सत्ता की सतरंज के गलियारों की खिड़कियों के माध्यम से इन अजीबोगरीब पीढ़ियों (generations) को जब जानना समझना शुरु किया तो पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया। जो थोड़ा बहुत समझ आया वो ये, की सतरंज की चैस के रिश्तों (गोटियों) के ये अनोखे गठजोड़ ईधर-उधर और जाने किधर-किधर, अपने आप में बहुत बड़ा हथियार हैं, लोगों को और उनकी ज़िंदगियों को कंट्रोल करने का।
जैसे पहले भी कई बार लिखा, लोगों के दिलों-दिमाग में आपस में ज्यादातर बुरा नहीं होता। बल्की, बहुत बार तो भला होता है। मगर, जोड़तोड़ कुछ ऐसे भिड़ाए जाते हैं की ना चाहते हुए भी शायद लोगबाग वैसा करते हैं।
पहली बार ये सब समझ आया, जब पहली बार अपना घर बनाने की सोची। किन्हीं खास परिस्तिथियों में ही सोची होगी? नहीं तो हम जैसों को तो इतना तक लालच नहीं होता की सिर्फ और सिर्फ अपना सोचें? सरकारी नौकरी, सरकारी मकान और सुविधाएँ, इतना भी क्या हाय-तौबा मचाना? या शायद, थोड़ी बहुत इकोनॉमिक समझ तो होनी ही चाहिए? समझ तो नहीं थी। मगर जब वो जरुरत हुई तो विकास सिवाच और पार्टी बीच में दिखी, जब SBI MDU तमाशा चला, की Home Loan नहीं मिलेगा। सैलरी, ग्रेड, बैंक बैलेंस, क्रेडिट सब सही होते हुए।
नाना का घर (गाँव) यूनिवर्सिटी के ज्यादा पास पड़ता है, बजाय की मेरे अपने गाँव के। मामा के लड़के ने बोला, वहाँ रह लो, जब तक अपना नहीं बनता। वैसे भी नाना नानी के जाने के बाद से वहाँ कोई नहीं रहता। मुझे भी लगा, ये भी सही है। फिर तो वहीँ कहीं मैं अपना ही ना बना लूँ। यूनिवर्सिटी के पास भी पड़ता है। उनकी तरफ से ना नहीं थी। मगर एक घर या अब तो वो भी पुराना खँडहर, जब दो के नाम हो, तो शायद बहुत कुछ बीच में आ जाता है? भाई-बंधों के दिमाग में किसी तरह का कोई विरोद्ध? या? ये या अहम है। क्या है ये या? इसे जानना बहुत जरुरी है।
धीरे-धीरे जो समझ आया, वो किस्सा कुछ-कुछ ऐसे ही था ,जब अपने घर की तरफ (गाँव) रुख किया। कहाँ तो आपको गाँव के पास वाला आधा किला (ताऊ के स्कूल के पास) इसके लिए दिया जा रहा था। जब मुझे खुद और बड़ा कहीं और चाहिए था। जहाँ माँ और भाई-भाभी को लग रहा था की सुरक्षित जगह नहीं है, रहने के लिए। गाँव से दूर भी है और पानी भी मीठा नहीं है वहाँ। और कहाँ प्लान बदलते-बदलते, कौन-कौन चाचे-ताऊ, और कैसे-कैसे दादे बीच आ खड़े हुए? जो भाभी को खा गए? या शायद कहना चाहिए की जो राजनीती भाभी को खा गई।
दादर नगर हवेली, अंडमान-निकोबार, लक्ष्यद्वीप? ऐसे से ही और भी बहुत से कोढ़ हैं, इधर उधर, आसपास ही। ये क्या है? कोढ़? राजनीती का? जमीनों घरों, रिश्तों में फूट, बिमारियों और मौतों तक का राज? गए हुए कल और आज की राजनीती? आगे किसी पोस्ट में।
