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Thursday, September 5, 2024

संसाधनों का प्रयोग या दुरुपयोग (Use and Abuse) 27

कोई भी समाज सिर्फ राजनीतिक पार्टियॉं के सहारे आगे नहीं बढ़ता। बल्कि, उस समाज का आदमी जितना जागरुक और अपने और अपने आसपास या समाज के भले के लिए जितना काम कर रहा होता है, बस उतना-सा ही बढ़ पाता है। जब यहाँ रहने आई तो यहाँ के हाल तो ऐसे लगे, जैसे सब एक-दूसरे के खिलाफ ही लगे हुए हों। ऐसे लगे, मगर कैसे? इसके राज शायद in out वाले ड्रामों में छुपे हैं? जानकार थोड़ा ज्यादा बता पाएँ शायद। 

अपने अनुभव से जो मुझे समझ आया, उसे जानने की कोशिश करते हैं 

In enforcements (Illegal Jails) 

ये जेल आपके अपने लिए भी हो सकती हैं और आपके अपनों के लिए भी। और इन अपनों में कोई भी हो सकता है। 

कोई बेटा शराब के नशे में माँ को इतना बेहुदा बोल रहा हो की समझ ही ना आए, की आप कहाँ पहुँच गए? तो शायद आप कहें, शराब के नशे में कुछ भी हो सकता है? शराब, ड्रग्स, लोगों के कुछ आसपास के केस, किसी और ही जहाँ की सैर करा रहे थे। एक ऐसे संसार की, जैसे वो जानबूझकर घड़ा गया हो। संभव है क्या? है ना। वही जो मैं सामाजिक समान्तर घड़ाईयोँ की बात करती हूँ। वो सब यही है। सोचो आपको लगे, की जो ये बेटा, किसी माँ को बोल रहा है या धमकी दे रहा है, वैसा-सा ही तो CJI कह रहा है? बस सभ्य और असभ्य या समाज के लेवल या स्तर और बोलचाल का फर्क है। बाकी तो कुछ भी नहीं। माँ-बेटा in enforcements जैसे? 

भाभी की मौत के मौत के बाद, माँ जब छोटे भाई के घर रहने लगी तो ऐसा-सा ही कुछ बहन के साथ बर्ताव होने लगा। बहन-भाई in-enforcements जैसे? उसपे थोड़ा काबू पाया, तो चाकू ड्रामे शुरू हुए या डंडा रखना इधर-उधर। यहाँ-वहाँ थोड़ा बहुत देख-पढ़कर समझ आया की ऐसे हादसों से बचना कैसे है या खुद ऐसे लोगों को अपना नुकसान करने से बचाना कैसे है। ये फिर से समाज के स्तर का फर्क था। 

अगर आप कॉलेज या यूनिवर्सिटी लेवल पर होंगे तो ज्यादातर फाइल-फाइल ही चलेगा। कुछ ज्यादा ही हो गया तो, केस कोर्ट तक जाएगा। हाँ। अगर जाहिल लोग यूनिवर्सिटी लेवल पर पहुँच गए हों तो, कहना ही क्या? जैसे वहाँ भी एक केस में ऐसा कुछ हुआ। ऐसे ही यहाँ भी हो सकता है या संभव है। सिर्फ मार-पिटाई ही नहीं, बल्कि मौत तक। क्यूँकि, इन रिश्तों में वो सब होने के चांस तो फिर भी उतने नहीं होंगे, जितना लोगबाग Amplify करना चाह रहे थे। जिनको मैं अक्सर इधर-उधर माचो, बहनचो, छोरीचो घड़ाईयोँ की कोशिशें बोलती हूँ। हाँ! उनका स्वरुप बिगड़कर कुछ और जरुर, बड़ी आसानी से बनाया जा सकता है। 

ये सब इंसान को रोबॉट बनाना ही है।    

Enforcements, मगर कैसे? 

