खंडहर से बातें जैसे?
दिवार पे टाँग दो कैलेंडर को,
अपने पसंदीदा डिजाईन में कहीं
मन करे तो,
तारीखें, साल और महीने बदल दो।
नहीं तो?
मान लो, रोक रखा है वक़्त हमने कहीं
इतना भी क्या भागम-भाग ज़िंदगी?
ठहरो कुछ वक़्त तो, रुककर आराम से कहीं।
दरवाजों को बना, बड़े-से फ्रेम
उनमें सजा दो आकृतियाँ पसंदीदा अपनी
जिन्हें स्लाइड कर सकें, इधर से उधर
और उधर से ईधर
आकृतियों के डिज़ाइन बदलने को?
या कमरे को ही छोटा या बड़ा करने को?
हर जगह दीवारें ही क्यों रहें तनी?
जैसे बन गई एक बार
तो खिसका ही ना सकें कहीं,
बिन तोड़फोड़ के?
ऐसी-सी ही छत हो,
किसी एक हिस्से की कम से कम
जिसे जब चाहे ढक लो
जब चाहे हटा दो
कर दो साइड में कहीं।
किसी दिवार पे उगता सूरज
तो किसी पे चाँद-सी चाँदनी?
छत, जो कभी दिखाए
इंसान की बनाई कर्तियाँ
तो कभी हटाने पर?
साक्षात तारों से भरा आसमां?
किसी दिवार पे घूरती आँखें?
शिकार की ताक में छिपा
शेर, चीता या भेड़िया कोई?
या शायद?
नए जमाने की कृत्रिम आँखें जैसे?
जाने कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ लगे
दिखाई देते या गुप्त कैमरों की?
कहीं उछल-कूद करते, खेलते
हिरण, खरगोश, गिलहरी, बन्दर
या कुत्ते, बिल्ली, घोड़े
कहीं पानी में तैरते जीव कितने ही
तो कहीं उड़ते पंछी खुले आसमां में।
और भी कितना कुछ तो कह सकती हैं
ये दीवारें या छतें?
भला मकड़ीयों, चीटियों, भिरड़ों, चूहों
या चमगादड़ों को ही क्यों पालें ये खँडहर?
खँडहरों पे भी तो दिख सकते हैं
दुनियाँ भर के सिस्टम के ताने-बाने?
सर्कस कैसे-कैसे?
या शायद प्रकृति के ही नज़ारे?
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