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Monday, September 2, 2024

संसाधनों का प्रयोग या दुरुपयोग (Use and Abuse) 21

कुछ लोग अच्छा काम भी करते हैं और आपको ना कहीं उनकी कोई फ्रॉड काम-धँधों की या मात्र दिखावे के लिए फोटो मिलती और ना ही विडियो। ऐसा क्यों? क्यूँकि, वो दिखावटी नहीं हैं। उन्हें किसी कुर्सी को पाने के लिए, कोई खास नंबर नहीं चाहिएँ। वो ना तो नेता हैं और ना ही अभिनेता। उन्हें दूसरों की ज़िंदगियों में ताकझाँक करने का वक़्त ही नहीं है। 

वो ना तो धोखाधड़ी के बाजार में है और ना ही लोगों को बताए या समझाए बिना टैस्टिंग-टैस्टिंग या एक्सपेरिमेंट-एक्सपेरिमेंट के धँधे में। वो भी लोगों को नीचा दिखाने को। या कोई शर्त या जुए के धंधे में पॉइंट कमाने के लिए। या अपना व्यवसाय आगे बढ़ाने के लिए, लोगों को झूठे-सच्चे या धोखे से बीमारी या मौतों तक के द्वार पहुँचा के। वो तो अपनी ही दुनियाँ में व्यस्त हैं। और जितना हो पाता है, उतना अपने आसपास का भला करने में। ऐसे लोगों का अक्सर राजनीती और राजनीती वालों से भी कम ही लेना-देना होता है। ऐसे आपको बहुत से आम आदमी मिल जाएँगे। मगर कहाँ? शायद आपमें से ही बहुत, जो अभी ये सब पढ़ रहे हैं? या शायद आपके आसपास भी? निगाह दौड़ा के देखो। ये वो लोग हैं, जो समाज की सही में समृद्ध नींव हैं। और उसे और बेहतर बनाने में, बिना किसी दिखावे के व्यस्त हैं। बदले में इन्हें मिलता क्या है? शायद शांति, थोड़ी बहुत अपनी और अपने आसपास की समृद्धि? चलो ऐसे कुछ जीवित संसाधनों और आसपास के संसाधनों का प्रयोग करने वालों की बात करते हैं। अपने आसपास 5-10 तो ऐसे लोग गिन ही सकते होंगे आप? 

कूड़े-कचरे से ही शुरू करें?

वो जो रोज आपके घर, गली और मोहल्ले को साफ़ करने आते हैं। सोचो वो ना आएँ तो? आप खुद कर लेते हैं क्या? भारत जैसे देश में तो गरीबों तक को ये सुविधा अक्सर होती है। और शायद इसीलिए वो अपने घर से बाहर का ध्यान कम ही रखते हैं। अपना घर या बाहर साफ़ हो जाए, वो कम है? सच में वो भी बड़ी बात है?

कुछ हैं, जो उससे थोड़ा आगे भी कर लेते हैं। खासकर, जहाँ म्यूनिसिप्लिटी जैसी कोई सुविधा नहीं होती। गाँवों और शहरों में भी ऐसी कितनी ही जगहें होती हैं ना? खासकर भारत जैसे देशों में। आपके आसपास भी हैं क्या? और कुछ नहीं तो वहाँ कोई डस्टबिन ही रख दो या रखवा दो। क्या पता लोगों को उनमें कूड़ा-कचरा डालने की आदत पड़ जाए? अब कूड़े-कचरे के डस्टबिन रखने भर से भी क्या? कोई तो उन्हें खाली करने वाला भी चाहिए? 

कचरा समाधान?     

