Wednesday, December 25, 2024

How Was The Year 2024?

कैसा रहा ये साल? क्या है आपका हाल? 

ये वो साल था जब लिखना और इंटरनेट ही जैसे एकमात्र सहारा था, बाहर की दुनियाँ से इंटरैक्शन का। फोन तकरीबन बंद था जैसे। चल रहा था शायद कुछ अजीबोगरीब सन्देश या कॉल्स सुनने के लिए। कुछ कोड से जैसे ईधर के, और कुछ उधर के? और कुछ खामखाँ भी। 

इतने सालोँ बाद कार गुल थी ऐसे, जैसे, दुनियाँ ही थम-सी गई हो? कार हमें सच में Independent बनाती है या शायद काफी हद तक Dependent भी?

एक तरफ "Reflections" के लिए वक़्त था तो दूसरी तरफ कुछ अजीबोगरीब बावलीबूचों के कारनामों से निकला, "महारे बावली बूचां के अड्डे अर घणे श्याणे?" चाहें तो खीझ सकते हैं और चाहें तो हँस सकते हैं? Refelections से पहले शायद "दादा जी का छोटा-सा खजाना" किताब बन निकले? जिसके साथ लगता है, काफी छेड़-छाड़ हुई है। क्यों? ऐसा क्या खास था उनमें? कुछ जो मुझे पता है और कुछ शायद ही कभी पता चले। क्यूँकि, उनके ज्यादातर पत्र मैं पढ़ती थी। जब घर होती तो पढ़वाते ही मुझसे थे, खासकर हिंदी वाले। ये कुछ कहाँ से आ टपके? और एक-आध जो उनकी मर्त्यु के बाद भी मेरे पास था, वो कहाँ और कैसे गुल गए? पता नहीं। ऐसा तो कोई बहुत खास भी नहीं था उनमें। या शायद इधर-उधर हिंट आ चुके? 

वैसे पापा से सम्बंधित सिर्फ एक ही पत्र पढ़ा था मैंने, दादा जी के रहते। वो भी उनकी अलमीरा की सफाई करते वक़्त मेरे हाथ लग गया था इसलिए। कुछ बहुत पुराने हैं, मेरे जन्म से भी पहले के तो शायद कभी सामने नहीं आए। दुबके पड़े थे जैसे, इस, उस डायरी में। उनसे कुछ लोग शायद अपने जन्मदिन या आसपास के कुछ इवेंट्स जान पाए, जिन्हें आज तक नहीं पता?

बाकी जो पहले से लिखने वाले प्रोजेक्ट चल रहे हैं, वो तो वक़्त लेंगे। क्यूँकि, वो सिर्फ Reflections, यादें या खीझने की बजाए, satire जैसा विषय नहीं हैं।

इतने बुरे के बीच शायद, कुछ आसपास के लिए अच्छा भी रहा? बहुत सालों से ठहरी-सी या मरते-मरते बचती-सी ज़िंदगियाँ, शायद फिर से चल निकलें? उम्मीद पे दुनियाँ कायम है। ऐसी-सी ही कुछ ज़िंदगियाँ, आपको किसी भी हाल में जैसे प्रेरित करती नज़र आती हैं। कह रही हों जैसे, और कुछ ना हो सके तो थोड़ा-बहुत हमारे लिए ही कर दो। और जो शायद आप कर भी सकते हैं। शायद कोई छोटा-मोटा प्रोजेक्ट ही?   

आपका कैसा रहा ये साल? Merry XMAS & Happy New Year!

Tuesday, September 10, 2024

Food for thought

 


महाराष्ट्र चुनाव? 

हरियाणा में क्या था?

या शायद कहीं का भी इलेक्शन उठा लो?  

