यूनिवर्सिटी में तो जो था, वो तो था ही। गाँव आने पे भी वो सब रुका नहीं, बल्कि यूँ लगा और ज्यादा बढ़ गया जैसे। उसपे यहाँ घर ऐसे, खासकर माँ के घर के साथ, जैसे एक दूसरे के ऊप्पर बैठे हुए हों। समझ ही ना आए, ऐसे लोगों से निपटो तो कैसे भला? भाभी की मौत के बाद तो तमाशा इतना बढ़ गया, की यूँ ही ना समझ आए की लोग कितने निर्दयी हो सकते हैं? बच्चे तक को नहीं बक्सा जा रहा था। जैसे-तैसे वो वक़्त बीत गया। पार्टियों के बारे में जितना समझ आया, वो शायद कहीं और रहकर समझना मुश्किल था। अब तो राजनीती और राजनीतिक पार्टियों से और ज्यादा नफरत हो गई। समझ ही नहीं आ रहा था, की राजनीतिक पार्टियों द्वारा करवाए जा रहे, इन अजीबोगरीब रोज-रोज के भद्दे ड्रामों से कैसे निपटा जाए?
धीरे-धीरे आसपड़ोस में भी कुछ ऐसा बदलने लगा, जो सही नहीं था। और लोगबाग अपने-अपने घरों में, जैसे दुबकने लगे। और शायद थोड़ा बहुत डरने भी लगे? मौतों का ये खौफ इधर-उधर भी फैला और काफी कुछ अपने आप जैसे शांत हो चला। और शायद लोगों को ये भी समझ आने लगा, की कोई राजनीतिक पार्टी, किसी की अपनी नहीं होती। वो आपका प्रयोग या दुरुपयोग, सिर्फ अपनी कुर्सियों के खेल तक ही करते हैं। जैसे-जैसे हकीकत के जाले और खुलेंगे, शायद यही लोग, उन्हीं पार्टियों से दूर भी भागने लगेंगे। आखिर, कब तक लोगों की ज़िंदगियों को इस कदर तोड़ती-मरोड़ती ख़ुफ़िया और बेहूदा सुरंगे अपने राज छिपा पाएँगी?
यही राजनीतिक पार्टियाँ, जो जनता के भले के नाम पे आती हैं, असलियत में करती क्या हैं? कैसे जाने की वो क्या करती हैं? उनके मैनिफेस्टो से? या हकीकत में किए गए कामों से? कोई भी समाज सिर्फ राजनीतिक पार्टियॉं के सहारे आगे नहीं बढ़ता, बल्कि, उस समाज का आदमी जितना जागरुक और अपने और अपने आसपास या समाज के भले के लिए जितना काम कर रहा होता है, बस उतना-सा ही बढ़ पाता है।
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