बहुत से तरीके हैं। समाज के इस स्तर पर दारु सबसे बढ़िया हथियार है। और उसकी सप्लाई कब-कब और कहाँ-कहाँ से होगी, ये उससे भी ज्यादा अहम है। 

समझ तो ये सब आने लगा था, मगर इस समझ को और मजबूत किया, जब ऐसा कुछ भाभी की मौत के बाद गुड़िया के केस में भी करने की कोशिशें हुई। किसी बच्चे की माँ की मौत के बाद, होना तो अपने आप ये चाहिए की अब बच्ची को सँभालने वाले बुआ और दादी हैं। वो भी जब बच्चा, बुआ और दादी के करीब भी हो। मगर, कुछ महान लोगों ने कोशिश की उसे घर से ही बाहर करने की। किसी भी बहाने। जब वो सफल नहीं हुआ, तो उसे इधर-उधर से अजीबोगरीब इंस्ट्रक्शन मिलने लगी, की पापा के पास ही सोना है। वो कमरा नहीं छोड़ना। वैसे तो वो पहले से ही वहाँ सो रही थी, तो कुछ अजीब नहीं लगना चाहिए था। मगर, जिस तरह से वो इंस्ट्रक्शंस आ रही थी, वो थोड़ा अजीब लगा। बुआ के पास सोने की खास मनाही। जबकि पहले जब मैं यहाँ होती, तो अक्सर वो मेरे पास सोने आ जाती थी। उसपे बच्ची थोड़ी बड़ी हो रही थी, तो उसे अलग कमरा भी चाहिए था। और सबसे बड़ी बात, कमरा था भी। भाभी खुद उसे अलग कमरा देने वाली थी। फिर ये कैसी अजीबोगरीब इंस्ट्रक्शंस चल रही थी? ये सब समझ आया, जब ऑनलाइन कुछ देखा या पढ़ा। in-enforcements. बड़ों के केस में तो समझ आ सकता है ये सब, मगर बच्चे के केस में? ये कैसे इंफोरसमेंट्स? 

Subtle and insiduos ways to enforce some kinda unnecessary attachments? 

इसमें ना सिर्फ उस आदमी का अलग-थलग करना अहम होता है, बल्की, मानसिक और फिजियोलॉजिकल इम्पैटस भी धकेले जाते हैं। जैसे बच्चे या बुजर्गों के केसों में। इसे गोटियों को चलना भी बोल सकते हैं, पार्टियों की जरुरतों के हिसाब से। और आम भाषा में चालें और घातें तो हैं ही। आम आदमी, इन्हें वैसे देख या समझ ही नहीं पाता। क्यूँकि, उसके दिमाग में इतना कचरा नहीं भरा होता। उसके लिए रिश्तों के अपने मायने हैं। मगर, ऐसी परिष्तिथियों में जहाँ कोई ऐसे मौत हो या इस तरह काफी-कुछ, इधर-उधर हुआ हो, तो इंसान वैसे ही असुरक्षित महसूस करते हैं। बच्चे या बुजर्ग तो खासकर। ऐसी परिस्तिथियों में अगर चोरी-छुपे कोई फिजियोलॉजिकल इम्पैक्ट्स भी धकेल दिए जाएँ तो? वो चाहे फिर खाने-पीने के द्वारा हों या विज़ुअल्स या सुनाकर या किसी भी फॉर्म में कोई अहसास करवाकर? क्या कहेंगे इसे? इसी के साथ बच्ची का कुछ खाना-पीना भी बदल गया था। मुझे ऐसा लगा। स्कूल में भी किन्हीं खास तरह के प्रोग्राम्स पे ज्यादा ही फ़ोकस हो गया था। ऐसे हाल में आप अपने बचे-खुचे लोगों को भी छोड़कर कहाँ जा सकते हैं? वो भी तब, जब ये सब यहाँ पर सिर्फ आपको दिख रहा हो या समझ आ रहा हो? यहाँ-वहाँ से हिंट्स तो अहम हैं ही। जब आप खुद किसी ऐसी जगह पर रहने लगते हैं, तो बहुत कुछ केवल तभी समझ आ सकता है। मगर, ये सब सिर्फ यहाँ नहीं चल रहा। दुनियाँ भर में ऐसे ही है। कहीं कम, तो कहीं ज्यादा।    

Micromanagement of Social Conditions to get specific results? सोशल इंजीनियरिंग का बहुत बड़ा हिस्सा है ये।                                 

In Cel और थोड़ा-बहुत साइकोलॉजी, शायद इसी दौरान सामने आई थी। कहाँ से और कैसे, पता नहीं। कुछ एक और ऐसे से ही प्रोजेक्ट्स हैं, इधर-उधर की यूनिवर्सिटीज में। जिनपे आगे किन्हीं पोस्ट्स में शायद ज्यादा पढ़ने को मिले। 

