में, संस्कारों के नाम पर ऐसी-तैसी? 

माँ, बहन, बेटियों, चाची, ताईयों या दादियों की? किसी को नहीं बक्शते ये? या मिलने-जुलने, बोलने-बतियाने, बैठने और मेल-जोल के तरीके ? गरीबों को थोड़ा-बहुत, खाना-पीना या दान-पान के तरीके? या कल्ट पॉलिटिक्स में लिपटे जाले और किसी और ही तरह के ताने-बाने?   

इन सबके फायदे हैं या फिर सिर्फ और सिर्फ नुकसान? या किसी को नुक्सान और किसी को फायदा? निर्भर करता है, रीती रिवाजों के नाम पर कहाँ क्या परोसा जा रहा है?

अपने आसपास कभी कुछ ऐसा देखा या सुना या समझा है, आपने? कभी सोचा है, की इस सबका मतलब हमारे अपने लिए या आसपास के लिए क्या है? 

शायद हाँ और शायद ना?

जानने की कोशिश कीजिए, की रीती-रिवाजों के नाम पर किस-किस तरह का अमृत या जहर परोसा जा रहा है, आपके अपने यहाँ? या शायद आसपास? आसपास होगा तो भी, किसी न किसी तरह का असर तो आप पर भी जरुर होगा?

दूसरों पर किसी भी तरह की कमेन्ट्री करने से पहले, एक बार अपनी तरफ या अपने ही घर के सदस्यों की तरफ जरुर निगाह दौड़ा लें। कहीं वैसा कुछ, वहाँ तो नहीं हो रहा? या शायद ज्यादा फिट बैठ रहा हो? जैसे-जैसे आपको ये सब समझ आने लग जाएगा, आपकी उलटी-सीधी कमेन्ट्री या दूसरे के खिलाफ किसी भी तरह का भद्दा मजाक, अपने आप बँध हो जाएगा। 

इसमें बहुत कुछ मुझे भी नहीं पता था। यहाँ वहाँ पढ़कर या देख सुनकर समझ आया है। Don't take anything personal or offensive. They themselves don't know where it fits better on them or in their own home.   

किसी ने बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से गीले हाथ झाड़े थे, बिलकुल पास आकर। और कहीं कमेंट्री थी, "कुत्ता कान झड़का रहा था, शायद कीड़े पड़ गए" । किसी को शायद मालूम नहीं, की जिसको वो सुनाना चाह रहा है, उसका अपना किसी पार्क या गार्डन का ऐसा कोई केस नहीं है। अब वो केस किसका है, ये तो ऐसी नौटँकी करने वाले को बेहतर पता होगा। 

क्या था ये? 

मतलब बहुत सी कमेन्ट्री या नौटंकियोँ में तो यही नहीं समझ आता, की ये किसके बारे में और क्या कहना चाह रहे हैं?          

पीछे आसपास कई सत्संग सुने या थोड़े-बहुत देखे और समझने की कोशिश की, की ये चल क्या रहा है? करने या करवाने वालों को जो कुछ वो गा रहे हैं या बाँट रहे हैं, उनका मतलब मालूम है क्या? गुप्त राजनीतिक मतलब या चाल-ढाल? कहीं लिखा था शायद, "ले ली गैंग थिएटर"? सोचो, इस सबका नंग-धडंग गैंग या कहीं वृँदावन तक से क्या लेना देना? 

आप सोचिए। आगे आते हैं, ऐसे से ही कुछ किस्से कहानियों पर।  

Interactions और किस्से-कहानियाँ? Vitiligo 8

विटिलिगो (vitiligo) की सामांतर घड़ाई की सैर पर चलें?

It's too painful, too stressful, even talking about too manipulative ways of this synthesis and its effects. 

Synthesis?

But why synthesis? Upto what extent anyone can do synthesis in a time gap period of 15-20 years? Or in some cases maybe even more? How much people remember or better to say care to remember after such a long period? That's also those people, who were harmful in any way or obstacles in life? And importantly, after some time, one has not even any kinda interactions there. Rather should say, willingly avoided some. Even hated some. But yes, computers do remember. You can synthesize so much there and can aaply that in real life. Right? That's what data collectors and its users or abusers are doing around the world?

What about social synthesis? Social engineering? 

Have already gone too far? Especially for the sake of forensic or in a try to get some special results? Or say, to create some specific codes or numbers to get some chairs? And they say, humans, especially common people are just collateral damage in such wars.   