वो भी तब, जब वो सब आपको खुद अपने नाम नहीं करवाना था। और अगर करवा भी लेती, तो वो सब कहाँ और किसके पास जाना था? सोचने की सबसे बड़ी बात? मगर लोगों को इस कदर अँधा कर दिया जाता है या कहना चाहिए, की भावनात्मक भड़काओं में उलझा दिया जाता है, की उन्हें इतना तक समझ ना आए की यही "फूट डालो और राज करो राजनीती है"।
मामा के यहाँ जब बात चल रही थी या कहना चाहिए की खुद उन्होंने मुझे बोला था और बाद में मेरे दिमाग में ऐसा आया था। फिर क्या हुआ वहाँ? चलो वो तो मामा थे? या शायद वो मेरे लिए यहाँ से भी ज्यादा थे? और वहाँ तो मैं खरीदने की बात कर रही थी, ना की ऐसे ही लेने या बनाने की।
यहाँ अपने घर, जहाँ आप पैदा हुए, वहाँ क्या दिक्कत हो गई थी? यहाँ भी सलाह खुद घर से निकल कर आया थी, की वहाँ नहीं रहना तो यहाँ बना लो। फिर होते-होते ये सब क्या हुआ? ना मेरा कोई अपना सिर छुपाने का ठिकाना बना और ना भाभी ही बचे। कैसे? उसपे गुड़िया को भी घर से निकालने की कोशिशें हुई। इन्हीं चाचे-ताऊ, दादों द्वारा। यही आसपास से आग लगाने वाले अपनों द्वारा? क्या आप भी इनके घरों में ऐसे ही घुसे हुए हैं?
"औकात कहाँ है? ये तो औकात हमारी की अपने घर भी चला लें और औरों के भी?"
बहुत बाद में समझ आया, ये औकात वाले कौन हैं? वो नहीं, जो इंसान बोल रहा होता है। या शायद कर भी रहा होता है। ऐसा हमें दिखता है। हकीकत में यहाँ किसी की भी औकात नहीं। ये औकात है, बड़े-बड़े लोगों की, राजनितिक पार्टियों की और बड़ी-बड़ी कंपनियों की। बहुत ही जबरदस्त ताना-बाना और सुरँगे उनकी। जो अपने मनचाहे काम, आपसे, आपके ही द्वारा या आपके अपनों द्वारा या आसपास वालों द्वारा ही करवाते हैं। खुद आपके और आपके अपनों के भी खिलाफ। ये वो लोग हैं, जिन्हें आप नहीं जानते और शायद जानते भी हैं? फिर आपको वो सब क्यों नहीं दिखता या सुनता या समझ आता? उन्हें कैसे इतना कुछ पता होता है? और कैसे इतनी दूर बैठे, खुद आपसे, अपने ही खिलाफ या आपके अपनों के खिलाफ इतना कुछ करवा जाते हैं? जानते हैं आगे, अपना, खुद का एक छोटा-सा आशियाँ बनाने की जद्दो-जहद के किस्से से? तुम इतना पढ़लिख कर, इतना कुछ होते हुए भी, इतना-सा नहीं कर सकते? जिनके पास कुछ भी नहीं होता, इतना-सा तो वो भी कर लेते हैं। नहीं?
इंसान हो तुम? इंसानों के जहाँ में रहते हो या शैतानों के? इतना-सा तो पक्षी, कीट-पतंगे और जानवर तक कर लेते हैं। नहीं? कभी ये आकर बोले, मेरे घर से निकल और कभी वो आकर बोले, की मेरे घर से निकल। वो खुद बोल रहे हैं क्या? या ड्रामों वाली महान कम्पनियाँ तैयार करती हैं उन्हें? और उन्हें समझ तक नहीं आता की वो क्या बोल रहे हैं? क्यों बोल रहे हैं? सबसे बड़ी बात, किसे बोल रहे हैं? क्या लगती है वो उनकी? कैसा कुतरु समाज है ये? और कैसे कुतरुओं के महान कुतरु, ये सब करने-करवाने वाले? थोड़ा ज्यादा तो नहीं हो गया? ओह हो। कुत्तों को क्यों गाली? उनको तो, चलो कुत्तोँ पे फिर कभी। वैसे भी कुत्ते तो ऐसे इंसानो से तो बेहतर ही होते हैं शायद?
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