ये आपकी रसोई से ही शुरु होता है। और देखते हैं, आगे कहाँ तक जाता है? क्यूँकि साफ़-सुन्दर जगहें, ताजगी का अहसास करवाती हैं। कितनी सारी बीमारियाँ तो वो, वैसे ही पास नहीं आने देती। घर या आसपास का साफ़-सुन्दर या तरो ताजा ना होना, अपने आप में कितनी ही बिमारियों को बुलावा है। और जब हम ऐसी जगहों पर रहने के आदि हो जाते हैं, तो हमें अहसास भी नहीं होता की हम बीमार जगह पे रह रहे हैं। उस जगह से किसी बेहतर जगह पर कुछ दिन रहकर देखो, खुद ही बदलाव समझ आएगा। और किसी भी कारणवश अगर ऐसा नहीं कर सकते, तो कम से कम अपने आसपास को तो बेहतर बनाने का काम कर ही सकते हो?

और ये फोटोजीवी और ड्रामेबाज़ नेताओं के लिए 

आप जहाँ-जहाँ से वोट लेते हैं, वहाँ के क्या हाल हैं? क्या हो, अगर वोट माँगना ड्रामों जैसा-सा, मात्र भीख माँगने जैसा, वो भी अपनी गरीब जनता से, अभियान या रैली ना होकर, ऐसी-ऐसी, छोटी-मोटी समस्याओं का समाधान भी हो?   

कुछ नेता लोग पेड़-पौधे तो दान करने लगे, अच्छा है। कचरे के समाधान के संसाधन भी दान करने लग जाएँ तो? जैसे 

यहाँ-वहाँ रखने के लिए छोटे-बड़े डस्टबिन 

कम, ज्यादा कैपेसिटी के वैक्यूम क्लीनर्स 

अलग-अलग तरह के डिकम्पोज़र्स, कम्पोस्ट बींस वैगरह 

ये डस्ट फैलाती झाड़ुएँ बहुत उठा ली, आपकी गरीब जनता ने। अपडेट सिर्फ तकनीकी बनाने वाली कंपनियों के फायदे के लिए क्यों हों? आमजन की ज़िंदगी को आसान बनाने को क्यों नहीं?  

एनवायरनमेंट, इकोलॉजी, फ़ार्मिंग, बायो या सिविल इंजीनियरिंग से सम्बंधित डिपार्टमेंट्स भी काफी कुछ कर सकते हैं, अपनी ही तरह के संसाधनों के प्रयोग से अपने आसपास के समाज के लिए। और कुछ नहीं तो मुफ्त में, ऐसा-ऐसा ज्ञान तो पेल ही सकते हैं। 

ये सब खास उनके लिए भी, जिन्हें लगता है की उनके मंत्री अनपढ़ हैं या उन्हें ऐसे अनुभव नहीं हैं और ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट्स पढ़ा-लिखा वर्ग ही बेहतर कर सकता है।  B.Tech. और M.Tech. trainees बड़ी-बड़ी कंपनियों से ट्रेनिंग पाने की लाइन में लगते हैं और कितने ही फेक-डाटा चेपकर ट्रेनिंग रिपोर्ट सबमिट करते हैं। सीधी-सी बात, ऐसे-ऐसे स्टूडेंट्स आगे ज़िंदगी में क्या करेंगे? यही स्टूडेंट्स अगर ऐसे छोटे-मोटे प्रोजेक्ट्स भी सही से कर पाएँ तो अपना ही नहीं, बल्कि अपने-अपने समाज का भी भला करेंगे। ऐसे इलाकों में, किस तरह के और कैसे प्रोजेक्ट्स स्टूडेंट्स आसानी से और बेहतर तरीके से कर सकते हैं, शायद उसकी भी कोई लिस्ट उन्हें ऑनलाइन अपनी ही यूनिवर्सिटीज की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध हो जाए, तो स्टूडेंट्स को भी यहाँ-वहाँ धक्के ना खाने पड़ें। और गाँवों और शहरी इलाकों की ऐसी-ऐसी दिखने में छोटी, मगर दुष्परिणामों में बड़ी समस्याएँ, वैसे ही हल हो जाएँ। वैसे तो बड़ी कम्पनियाँ भी चाहें तो, ऐसी-ऐसी समस्यायों के समाधान में योगदान दे सकती हैं। और शायद दे भी रही हों?       

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