Saturday, July 27, 2024

मेरी किताबों की दुनियाँ

आधी अधूरी-सी पढ़ी किताबें? या कवर देखकर, समझने की कोशिश की किसी किताब को, और पन्ने पलटकर रख दी गई किताबें? कभी शायद वक़्त नहीं था, उस विषय को पढ़ने का तो कभी शायद रुची? फिर कुछ ऐसी किताबें या विषय भी हैं, जो एक बार नहीं, बल्की कई बार पढ़े? जाने क्या रह गया था या समझ नहीं आया था एक बार में, उनमें? फिर कुछ-एक ऐसी भी किताबें जो जितनी बार पढ़ी, उतना ही कुछ नया मिला जैसे पढ़ने को? बहुत-सी शायद ऐसी भी किताबें, जो किताबों से नहीं, बल्की, उनके लेखकों के दूसरी तरह के मीडिया से ज्यादा पढ़ी और समझी? जैसे ब्लॉग्स से या खबरों से या लेक्चर्स या और छोटे-मोटे वीडियो से? 

बहुत-सी किताबों को या विषयों को पढ़ने या समझने का मतलब, सिर्फ थ्योरी नहीं होता, बल्की प्रैक्टिकल होता है। ये किसी प्रैक्टिकल ने ऐसे और इतने अच्छे-से नहीं समझाया, जितना केस स्टडीज़ ने। कैंपस क्राइम सीरीज़ तो सिर्फ एक छोटा-सा ट्रेलर था। 

वो फिर चाहे एक तरफ माँ का Gall Bladder Stone ऑपरेशन रहा हो, तो दूसरी तरफ December 2019, एग्जाम फ्रॉड। मेरा अपना March 2020 backside terrible pain और हॉस्पिटल में टैस्टिंग के नाम पे kidney stone है या gall bladder stone है, जैसे ड्रामे। उसपे दूध की थैली से निकला जैसे सोडा, जिसमें कोई स्मैल नहीं और कोई खास स्वाद में फर्क नहीं देख, मेरा रोहतक से नौ दो ग्यारह होना हो, अपने गाँव। और कोरोना की शुरुवात जैसे। सही बात है, आप इतना कुछ कैसे सिद्ध कर पाएँगे? पागल नहीं तो क्या कहलाएँगे? सबसे बड़ी बात, ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी रिकॉर्डिंग्स, बड़े-बड़े लोगों के पास होने के बावजूद। फिर ऐसे-ऐसे पागलों पे देशद्रोह भी चलता है? ऐसे-ऐसे Mentally Sound (?) लोगों को या so-called officers को आप क्या कहेंगे? वो तो सब कुछ IRONED OUT कर देंगे? 

वैसे, इस IRONED OUT का सही मतलब क्या है? वैसे तो एक ही शब्द के कितने ही मतलब हो सकते हैं। जैसे एक पहले वाली पोस्ट में पढ़ा जैसे? और कुछ और सामने आए, जैसे?   

आयरन खत्म कर, मारना जैसे?

या ANEAMIA कर मौत तक पहुँचाना जैसे? लो जी, एक और कोड आ गया, ANEAMIA   

या?

मार-पीट कर यूनिवर्सिटी से ही नफरत करवाना जैसे? की ऐसे माहौल को छोड़, वो खुद ही भाग जाए?

या PRESSED OUT जैसे? Pressed को Processed भी लिख सकते हैं?    

इतना कुछ सिर्फ थ्योरी वाली किताबों से कहाँ समझ आता है? उसके लिए आपको ईधर-उधर, आसपास, बहुत-कुछ, देखना-सुनना और समझना पड़ता है। कभी समझ आ जाता है। कभी-कभी शायद दिक्कत भी होती है, समझने में। मगर रिसर्च या केस स्टडीज़ की किताबें, शायद ऐसे ही छपती हैं। जितने बड़े एक्सपर्ट, उतनी ही, गूढ़-सी कहानियाँ जैसे। कुछ ऐसी-सी किताबें पढ़ी हैं। जो अपने आप में केस स्टडीज़ हैं या केस स्टडीज़ जैसी-सी ही हैं। साइंस, टेक्नोलॉजी, मीडिया, कल्चर का मिश्रण, सब साथ-साथ चलता है। Highly Interdisciplinary दुनियाँ में हैं हम। फिर कुछ कविताओं की या बच्चों की किताबें भी हैं, जिन्हें शौक कह सकते हैं आप। जब कुछ खास पढ़ने-लिखने का मन ना हो, तो उन्हें उठा लो। तो कहाँ से शुरू करें? केस स्टडीज़ से? कविताओं से? या बच्चों जैसी-सी किताबों से?    

