आदमी, पैसा, संसाधन तुम्हारे हैं।
उनका प्रयोग या दुरुपयोग, वो कर रहे हैं या करवा रहे हैं।
वो कौन और क्यों?
क्यूँकि, तुम भेझे से पैदल हो।
जैसे एक बहुत ही छोटा-सा उदहारण
कार कहाँ है?
दे दी।
मतलब?
बेच दी।
क्यों? अभी तो चाहिए थी मुझे। कुछ वक़्त और रुक जाते तो क्या हो जाता?
जिन्होंने दिलवाई थी, उन्होंने ही वापस करवा दी। वैसे भी तू कौन-सा प्रयोग कर रही थी। वो यहाँ खड़ी-खड़ी खराब ही हो रही थी।
कभी-कभी तो जरुरत थी। फिर ऐसी ही खटारा थी वो। एक बार देने से पहले पूछ तो लेते।
लेने से पहले पूछा था? ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह
मतलब यहाँ लोगों को, अपने बच्चों की जरुरतें खुद नहीं पता होती। बाहर वाले बताते हैं। जब तक उन बाहर वालों के अनुसार चल रहा है, सब सही है। जैसे ही वहाँ कुछ गड़बड़ लगी उन्हें, वो तुम्हारी जरुरत की चीज़ों को भी छीन लेंगे। पैसे तुम्हारे अपने घर के। आदमी तुम्हारे अपने। और काम किनके लिए कर रहे हैं?
ऐसा ही यहाँ ज्यादातर ज़िंदगियों के साथ है। थोड़े बहुत सही, मगर पैसे हैं। आदमिओं के रुप में संसाधन भी हैं। मगर उनका कब, कहाँ और कैसे प्रयोग या दुरुपयोग करना है, ये बाहर वाले बताएँगे। और ये सब वो बाहर वाले, बहुत अपनों के द्वारा या आसपास वालों से ही करवाते हैं। कैसे? राजनीतिक सुरँगे, इधर की, उधर की और ना जाने किधर-किधर की। जितना ज्यादा इन राजनीतिक सुरंगों को समझा जाए, उतना ही किसी भी समाज की स्थिति को समझने के लिए सही है शायद।
ऐसा ही जमीन का उदहारण है। बिचौलिया अपना। कहने को तो लेने वाले भी अपने हैं। बिचौलिया ठेकेदार बना घूमता है, बहुत से उल्टे-पुल्टे, खामखाँ के कामों में। क्यों? ठाली लोग, अब कुछ ना कुछ तो करेंगे। जैसा मैंने कहीं पढ़ा, वो ये सब खुद नहीं करता। उसके ऊप्पर कुछ और महान हैं। और उनके भी ऊप्पर कुछ और। है ना मस्त वाली सेंधमारी? या सुरँगे? क्या ये सुरँगे, कुछ अच्छा भी करवाती हैं? या सिर्फ उल्टा-पुल्टा? कहा ना, जब तक उनको कहीं कुछ अपने कामों या इरादों में गड़बड़ ना लगे। वो गड़बड़ लगते ही, वो किसी को भी और कैसे भी लटका देते हैं। जैसे ज्यादातर रिश्तों की गड़बड़ियाँ या बेवजह के रिश्ते जैसे।
बहुत-सी बिमारियों और मौतों का भी ऐसा ही है।
No comments:
Post a Comment