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Saturday, August 31, 2024

संसाधनों का प्रयोग या दुरुपयोग (Use and Abuse) 20

खाने से शुरू करें या खेती-बाड़ी से?

कुछ वक़्त से दोनों पे ही फोकस है। इसी फोकस के चलते बड़े ही रोचक तथ्य सामने आए। आप जो खाना बचता है, उसका क्या करते हैं?

ऐसे ही खेती-बाड़ी से जो कचरा बचता है, उसका? इसमें पशुओं का कचरा भी जोड़ सकते हैं। 

कचरा किसी भी तरह का हो, बड़े काम का होता है, व्यवसायों वाले दिमागों के लिए। और पहाड़-सा भार होता है, ज्यादातर, आमजन के लिए। आजकल जितना और जितनी तरह का कचरा होता है, पहले नहीं होता था। तो कचरे के पहाड़ भी नहीं होते थे। आज भी ये कचरे के पहाड़,  विकासशील और अविकसित देशों की निशानी हैं। विकसित देशों की नहीं। विकसित देशों में पहाड़, नदियाँ, झरने, जमीन ज्यादातर साफ़ और सुन्दर होती है। ठीक ऐसे ही, जैसे उनके गाँव और शहर।     

Worms (कीड़े) 

व्यवसाय वाले कीड़ों तक का प्रयोग या दुरुपयोग कर फायदा कमाते हैं। ठीक-ठाक दिमाग होंगे तो प्रयोग ही करेंगे। मगर, कितनी ही तरह के कीड़ों का ही नहीं, बल्कि मल- मूत्र, पसीना, और कितनी ही तरह के शरीर के द्रव्यों और गतिविधियों तक का प्रयोग या दुरुपयोग कर बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भी फायदा कमाती हैं। वो भी आम आदमी की जानकारी के बिना। वो जिसे आप बदबू कहते हैं या जिस पर बात तक करना पसंद नहीं करते। भला बड़ी-बड़ी कम्पनियों के वो सब किस काम का? सोचो?

बड़ी-बड़ी कंपनियों के ही नहीं, बल्कि राजनीती के भी ये सब बड़े काम का है। और सब मिलीभगत से लगे पड़े हैं आम आदमी तक की दिन-रात रिकॉर्डिंग करने। आपको नहीं मालूम? दुनियाँ भर की कितनी ही कंपनियाँ वो सब कर रही हैं? एकाध का नाम जानते हैं? नहीं? आपके हाथ में मोबाइल, कौन-सी कंपनी का है? उस मोबाइल को एक बार ढंग से जानने की कोशिश करो। उसमें क्या-क्या है? आप उन सबका कितना प्रयोग करते हैं? उन्ही का दुरुपयोग, दुनियाँ के किसी और हिस्से में बैठ कर भी, कितनी सारी कम्पनियाँ कर रही हैं? वैसे तो ये अपने आप में बहुत बड़ा विषय है दुनियाँ भर में। सुना है महाद्वीप तक इस पर एक दूसरे से लड़ रहे हैं। जैसे USA और यूरोप।

 मगर भारत का आम आदमी, जिसके पास न्यूनतम जीने लायक सुविधाएँ तक नहीं हैं, वो कहाँ इतना सोचेगा? उस बेचारे को तो पीने का साफ़ पानी, खाने को अच्छा खाना और रहने लायक कोई घर, गुजारे लायक कोई काम- धंधा या छोटी-मोटी नौकरी मिल जाए, तो बहुत रहेगा। नहीं? उसपे कितने ही लोगबाग तो रहते ही कूड़े के ढेरों पर या उनके आसपास हैं। कुछ एक तो लिट्रल कूड़े के पहाड़ों पर या आसपास? सड़े गंदे नालों के आसपास? घरों में प्रयोग करने को पानी भी जैसे लैट्रिन के गढ्ढों से ले रहे हों? जनसँख्या ही इतनी है, ज़मीन कहाँ है? है ना? सिंगापुर जैसे देशों से ज्यादा जनसंख्याँ और कम ज़मीन? फिर वहाँ सब सही कैसे है? थोड़ा लोगों के दिमागों को चलाने का फर्क और थोड़ा हमारी और उनकी राजनीती के मुद्दों का भेद। हमारी राजनीती बेचारी अलग तरह के कीड़ों में घुसी हुई है। बाहर ही नहीं निकल पा रही उससे। तो ऐसी राजनीती अपने लोगों को क्या देगी? हरी-भरी सुन्दर ज़मीनो को भद्दा और बंजर करने का काम। हरे-भरे सुन्दर पहाड़ों, झीलों, झरनों और मैदानों को कूड़े के ढेरों में बदलने का काम। वरना तो ज़मीन को अपने ही जीवों से खुद को साफ़ करवाने के तरीके भी पता हैं। जिन्हें इंसान या तो दुरुपयोग करते हैं या मार देते हैं, ऐसी समस्याएँ वहाँ होती हैं। वहाँ नहीं, जहाँ उनको प्रयोग करने के तरीके पता होते हैं। 

Fertilizers (खाद)

तो आप कितना सिंथेटिक खाद प्रयोग करते हैं और कितना कचरे से बनाया हुआ? आपके हिसाब से कौन-सा ज्यादा सही है और क्यों? वैसे आपको कितनी तरह की खादों का पता है? और कितनी तरह के कीड़ों का? अगर पता होता तो शायद ना इतना सिंथेटिक खाद प्रयोग होता और ना ही कूड़े के ढेरों की समस्याएँ। 

Virals 

इस समस्या जैसी-सी ही Virals की औकात है। और सोचो हमारी राजनीती या उससे जुड़े लोगों ने कहीं, कभी-कभी उसे क्या बना दिया है? 

इससे आगे का संसार सच में खतरनाक है और उससे बचने और संभलने की जरुरत है। वो इंसान को रॉबोट बनाने वाला ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी का संसार है। उसके बारे में जितना जानोगे, उतना ही खुद को और अपने आसपास को बचा पाओगे। नई पीढ़ियों को खासकर, उससे निपटने की जरुरत है। वो जब आपके बच्चों को ATM रॉबोट जैसे खेल खिलाते हैं या खास तरह के रिंग्स के, तो उनके परिणामों पे गौर करना जरुरी है। ऐसा ही कोई दुष्परिणाम पीछे किसी बच्ची ने भुगता है। ज़िंदगी बची तो ऐसी-ऐसी सामाजिक समान्तर घड़ाईयोँ पे भी कोई किताब होगी। जिसमें खासकर इनके पीछे के कारणों पे बात होगी। टेक्नोलॉजी, सर्विलांस एब्यूज और साइकोलॉजी के डैड कॉम्बिनेशन जैसे। 

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