Friday, July 26, 2024

Internet of Things (IOT), Grey Colour NEO and Ghost Robotics

Internet of Things (IOT) क्या है? 

कैसे काम करता है?

क्या-क्या काम करता है?  

क्या ये घर की लाइट और इससे जुड़े ज्यादातर घर, ऑफिस या फैक्टरियों के इंस्ट्रूमेंटस या व्हीकल्स को इंटरनेट की मदद से दुनियाँ के किसी भी कोने में बैठकर कंट्रोल कर सकता है? या करता है? अगर हाँ? तो किस हद तक?

आपके घर का AC सर्विस के बाद, अगर ठंडा करने की बजाय गर्म करने लगे, तो क्या गड़बड़ हो सकती है?

ठीक करवाने के बाद, अगर और ज्यादा गर्मी करने लगे तो?

यही छोटी-मोटी कोई हेरफेर? 

ऐसे ही, अगर लाइट ठीक करवाने पे या थोड़े बहुत कोई नए स्विच लगवाने पे, आपका इलेक्ट्रीशियन अगर कोई अनचाहा स्विच भी बदल जाए? जैसे मेन स्विच? पहले पुराने जमाने का कोई सफेद सिंगल एंकर कंपनी का शायद, और बाद में कोई डबल grey colour का NEO लगा जाए? कोई खास फर्क नहीं पड़ता शायद? ये कंपनी हो या वो? बिजली वाले को शायद लगा होगा, लगे हाथों ये भी कर देना चाहिए? आपको भी कोई खास फर्क नहीं लगा। हाँ। किसी की ट्विटर वाल पे कुछ देख-पढ़कर, कोई शक जरुर हुआ। उसके कुछ वक़्त बाद, आपने वो स्विच बदलवा दिया। सब ठीक? लेकिन कुछ तारों के हेरफेर भी थे शायद, वो तो नहीं करवाए। अब इलेक्ट्रिसिटी का ABC नहीं पता, तो वो भी क्या फर्क पड़ता है? क्या फालतू के चक्करों में पड़ना? 

पीछे कूलर की जलने की काफी प्रॉब्लम आ रही थी। पर वो शायद सिर्फ यहाँ नहीं थी। लाइट फलेक्टुअट होना, बार-बार आना या जाना भी एक वजह हो सकता है। जो गाँवों में खासकर आम होता है। शिव इलेक्ट्रीशियन, बॉस वाटर पम्प, उसपे सॉफ्ट लाइन कूलर का भी कोई कनैक्शन हो सकता है?  

इस सब में Internet of Things (IOT) का क्या लेना-देना? हो सकता है क्या? पता नहीं। 

चलो छोड़ो, आओ थोड़ा IOT को समझने से पहले, एक रोबॉट से मिलते हैं। 

Ghost Robotics कम्पनी का नाम है। 

जिसके पास कई तरह के रौचक रोबॉट हैं। 

जो सीधे सपाट रोड पे ही नहीं बल्की पानी और बर्फ पे भी मस्त चलते हैं। 

Quadruped Unmanned Ground Vehicle (Q-UGV)  



इसका नया अवतार NEO है। 

ये मैं एक ब्लॉग पढ़ती हूँ, पिछले कई सालों से, वहाँ से पढ़ने को मिला। 2014 में जब मैंने H #16, Type-3 की शिकायत की थी यहाँ-वहाँ, उसके बाद खासतौर पे पढ़ना शुरू किया था, ऐसे-ऐसे विषयों के बारे में।     

“NEO can enter a potentially dangerous environment to provide video and audio feedback to the officers before entry and allow them to communicate with those in that environment,” Huffman said, according to the transcript. “NEO carries an onboard computer and antenna array that will allow officers the ability to create a ‘denial-of-service’ (DoS) event to disable ‘Internet of Things’ devices that could potentially cause harm while entry is made.”

