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Tuesday, September 3, 2024

संसाधनों का प्रयोग या दुरुपयोग (Use and Abuse) 22

घर ये घुटा-घुटा सा? 

या है खुला-खुला सा? 

आपके आसपास की हर चीज आपको प्रभावित करती है। जिस घर में या अड़ोस-पड़ोस में रहते हैं, वो सब भी। आपने कैसे-कैसे घर देखे हैं? या कैसे-कैसे घर में आप रहे हैं या रह रहे हैं? जिस घर में अभी रह रहे हैं, उसको कितने रंग-रुपों में बदलते, सवंरते या बिगड़ते देखा है? उस संवरने या बिगड़ने का मतलब, सीधा-सा कहीं उस घर के लोगों के हाल या स्वास्थ्य से भी तो नहीं है? ऐसा-सा ही आसपास के वातावरण का प्रभाव होता है।   

अगर ज़िंदगी भर एक ही घर में रहे हैं, तो भी कितने बदलाव उस घर में आपने देखे हैं? अगर एक से ज्यादा घरों में रहे हैं और एक से ज्यादा जगहों पर रहे हैं, तब तो आप बहुत कुछ बता सकते हैं, की अलग-अलग तरह के घरों का या आसपास का, अड़ोस-पड़ोस का कितना असर आपकी ज़िंदगी पर पड़ता है। चलो, किसी और के उदहारण की बजाय, मैं अपने से ही शुरु करती हूँ। 

मेरी पैदाइश इस छोटी-सी राम सिंह (बड़े दादा, पड़दादा) की हवेली की बताई। जो उस वक़्त भी दो टुकड़ों में थी? हमारा घर, दादा बलदेव सिंह का और साथ वाला दादा हरदेव सिंह का। मुझे ऐसा कुछ याद नहीं। किसे होता है :)

बचपन, दादा के अपने बनाए घर में बिता और मस्त रहा। खुला आँगन, खुला-खुला सा घर। आसपड़ोस के बच्चे हमारे घर खेलने आते थे। तो हमें जरुरत ही नहीं होती थी, कहीं बाहर खेलने जाने की। घर के ही बुआ, ताऊ के बच्चे इतने होते थे। उसपे उन दिनों खच्चर की तरह, पीठ पे लदने वाले बोरे या कट्टे से भारी-भरकम बैग भी नहीं होते थे। छटी या सातवीं तक का मुझे वही घर याद है। वैसे तो जब मैं 5th में ही थी, तभी माँ और आंटी अलग हो गए थे। कहने को तो अलग हो गए थे, मगर सही से अलग होने में कई साल लगे थे। हमारे बाँटे, ये छोटी-सी हवेली का टुकड़ा आया था। मैं तो यहाँ रुकती ही नहीं थी। पता नहीं क्यों, ये बड़ी डरावनी लगती थी। शायद थोड़ा अँधेरे की वजह से, खासकर इसकी सीढ़ियों में। अँधेरे का वो डर, थोड़ा बड़े होने पे, कई सालों बाद निकला था। या कहो की भैया ने निकाला था, ताऊ के लड़के जो साथ वाले घर ही पढ़ने आते थे। इसी दौरान, वो ऊप्पर से बंद सीढ़ियाँ भी तोड़कर खुली नई बना दी गई थी, और अँधेरा भी गुल हो गया था। गाँव का सफर, यहीं तक था। ऐसा मुझे लग रहा था। कभी सोचा ही नहीं की इतने सालों बाद, वापस भी जाना हो सकता है।   

11th से रोहतक मेरा घर (हॉस्टल) हो गया था। नाना-नानी भी वहाँ से पास ही पड़ते थे, तो छुटियाँ दादा के घर और वहाँ में बँट जाती थी। नाना का घर भी खुला-खुला सा था और मुझे अच्छा लगता था। हालाँकि, ये हॉस्टल कोई खास अच्छा नहीं था। यहाँ डारमेट्री थे। एक छोटे-से कमरे में ही 3-4 लड़कियाँ। मेरी आदत अकेले रहने की थी, तो शुरू में थोड़ा मुश्किल हुआ। मगर जहाँ रहने लगते हैं, वहाँ कुछ वक़्त बाद एडजस्ट हो जाते हैं। UG के बाद PG नया हॉस्टल और उससे थोड़ा बेहतर। थोड़ा ज्यादा खुला-खुला सा और अपना अलग कमरा। हालाँकि बाथरुम यहाँ भी कॉमन होते थे। मगर ज्यादा भीड़-भाड़ वाले नहीं, खासकर अगर आप सुबह जल्दी उठने वालों में हो तो। PhD तक वो माहौल रम चुका था। वैसे भी, कई साल जब एक जगह रहो, तो वहाँ के आदि हो जाते हो। 

