Physiological Manipulations?
शरीर के बाहरी और भीतरी बदलाओं को समझने के लिए, इन हेरफेरियोँ को समझना बहुत जरुरी है।
ये ज्ञान-विज्ञान थोड़ा अगले स्तर का है? नहीं, बिल्कुल ही सामान्य ज्ञान-विज्ञान जैसा है। मगर, किन्हीं खास विषयों के ज्ञाता होते हुए भी, आप इससे बिलकुल अंजान हो सकते हैं। या शायद समझने के लिए थोड़ा-सा तो, उस माहौल को, उसके घटकों और किर्याओं को देखना-परखना और समझना पड़ेगा।
मान लो, आप गाएँ या भैंस रखते हैं। किसलिए? उनकी सेवा करने के लिए? या सिर्फ शौक या अपनी रुची की वजह से? या अपने घर का खर्चा निकालने के लिए? वजह क्या है रखने की? उसी अनुसार, उसका लालन-पालन का तरीका बदल जाएगा। हॉबी है, शौक है या सेवाभाव, तो आप उसे प्यार से रखेंगे। अपनी जरुरतों से ज्यादा, उसकी जरुरतों का ध्यान रखेंगे। लेकिन अगर पैसे कमाने का साधन है? या आपकी रोजी-रोटी ही उसकी वजह से है तो? उतना ही ख्याल रखेंगे, जितना आपको उससे फायदा मिलेगा? जिस किसी तरीके से मिलेगा? इसका उस पशु पे क्या असर पड़ता है, इससे आपको कोई लेना-देना नहीं? खास तरीकों से दोहन किए गए, उसके उत्पादों का समाज पर क्या असर पड़ता है, उससे भी आपको कोई लेना-देना नहीं? आपने अपने फायदे के लिए रखे हुए हैं, और वो आपको हो रहा है? इससे आगे आपको क्या मतलब?
यही खेती पर और हर तरह के व्यवसाय पर लागू होता है। जब हर जगह, हर व्यवसाय पर यही लागू हो रहा है, तो यही हमने शिक्षा पर भी लागू कर दिया है? परिणाम? आगे किसी पोस्ट में जानने की कोशिश करेंगे।
उससे पहले यहाँ छोटा-सा उदहारण
जहाँ से मैं यहाँ दूध लेती थी, एक दिन ऐसे ही श्याम को दूध लेने गई, और वहाँ अंदर जाते-जाते जैसे ठिठक गई। दूध ठीक-ठाक मिलता था। बोलचाल में भी सब सही। फिर? ये एक छोटी-सी डेरी है और पुराने तरीकों से चल रही है। जैसा ज्यादातर आज भी यहाँ के गाँवों में है। मेहनत ज्यादा और कमाई कम। उसपे भैंसों को पालने-पोषने का तरीका भी वही देशी, पुराना। एक भैंस बुरी तरह पीटी जा रही थी। मेरे देखते ही देखते, वो डंडा तक टूट गया। मैंने पूछा की इतना क्यों मारा उस भैंस को? उसी से दूध लेते हो और उसी को पीटते हो? तो जवाब मिला, अरे इतना खिलाते-पिलाते हैं, फिर भी पैर उठाती है, वगैरह-वगरैह। समझ नहीं आया, की पशु खुश होके ज्यादा दूध देगा या ऐसे पीटने पर? उन्होंने कहा, डर से दे देगी। डर? शायद थोड़ा बहुत काम करता है। इतना? पता नहीं। आप क्या कहते हैं?
खैर, मैंने उस दिन के बाद वहाँ से दूध लेना बंध कर दिया। मेरा मन नहीं माना।
इसके साथ-साथ, इधर-उधर और भी काफी कुछ देखने, सुनने और समझने को मिला, गायों और भैंसों के बारे में। वही सब शायद कहीं न कहीं इंसानों के साथ भी हो रहा है। जैसे गोलियों और इंजेक्शंस का प्रयोग। या कोई खास तरह की जड़ी-बुटियाँ या खास तरह के केमिकल्स का प्रयोग? और सिर्फ व्यस्क ही नहीं, कहीं न कहीं बच्चे और बुजुर्ग तक वो सब भुगत रहे हैं, उनकी जानकारी के बिना। हॉर्मोन्स इंडुशेर्स या इन्फ्लुएंसर्स? किस फॉर्म में या कैसे? अभी तक कुछ खास मालूम नहीं। कई बार कुछ खास तारीखों को कुछ खास तरह के ड्रामे हुए और उनका सीधा-सीधा सम्बन्ध हीट पीरियड, लिट्रल जैसे गायों-भैंसों के साथ होता है या फिर पीरियड्स से रहा?