Bruce Schneier, Public Interest Technologist, Harvard Kennedy School

जो कुछ ऊप्पर लिखा है, उनका आपस में कोई सम्बन्ध हो सकता है? ये सब आप सोचो। जानने की कोशिश करते हैं आगे, की इंसान रुपी मशीन और इंसान द्वारा बनाई गई मशीनों में कितना फर्क है? रोबॉटिक्स इंसान का और इंसान रोबॉट्स का अवतार हो सकता है क्या? या ऐसा तो दुनियाँ भर में हो रहा है। ये सामान्तर घढ़ाईयोँ में एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं क्या? या ये भी बहुत पहले से हो रहा है?

जैसे एक NEO, Ghost Robotics कंपनी का, तो दूसरा डिज़ाइन, ये घर में बिजली वाला मेन स्विच बदलने वाला? और भी कितने ही ऐसे-ऐसे सामान्तर डिज़ाइन या घढ़ाईयाँ यहाँ-वहाँ, लोगों की असली ज़िंदगियों में। इनमें से किसी का एक दूसरे से कोई नाता नहीं। सोशल स्तर भी बहुत ही असामान्य। एक तरफ रोबॉट्स बनाने वाली कम्पनियाँ और अपने-अपने फील्ड के बेहतर एक्सपर्ट्स, तो दूसरी तरफ? तिनका तक ईधर से उधर होने पर, भड़कने वाले अंजान-अज्ञान लोग। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे और मिडिल लोअर या गरीबी के आसपास लोग। अपनी अलग ही दुनियाँ में, जिन्हें कैसे भी और किसी भी नाम पे भड़का दो। कितना आसान है ना, ऐसे लोगों को रोबॉट बनाना? फिर आधी-अधूरी जानकारी तो, अच्छे-खासे पढ़े-लिखों को बना देती है। और यही गैप, इंसान द्वारा इंसान के शोषण के रुप में, जहाँ भर में हो रहा है, राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा।   

Thursday, July 25, 2024

Jammers, Radio Control (RC), Frequency Controls and Remote (IOT)

दूसरी भाषा में, दूसरे शब्दों में, घुमाऊ-फिराऊ, या फिर सीधे-सीधे भी? उसपे फिट भी हो, आप पर या आपके आसपास पर? आपके हालात पर, उसके कारणों या निवारणों पर। कभी-कभी हकीकत भी हो सकती है। और कभी-कभी, सिर्फ हमें ऐसा लग सकता है या समझ आ सकता है। वो समाधान भी हो सकते हैं। यूँ की यूँ, हकीकत भी या बढ़ा-चढ़ा रुप भी। या उसे किसी और तरफ घुमाना भी। और भी बहुत-कुछ कहा और किया जा सकता है। बातों ही बातों में। आमने-सामने भी और रिमोट कंट्रोल से भी। 

जैसे एक रौचक सी पोस्ट रोबोट डॉग इंटरनेट जैमर 

https://www.schneier.com/blog/archives/2024/07/robot-dog-internet-jammer.html      

आम आदमी को समझाने के लिए कोड की बात करें तो? कुत्ते (रोबॉट) ने, इंटरनेट को बंद किया या बैन किया या जैम किया। कुत्ते को बच्चा चाहिए और वो इंटरनेट से पैदा नहीं हो सकता। अब कुत्ता यहाँ रोबोट है। मशीन है। या फौजी है। क्यूँकि, युद्ध के फौजी भी मशीन ही होते हैं। 

इसे शायद यूँ भी समझ सकते हैं 

1. R O B O T 

2. D O G 

3. I N- T  E  R  N -E T 

4. J A  M M  E  R 

हालाँकि, कोड के हिसाब से तो कितनी ही तरह से लिखा जा सकता है और कितने ही मतलब हो सकते हैं। यहाँ सिर्फ आम आदमी की समझ के लिए है। कोई नाम हो सकता है, जगह का या स्थान का। कोई ग्रेडिंग हो सकती है। जैसे ABCD और कोई Block करना हो सकता है। जैसे R या M

