आप कौन हैं?
इंसान?
या
कोई ज़मीन-जायदाद? प्रॉपर्टी या वसीयत? फिक्स्ड डिपोसिट या सेविंग अकॉउंट? या नौकरी? या ऐसा ही कुछ और?
आपका मालिक कौन है?
आप खुद?
या
कोई और? यहाँ बच्चों की बात नहीं हो रही। वयस्क इंसानों की हो रही है। यहाँ लोकतंत्र वाले विचारों वाले समाज की बात हो रही हैं।
फिर एक और भी समाज है।
पितृसत्ता वाले समाज में तो शायद, पुरुष ही औरतों के मालिक हैं? पहले बाप, फिर भाई,फिर पति, फिर बेटा? औरतें यहाँ पुरुषों के अधीन रहती हैं, जिंदगी भर। सिर्फ अधीन नहीं, बल्की डर की हद तक अधीन? अकसर वो अपनी बहनों या बेटियों को कहती मिल सकती हैं, ये मत बोल, वो मत बोल, तेरा बाप, भाई या पति या बेटा सुन लेगा? या धीरे बोल वैगरैह? यहाँ औरतों के सब अहम फैसले पुरुष ही लेते हैं। क्यूँकि, वो मालिक हैं उनके? इंसानों के भी मालिक होते हैं? ठीक ऐसे जैसे, ज़मीन-जायदाद? प्रॉपर्टी या वसीयत? या शायद नौकरी के भी? दादर नगर हवेली, अंडमान-निकोबार या लक्ष्यद्वीप ऐसा-सा ही साँग है?
और भी कितनी ही तरह के समाज हो सकते हैं। जैसे ठेकेदारी प्रथा? यहाँ खून के रिश्तों से आगे चलकर भी, समाज के बहुत से ठेकेदार होते हैं। जो औरों की ज़िंदगियों के फैसले लेते हैं। फिर क्या औरत और क्या पुरुष। ये प्रथा खुलम-खुला, सीधे-सीधे भी हो सकती हैं और गुप्त भी। जैसे कंगारु कोर्ट्स और टेक्नोलॉजी और ज्ञान-विज्ञान का दुरुपयोग कर मानव-रोबॉट्स घड़ना। मानव-रोबॉट्स घड़ाई सबसे खतरनाक है। जहाँ पर आपको ये तक पता नहीं होता की जो आप कह या कर रहे हैं, वो आपसे कोई कहलवा या करवा रहे हैं। और इसके घेरे में आज पूरा समाज है। कहीं कम, तो कहीं ज्यादा।
हकीकत में दुनियाँ में कहीं भी लोकतंत्र नहीं है। आप किसी न किसी रुप में किसी न किसी के अधीन हैं। वो अधीनता फिर, सीधे-सीधे हो या गुप्त रुप में। पैसा, ज़मीन-जायदाद या प्रॉपर्टी के इर्द-गिर्द घूमती सत्ताओं या कहो राजनीती ने, बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर एक ऐसा घिनौना जाल गूँथा हुआ है, की दुनियाँ की ज़्यादातर कुर्सियाँ, उन्हें ही अपने कंट्रोल में रखने का खेल खेलती नज़र आती हैं। अगर आपके पास ठीक-ठाक ज़मीन-जायदाद या पैसा है, तो आप कुछ हद तक इस जाल से बाहर हैं। मगर बिल्कुल बाहर तब भी नहीं हैं। हो सकता है, ज्यादा और ज्यादा के चक्करों में लगे हुए हों? इसका या उसका हड़पने के चक्करों में लगे हुए हो? उसके लिए बहाना कुछ भी हो सकता है। कहीं गरीबों की ज़मीने हड़पे बैठे हों? और कहीं, किसी बड़े या छोटे शहर के पास वाले छोटे-मोटे किसानों की उपजाऊ ज़मीनों को कीड़े-मकोड़े से जनसंख्याँ के घनत्व में बदलकर, अपनी किस्मत चमकाने के चक्कर में? या अपना साम्राज्य खड़ा करने के चक्करों में? जालसाजी, धोखाधड़ी या कुर्सियों को अपने साथ लेकर? सब मिलीभगत से चलता है। कहीं सरकारों या ईधर या उधर की राजनीतिक पार्टियों के साथ मिलकर, बड़ी-बड़ी कंपनियों के बड़े-बड़े साम्रज्य? तो कहीं, ऐसे-ऐसे लोगों को अपना आदर्श समझने वाले और ज्यादातर ऐसे ही लोगों की छाँव में पलते छोटे-मोटे, चिंटू-पिंटु?
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