मालूम नहीं ये महज़ कोइंसिडेन्स होते हैं या? जानकार शायद, इस सब पर ज्यादा जानकारी दे सकते हैं। काफी कुछ किसी न किसी फॉर्म में आसपास ही देखने, सुनने या समझने को मिलता है। जो कहीं न कहीं, किसी न किसी फॉर्म में, उसी वक़्त कहीं और हो रहा होता है। जैसे कहीं कोई खास मीटिंग और कुछ-कुछ वैसे से ही, इधर-उधर जमावड़े। कोई फिजिकल या फिजियोलॉजिकल डिस्कम्फर्ट्स और कुछ-कुछ वैसे से ही डिस्कम्फर्ट्स आसपास किसी को, ज्यादातर बढ़ाए-चढ़ाए हुए बिमारियों के रुप में। या चलते-फिरते संकेत या चिन्ह जैसे। या कुछ खास लोगों का आसपास कहीं आना या जाना। या आते-जाते रस्ते पर ही खामखाँ से जैसे कुछ पड़ा होना या फैला होना। ऐसा-सा ही कुछ पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों की फॉर्म में, किसी खास परेड जैसा भी हो सकता है। बिलकुल ऐसे जैसे धकाया गया हो, इस पार्टी या उस पार्टी द्वारा। वो धकाई हुई-सी कहानियाँ जैसे, ज्यादातर बहुत ही टेम्पररी होती हैं। ज्यादातर उतने ही वक़्त, जितने वक़्त ऐसा कुछ चल रहा होता है या कभी-कभी सांकेतिक सिर्फ। जैसे किसी भी तरह का कुछ बेचने वाला, या खरीदने वाला या वाले।
कुछ एक मौतों से पहले कुछ-कुछ शायद ऐसा ही था? मगर तब तक इन सब पर मैं इतना ध्यान नहीं देती थी। या यूँ कहो, की उतना शक नहीं था। और शायद ज्यादा कुछ पता भी नहीं था। पिछले महीने दादी की मौत से पहले कुछ-कुछ, ऐसा-सा ही था? या जब बहुत कुछ पहले ही कहा या बताया जा चुका हो, तो कई बार, खामखाँ भी आप ज्यादा सोचने लगते हैं? और कहीं न कहीं के कोइंसिडेन्स भीड़ जाते हैं?
एक तो गर्मी से हाल-बेहाल था। उसपे लाइट और कूलर में आग लगने के ड्रामे भी चल रहे थे। 12 से 14 जुलाई तक पैरों के हाल ऐसे थे जैसे कोई काट रहा हो, खासकर रात के वक़्त। सारी रात घूम-फिर के ही कट रही थी। क्यूँकि घूमने-फिरने पे उतना फील नहीं होता। पेन किलर खाओ और जैसे-तैसे पड़ जाओ। दो दिन ऐसा होते हुए हो गए थे। यूँ लग रहा था, जैसे कोई लेजर अटैक-सा कुछ हो रहा हो। थोड़ा ज्यादा हो गया ना? ऐसे दर्द में कुछ भी सोच सकते हैं। दिन में दादी की याद आई। कई दिन हो गए थे मिले हुए। इधर-उधर से बस खबर ही मिल रही थी। हालाँकि, घर साथ में ही है। मगर जहाँ आप कुछ कर ही नहीं सकते, वहाँ रोज-रोज जाना परेशान करने जैसा-सा ही होता है। मैं गई और देखकर यही समझ आया, कहीं ये दर्द भी, कहीं कुछ दिखाना या समझाना भर तो नहीं है? उनका खाना-पीना, दवाई, सब जैसे बंद हो चुका था। ऐसे जैसे, आखिरी साँसे गिनने के लिए छोड़ दिया गया हो। अच्छा खासा ठीक-ठाक हैल्थी इंसान, कुछ ही महीनों में जैसे कंकाल हो चुका था। मेरे हाथ लगाने पे उन्होंने आँखें खोली। देख रहे थे, मगर बोला नहीं जा रहा था शायद। कुछ देर बाद मैं उठ कर आ गई। और अगले दिन पता चलता है, की दादी नहीं रहे। उस रात मेरा पैरों का दर्द भी काफी हद तक गुल था। क्या था ये, पता नहीं। महज़ कोइंसिडेन्स या?
इस महीने हुई घर-कुनबे से ही लड़की की मौत के बाद वो स्पैम मेल्स, कह रही हों जैसे, हम गवाही दे रहे हैं, ऐसा हो रहा है?
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