थोड़ा बहुत मैंने शराब और नशे की आदत के बारे में भी पहले पढ़ रखा था। जब दूसरे भाई को यहाँ-वहाँ, खामखाँ वाले नशा मुक्ति केंद्रों में छोड़ा। उस हल्की-फुल्की पढ़ाई में भी, ऐसा ही कुछ था। अलग-थलग होना। कोई खास काम या रुटीन या ज़िंदगी का कोई मक़सद ही ना होना जैसे। या अभावों की ज़िंदगी, जहाँ आपके पास बेसिक सुविधाएँ तक ना हों। असुरक्षा का परिचायक हैं। ये असुक्षा की भावना पैदा करना अहम है। और ऐसे में इंसान को कहीं भी धकेला जा सकता है। ज्यादातर ये सब अपने आप नहीं होता। बल्कि धकाया हुआ होता है, राजनीतिक पार्टियों का।  

राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए ऐसी कंडीशंस घड़ना बहुत बड़ी बात नहीं है। वो भी इस सर्विलांस एब्यूज के जहाँ में। एक ऐसा जहाँ, जहाँ पे लोगों के पास बेसिक सुविधाएँ तक ना हों या कोई एक भी आदमी ऐसे घर में शराब पीने वाला हो, तो नर्क तो वहाँ वैसे ही हो जाता है। उसपे उन लोगों को राजनीतीक पार्टियाँ, कहीं कुछ अच्छा करवाने या बताने की बजाय, रोज-रोज किसी के खिलाफ, उल्टे-सीधे ड्रामों में व्यस्त कर दें, तो क्या होगा? वही जो यहाँ आसपास चला, कुछ मौतों से पहले? और सर्विलांस एजेन्सियाँ, जिनमें बड़े-बड़े अधिकारी भी ये सब देख, सुन या समझ रहे हों? क्या उनकी भी कोई जिम्मेदारी बनती है, ऐसे अदृश्य तरीकों से गुमराह कर आम लोगों को मौतों तक धकेलने वालों के खिलाफ कुछ करने की? अब किस-किस के तो खिलाफ करें? इतनी सारी तो पार्टियाँ हैं और सबकी सब, इन्हीं सामाजिक समान्तर घड़ाईयोँ में लगी पड़ी हैं? सोशल इंजीनियरिंग, अपने-अपने नंबर घड़ने के लिए?

या शायद, लोगों को ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत तो जरुर, जागरुक तो किया ही जा सकता है, ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के इस एब्यूज के खिलाफ? मुझे भी शायद वो सब किसी ने पढ़ने के लिए ही धकेला हो, उन्हें सर्च रिजल्ट्स में out of nowhere जैसे लाकर? नहीं तो इस घर में भी और खतरनाक घड़ाईयाँ भी हो सकती थी, या शायद चल रही थी? पुरे घर को ही ख़त्म करने के लिए?  

घर के आसपास भी कुछ एक घरों में, ये धकेले गए-से जैसे, in out वाले ड्रामे सुने या देखने-समझने को मिले। उससे भी बड़ी बात, उनके घर के अंदर या बाहर के खास designs. जी हाँ, घरों के designs. हर-एक को देखकर यूँ लगे, जैसे, अकैडमिक इंस्टीटूशन्स से ज्यादा तो पढ़ने-समझने और लिखने के लिए, यहाँ समाज के अंदर भरा पड़ा है। Highly Interdeciplinary खिचड़ी। 

और भी बहुत कुछ है, इस मानव-रोबॉट घड़ाई में। 

पैदाइश ही खास किरदारों की होती है? खास जगह और खास तारीखों को?

ज्यादातर जीने ही ऐसे बच्चों को दिया जाता है? नहीं तो किसी ना किसी बहाने ख़त्म कर दिया जाता है?

यही वयस्कों और बुजर्गों के केस में है? जहाँ-जहाँ ये राजनीतिक लड़ाईयाँ जितनी ज्यादा हैं, वहाँ-वहाँ बिमारियों और मौतों के धकाए हुए किस्से-कहानियाँ भी। और रिश्तों की तोड़फोड़ या बेवजह-सी लड़ाईयाँ भी। जिनसे वक़्त रहते बचा भी जा सकता है और अपने आसपास को बचाया भी जा सकता है। मानव रोबॉट घड़ाई के और अलग-अलग तरह के कारणों, किस्से-कहानियों पर आगे किन्हीं पोस्ट्स में।                                    

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