इस बीच 2 छोटे-छोटे से ब्रेक रहे। एक महीना या 2 महीना शायद, सैक्टर-14, PhD में एंट्री से पहले। इतने लम्बे समय तक हॉस्टल रहने के बाद, बाहर कोई छोटा-सा कमरा लेकर रहना, शायद थोड़ा मुश्किल होता है। कोई खास पसंद नहीं आया। खासकर, अपना खाने का इंतजाम खुद करना। PhD के खत्म होने के आसपास US, Florida. मुश्किल से 2-महीने के आसपास। अपार्टमेंट शेयर्ड, 218, Oakville? ये रिवर्स गियर पढ़ाई, आजकल "Reflections" में चल रही है। यहाँ पे सिर्फ खाने का ही इंतजाम खुद नहीं करना था, बल्कि, सबकुछ जैसे थोड़ा मुश्किल-सा था। कुछ तो शायद इसलिए, की घर की दहलीज़ से ही बाहर, जैसे, पहला कदम था। रोहतक, दिल्ली के जाने-पहचाने से ऐकडेमिक माहौल से आगे यही था। दूसरा, शायद इतने सालों बाद समझ आया की चल क्या रहा था? और वो माहौल, थोड़ा मुश्किल क्यों लग रहा था?

और मैं फिर से वापस अपने उसी सालों से रमे-जमे माहौल में थी, हॉस्टल। अब स्टूडेंट या स्कॉलर नहीं, बल्कि फैक्ल्टी। मगर हॉस्टल में, महज़ 4-5 महीने ही रही। 

सैक्टर-14, 547

17 फरवरी, 2009 को टाँग टूटी और पहुँच गई, यूनिवर्सिटी के सामने ही सैक्टर-14 । हॉस्टल से बाहर, घर जैसे-से माहौल में रहने की शुरुवात थी। मगर, ज्यादा कुछ खास वैसे नहीं बदला था, जैसे अक्सर कोई अपार्टमेंट या अपना घर लेकर रहने पर बदलता है। खाना बनाने के लिए कुक वही हॉस्टल से था। आसपास का सर्कल, वही हॉस्टल-सा था, MDU और PGI। सफाई, वही जो नीचे के घर में काम वाली आती थी, वही करती थी। वहाँ जो अंकल-आंटी रहते थे, वो भी अच्छे थे। लगा ही नहीं, की आप कहीं बाहर रह रहे हो। फिर, बदला क्या था? Open House Concept?  

क्या है ये Open House Concept? 

आपके घर और आसपास के Designs में ही, आपका आने वाला कल भी लिख दिया हो जैसे? कोई Attack और Open House Concept? मिलता-जुलता है, क्या कुछ? 

आप ये सब सिर्फ पढ़कर ही नहीं समझ सकते। क्यूँकि, मुझे खुद इतनी सारी जगहों के designs और लोगों की ज़िंदगियों से समझ आया है। खासकर, अपनी और अपने आसपास वालों की ज़िंदगियों से। भाभी की मौत शायद turning point था। जैसे मैं हर चीज़ पे, हर डिज़ाइन पे प्रश्न चिन्ह लिए हुए थी। और उत्तर, उस डिज़ाइन के आसपास या बाद में हुए घर और आसपास के बदलाव बता रहे थे। ये सब जानना-समझना, ऑफिस के designs से शुरू हुआ था। 

इस घर के बाद, बीच में 2-3 महीने का ब्रेक जैसा-सा कुछ था। सैक्टर-14 के बाद, वापस यूनिवर्सिटी। मगर हॉस्टल नहीं, फैकल्टी रेजिडेंस। 