Not so educated people, still do not know abc about that. They are still in their own world of geeta-gyan or Ramayan, Mahabharat. Rather should say, it's an entirely different world than this world, which has gone in the direction of robotic synthesis and kinda robotic control over population. And what about ways of synthesis? At times seems, so simple, that difficult to believe that things can happen even like that? And at times, so complex, that one can only wonder, how it has been managed? And what kinda impact such synthesis could have on those people's lives on whom it has been experimented? Who cares? At times life threatening? At times, even suicide or so-called deaths? What kinda society, these people are engineering? Are there any challengers to them? Sure, all officers around the world are not of criminal mindset. Maybe only few percent? Wonder, if all officers around the world, even know about such things or synthesis? Then they maybe civilians or defence. 

Beyond this higher strata of sociaty, should not people in other strata of society know about such social engineering? As such things are impacting worse lower stratas of society. They have neither this knowledge, nor resources to deal with the harmful effects of such social engineering by these gamblers. 

Real life case studies of any social level, can throw a light on that knowledge better. So first such case study is vitiligo. As you can talk and explain better what you are experiencing yourself, and on that have little bit knowledge of that field also.

In university, I have not seen many cases with vitiligo. Maybe one or two, but with single patch or on some restricted part of body, even after many years. 

Personal experience of vitiligo says, "It's nothing but acidic attacks by harmful chemicals, some stress and literal burns." 

Literal burns? But doctors and patients of this disease talk something else. Like?

इसमें कोई दर्द नहीं होता? कितना सच है इसमें? 

इसके कोई साइड इफेक्ट्स नहीं हैं? बिलकुल झूठ? 


और 

डॉक्टर जो दवाई देते हैं, वो इसे घटाती है या बढाती हैं?    

इससे बचने के तरीके क्या हैं?

और होने पर सही ईलाज या आगे बढ़ने से रोकने के तरीके क्या हैं?

क्या इसे रिवर्स गियर पे रखा जा सकता है? या बिलकुल ठीक किया जा सकता है? ऐसा हुआ तो कई सारी और ऐसी-सी या इससे जुड़ी बिमारियों के ईलाज भी संभव हो जाएँगे। जैसे बालों का सफ़ेद होना। जैसे त्वचा कैंसर की रोकथाम? जैसे त्वचा या पिग्मेंट से सम्बंधित और कई तरह की बिमारियाँ?   

जानने की कोशिश करें? आगे पोस्ट में। 

Wednesday, July 9, 2025

Your System is Talking to You?

Your system is talking to you? 

Do you wanna talk, interact or ignore? 

What do you wanna talk? 

Where do you wanna interact? 

Or whom or what you wanna ignore?

चलो पीछे पोस्ट में लिखा था की कुछ खास तरह के जानवर जब सामने आएँगे तो उनकी फोटो लेकर यहाँ लगाऊँगी। 





आसपास और भी ऐसे से कई तरह के जानवर हैं। 
जिनमें इंसान भी हैं। 
मतलब?

सिस्टम सिर्फ कुछ कह नहीं रहा, बल्की, दहाड़ रहा हो जैसे?
कैसे? 
अभी इन्हें निहारो। 
आगे और फोटो से शायद कुछ समझ आए?

Wednesday, July 2, 2025

Interactions और किस्से-कहानियाँ? 7

30.06.2025

Clinic Cardio?

Or?

Goli? या Go Li?

कुछ इन्हें le li गैंग भी बोलते हैं शायद। 

रौचक? क्या से क्या बनता है?

और बच्चों वाली-सी कोई सिंथेसिस करनी हो तो? 

Synthesis? What the hell is this? राजनितिक पार्टियाँ करती हैं ये synthesis? या बोलना चाहिए, इस या उस पार्टी से सम्बंधित इन विषयों के जानकार। कितनी सारी बिमारियाँ, इन्हीं synthesis की देन हैं। बिमारियाँ ही नहीं, मौतें भी। देशद्रोह का केस तो नहीं हो जाएगा मुझ पर, ऐसा लिखने भर से? या कहने या आम आदमी को बताने भर से?    

शायद कोई गोली आती है कहीं से, खाने-पीने में? जिस किसी खाने-पीने में आती है, ज्यादातर केस में ना उस खाने पीने वाले को पता चलता है और ना ही जहाँ कहीं से वो खाना पीना आता है, वहाँ उन लोगों को। 

ऐसा कैसे?

यही तो आज का युद्ध है, दुनियाँ भर में। जो होता है, वो दिखता नहीं और जो दिखता है, वो होता नहीं।     

गोली अपना असर दिखाती है, और?

आप धरे जाते हैं। सब कर्मों के फल हैं? आपके कर्मों के? या? ऐसी-ऐसी सिंथेसिस या केस घड़ने वालों के कर्मों के?

