यूनिवर्सिटी के स्तर पर, सीधा प्रॉजेक्ट या कंपनियों के सहयोग से Collaborative Research या सिर्फ उस कोर्स की अनुमति हो, जिसमें यूनिवर्सिटी के स्तर पर नौकरी के लिए ट्रैनिंग शुरु हो और यूनिवर्सिटी से निकलते ही नौकरी। कुछ-कुछ ऐसे, जैसे बस या किसी भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम के व्हीकल में, सिर्फ उतने ही आदमी चढ़ पाएँ, जितनी सीट हों। उसके बाद वो व्हीकल, किसी स्टॉप पे नहीं रुकेगा। या उसका दरवाज़ा ही नहीं खुलेगा। जैसे, ज्यादातर विकसित जगहों पर होता है। सीट ना होने के बावजूद, किसी भी व्हीकल पर जितनी ज्यादा भीड़, मतलब उतना ही ज्यादा अविकसित होने की निशानी? डिग्री देने की काबिलियत होने के बावजूद, उन डिग्री धारकों को नौकरी देने की काबिलियत नहीं होना, मतलब? अच्छे संस्थानों से सीखें, की वहाँ क्या अलग है? जो सिर्फ डिग्री बाँटने वाले संस्थानो में है या नहीं है?
इस सबको सही करने के लिए क्या कदम हो सकते हैं? कुछ शायद मैं सुझा पाऊँ? क्यूँकि, मैं खुद नौकरी लेने की दौड़ में नहीं, शायद देने वालों की कैटेगरी में आने की कोशिश में हूँ।
नौकरियोँ का भी इन घरों जैसा-सा ही है। कितनी ही पोस्ट तकरीबन हर डिपार्टमेंट में खाली पड़ी रहेंगी, सालों साल, दशकों दशक। मगर?
मगर, उनकी पोस्ट कभी निकलेंगी ही नहीं। कहीं ज्यादा ही सिर फूटने लग जाएगा, तो एडहॉक या कॉन्ट्रैक्ट जैसी शोषण वाली पोस्ट घड़ दी जाएँगी। उससे बेहतर शायद यही मानव संसाधन कहीं और अच्छा कर सकते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ ऐसा करके कई तरह के फायदे ऐंठती हैं। मगर वो फायदे, कहीं न कहीं उसी जनता को इन पार्टियों के खिलाफ भी कर जाते हैं। कोरोना के दौरान और उसके बाद उपजे, आसपास के माहौल ने इसे ज्यादा अच्छे से समझाया।
डिपार्टमेंट और आसपास, कई बार कुछ ऐसी बातें या किस्से घटित हुए की जिनको समझकर लगे, की जो लोग इतनी शिद्दत से काम करते हैं और इतना वक़्त से उस यूनिवर्सिटी या इंस्टिट्यूट से जुड़े हैं और वहाँ पोस्ट भी खाली हैं, फिर ऐसा क्या है, जो ये सरकारें उन्हें भरती नहीं? कैसी राजनीती है ये?
घर आने के बाद अपना घर ना होने की वज़ह से या ससुराल से परेशान कुछ किस्से-कहानी सुनकर फिर से ऐसे ही? ऐसा क्या है, जो ये लोग अपना खुद का अलग से घर नहीं लेते या बनाते? किन्हीं पे आश्रित ही क्यों रहते हैं? या ऐसी उम्मीद ही क्यों, ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे लोगों से? कुछ केसों में, दूसरे पर निर्भरता एक कारण हो सकता है। मगर, कुछ तो ऐसे उदाहरण की सारा ससुराल वालों को पूज देते हैं और खुद ठन-ठन गोपाल जैसे। या अजीबोगरीब सँस्कार या संस्कृति? ये क्या करेंगे, अलग से अपने मकान का? क्या अजीब प्राणी हैं? नहीं? हर जीव अपनी संतानों को इतना-सा तो सीखा ही देते हैं, की वो आत्मनिर्भर हो सकें। खुद का खाना और रहने लायक घर बना सकें।
इंसान के पास तो दिमाग थोड़ा उससे आगे सोचने-समझने के लिए, पढ़ने-लिखने या कुछ करने के लिए भी है। मगर हमारे समाज का ताना-बाना कुछ ऐसा है, की समाज का कितना बड़ा हिस्सा ऐसी-ऐसी, आम-सी जरुरतों के लिए ही संघर्ष करता नज़र आता है? शायद, अच्छी शिक्षा ही उसका एकमात्र ईलाज है।
पेपर टाइगर?
चलो, पेपर टाइगर को पढ़ने का भी आपके पास वक़्त तो है? और सुझाव भी? धन्यवाद, इतने अच्छे टाइटल के लिए। ये तो फिर भी थोड़ा बहुत मिलता होगा। कहीं तो कुछ ज्यादा ही फेंक दिया था, Writing Machine. वैसे धन्यवाद उनका भी।
बड़े-बड़े लोगों को पढ़कर थोड़ा बहुत तो फेंकना आ ही जाता है शायद :)
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