H#16, Type-3 

अक्टूबर 2011 से अक्टूबर 2016 ऑफिशियली। यहाँ के किस्से-कहानियाँ, तो बस किस्से-कहानियाँ ही हैं। शायद किसी और पोस्ट में आप पढ़ चुके होंगे। मैडम, "जो यहाँ रहते थे, वो ऐसे थे, वैसे थे।" मगर आप जब उनसे मिले, तो लगा, ये तो बिलकुल नॉर्मल-से हैं। फिर? बहुत कुछ था, जो काफी बाद में समझ आया। इंसान और उनके काम नॉर्मल-से होते हुए भी, राजनीती और सिस्टम की भाषा में बहुत-कुछ अजीबोगरीब और कोडेड हो सकते हैं। वैसे ही जैसे, ज्यादातर धर्म-कर्म और कहीं के भी रीती-रिवाज़। आम आदमी उन्हें जैसे देखता, समझता या करता है, सिस्टम और राजनीती में उसके बिलकुल उल्टा-पुल्टा भी हो सकता है।    

H#30, Type-4 

ऑफिशियली तो 2016 के आखिर में ही मिल गया था। मगर मैं थोड़ा लेट शिफ्ट हुई, मार्च 2017. काफी कुछ सही नहीं लग रहा था शायद। तब से जब तक उस घर में रही, मानो कोई मारा-मारी ही चली जैसे। इस घर के डिज़ाइन में ऐसा क्या खास था? या शायद इसके नंबर ही खास हैं? या ये मारा-मारी, चल तो पहले भी रही थी। अब उसे पढ़ना और समझना भी शुरु कर चुकी थी। उसपे इधर-उधर से कोड्स की ट्रेनिंग भी जैसे, शुरु हो चुकी थी।                  

तो क्या हम सिर्फ घरों, ऑफिसों या ईमारतों के डिज़ाइन देखकर, आने वाले कल के बारे में भी कुछ बता सकते हैं? या बीते हुए कल के बारे में, शायद? और कुछ नहीं तो, थोड़े-बहुत बदलाव करके ही, किसी बुरे में सुधार तो कर ही सकते हैं? और उनमें कुछ तो बहुत ही आम-सी बातें हैं, जिनका ख्याल रखा जा सकता है। जिन्हें जानकर शायद आप कहें, ये क्या खास हैं? ये तो हमें भी पता हैं। पता तो हमें कितना कुछ होता है? मगर बात ये है, की अमल कितने पर होता है? जैसे आपके गौत्र से ही शुरु करें? भला इसका घरों या इमारतों के डिज़ाइन से क्या लेना-देना?

इसका लेना-देना, आपके पास जो संसाधन हैं, उनके प्रयोग या दुरुपयोग से है। कैसे? आप सोचो। आगे जानते हैं, इन सबपर। 

2022 में गाँव वापस। वही पुरानी, पैदाइश वाली छोटी-सी हवेली का आधा टुकड़ा? आधा? या ऊप्पर का भाग तो कहो, पूरा का पूरा ही। क्यूँकि, ये ऊप्पर से खुला है। माँ का घर। 2023 से, भाभी की मौत के बाद, माँ भी कम ही आती हैं यहाँ। मेरा ठिकाना और कब तक है, ये खँडहर? खँडहर में रहने वाले भी खँडहर से ही हो जाते हैं? तो जितना जल्दी हो सके, निकल लेना चाहिए ऐसी जगहों से? कुछ स्टॉप बड़े ही unintended और out of nowhere से, जाने कहाँ से आ टपकते हैं? और कुछ ज्यादा ही वक़्त खा जाते हैं। जाने क्या अच्छा या बुरा दिखाने और समझाने के लिए? वैसे माँ तो इसे ज़िंदगी भर रखने वाले हैं, चाहे वो अब यहाँ रहें ही ना। और मेरा अगला ठिकाना कहाँ है? अभी तक तो हवाओँ में जैसे? यूनिवर्सिटी की पोटली में बंद जैसे? या खुद के इरादों में? 

तो आपके घरों या शायद ऑफिसों के designs या नंबरों की कहानी क्या है? गंजों की तो बहुत होती होंगी या उन लोगों की, जिन्हें ईधर-उधर काफी आना-जाना पड़ता है? बहाने कुछ भी हो सकते हैं, पढ़ाई, नौकरी या कुछ और? मगर, इतनी ऊप्पर-नीचे सबकी कहानियाँ नहीं होती होंगी? बहुतों का ग्राफ तो ऊप्पर की तरफ ही चलता रहता है और बहुतों का स्थिर-सा जैसे? और भी कितनी ही किस्में हो सकती हैं, इन सबके बीच?      

ऐसी-ऐसी कुछ और आसपास की कहानियों पर भी आएँगे। कहीं ऑफिसियल स्पेस से, तो कहीं?    

गंजों some defence officers gave this name to themselves, long back. It's not that takla, people wrote somewhere.       

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