बैक साइड में अचानक से तीखा दर्द होता है और चेस्ट का जैसे घेरा बनाता हुआ उस हिस्से को जैसे फ्रीज कर देता है। चलते हुए ना ढंग से पैर आगे बढ़ रहे और बैठने की कोशिश करो तो उसमें भी दिक्कत। जैसे तैसे पास के सोफे पर बैठ जाते हैं। दर्द कह रहा है, जैसे ज़िंदगी खत्म। पड़ोसी को बोलते हैं 3-4 बार, मगर शायद किसी को सुनता ही नहीं। फ़ोन भी उप्पर वाले कमरे में पड़ा है। बाहर भी कोई आता जाता नहीं दिख रहा। जैसे तैसे, रोते धोते ऊप्पर कमरे तक पहुँचते हैं और माँ को फोन करते हैं। 

गुड़िया को भेझना। 

सो रही है वो। (सुबह 7. 00 - 7. 30 की बात है शायद। )  

उठा दो, दिक़्क़त है मुझे, रुआँसी-सी आवाज़ में ही बोलते हैं। 

भेझती हूँ। 

थोड़ी ही देर बाद गुड़िया आती है। 

बुआ, बुआ क्या हुआ? आप रो क्यों रहे हैं। 

आँसू बह रहे हैं अपने आप, दर्द के मारे। गर्म पानी करके बोतल देना। अब कुछ भी हो, हॉस्पिटल तो ऑप्शन ही नहीं है। 

माँ भी आ जाती है और पानी गर्म करने लगती है। इतने में गुड़िया अपने घर से इलेक्ट्रिक हॉट बोतल लेकर आ जाती है। साथ में दो-एक और मैशाजर वैगरह। 

मम्मी को ऐसे ही हुआ था। जब उन्हें ज्यादा दर्द होता था तो वो तो इन्हें यूज़ करते थे। 

ना ढंग से चला जा रहा, ना बैठा और लेफ़्ट हाथ भी ढंग से नहीं उठ रहा। मन में डर भी लग रहा है, एमर्जेन्सी कॉल करले। लकवा ना हो जाय, हॉस्पिटल नहीं जाना, के चक्कर में। 

कमर पर गर्म बोतल लगाने के बाद थोड़ा आराम होता है और कंधे के करीब वाला हाथ का दर्द भी कम हो जाता है। 

था क्या ये ?

कौन सी गोली? कैसी गोली? कहाँ से और कैसे आई?  

उसके साथ कोई और गोली भी अपना असर दिखा रही है। कुछ-कुछ ऐसे ही, जैसे, उत्तराखंड में बारिश और भूस्खलन? ऐसा सा तो पहले भी कई बार हुआ है? ये एक ही गोली का असर है या mixture कोई?     

विस्तार से ऐसी-ऐसी Social Tales of Social Engineering कौन सुनाएगा आपको? या शायद दिखाएगा और समझाएगा? शायद कितने ही सीरियल्स या मूवीज में देखते, सुनते या समझते तो हैं। मगर, शायद ऐसे लाइव विवरण के साथ नहीं?        

पिछले साल शायद, कहीं अप्लाई करने की सोच रही थी। और कहीं जैसे धमकी जैसा-सा कुछ। "Beware, खास तरह के डायपर लगवाके, खास तरह के मंदिर के दर्शन करवाएँगे ये।" समझ ही ना पाओ, कहाँ सही की धमकी है और कहाँ आपको रोकने की कोशिशें? मगर सिर्फ डर से कब, कौन, कहाँ रुका है? हाँ। ऐसे माहौल में, शायद थोड़ा ज्यादा ऐतिहात रखने की जरुरत जरुर महसूस होने लगती है।  

Synthetic World of Warfare? 

थोड़ा नया विषय है मेरे लिए, खासकर Social Tales of Social Engineering की case studies के लिए। कोरोना के दौरान थोड़ा-बहुत पढ़ना समझना शुरु किया था। फॉरेंसिक साइंस, अहम भूमिका निभाता इसमें और अपने आपमें वाद विवाद का विषय भी हो सकता है। बाहर की यूनिवर्सिटीज की ऑनलाइन सैर के दौरान, ऐसे-ऐसे विषय भी मिल जाते हैं। कहाँ-कहाँ इंसानों पर कैसे-कैसे एक्सपेरिमेंट चल रहे हैं। और कहाँ-कहाँ से और कैसे उनकी इज्जाजत मिलती है? कोढ़ ही कोढ़ में कितना कुछ होता है ना?