इन सबके लिए आम आदमी को कहीं भी धकेला जा सकता है। खदेड़ा जा सकता है। हॉस्पिटल पहुँचाया जा सकता है। या दुनियाँ से ही उठाया भी जा सकता है। जैसे OXYGEN ख़त्म हो गई। और किसी R वाले या वालों को किसी खास तारीख, खास समय पर, खास जगह पहुँचाकर, खास तरीके से उठा देना। इनमें से ये खास तरीकों से इतना कुछ आम-आदमी की जानकारी के बिना होता है। कौन करवाता है, अहम है? या कहना चाहिए करवाते हैं। कैसे? उससे भी ज्यादा अहम है। इसे मानव रोबॉट बनाना बोलते हैं। 

जैसे?

Sunday, July 21, 2024

University Campuses

Location, does it matter? If yes, then how much?

Stunning locations. Beautiful large campuses. Impressive infrastructure. And what people are doing inside those campuses? They are a reflection of the society, they are surrounded by? Or they are something beyond those socities, they are surrounded by? But why am I talking about University Campuses? What could be my interest there?


Sunday, July 14, 2024

Learn and Earn?

Hack The Fall ?

Hackthon ?

Paths Co Op?

SharkTanks?

Learn and Earn? 

और भी कितनी ही तरह के प्रोग्राम और नाम हो सकते हैं? अलग-अलग पार्टियों या देशों के हिसाब-किताब के। फिर वो अमेरका के गलियारों में हों, यूरोप के या खास-म-खास ब्रिटिश लेन में। बड़ी-बड़ी इमारतें और बड़े-बड़े प्रोग्राम, सिर्फ लोगों का शोषण या दोहन करके तो नहीं होंगे? कुछ तो खास होगा, इससे आगे भी? नहीं तो हमारे यहाँ क्यों नहीं है, ये सब? 21 वीं सदी में भी, हम कौन-सा रोना रो रहे हैं?   

शायद कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गरीबी सदियों की, या शायद भेझे से लंजु-पंजू लोगों की? और देन? उनके सिस्टम की या कर्ता-धर्ताओं की? एक ऐसा सिस्टम या ऐसे कर्ता-धर्ता, जो चाहते हैं की लोग पढ़लिखकर भी उनके कशीदे पढ़ें? उनके गलत को गलत ना कहें? उनकी छत्र-छाया (आग उगलती धूप बेहतर शब्द होगा शायद?) से आगे कुछ भी ना देखें, सुनें या अनुभव करें?  

क्यूँकि, कभी-कभी कुछ लोगबाग जिसे गैप कहते हैं, वही शायद सबसे बड़ा आगे बढ़ने में रोड़ा दूर करने वाला, टर्निंग पॉइंट भी हो सकता है? क्यूँकि, जब so-called गैप नहीं था, तो कुछ भी छप ही नहीं रहा था। किसी ने बताया ही नहीं, की इसे कोढ़ वाला PhD गैप कहते हैं। जबकी कैसे-कैसे जोकर तक, कैसे-कैसे पेपर छापे बैठे हैं? और कैसे-कैसे लोग, कैसी-कैसी कुर्सियाँ लिए? कोविड-कोरोना के बाद किसी ने कहा, "मैडम अब कम से कम पेपर छापने में दिक्कत नहीं आएगी"। और किसी के लिए, "अब आपको USA ग्रीन कार्ड आसानी से मिल जाएगा"। शायद उन्हें मालूम नहीं था, की अब वो कौन से पेपर छापेगी? होता है शायद, कभी-कभी? या शायद अक्सर? खासकर, जब आप दूसरे की दुनियाँ या ज़िन्दगी को भी अपने अनुसार धकेलने लग जाओ? और सामने वाले को बिना जाने या सुने धकेलते चले जाओ? और बस धकेलते चले जाओ। सामने वाला चाहे, ऐसा-ऐसा भला चाहने वालों के भले को, दम घुटने की हद तक झेल रहा हो।  

हमारा सिस्टम और राजनीती आम लोगों के साथ यही कर रहा है। मुझे ऐसा लगा। उन सिस्टम बनाने वाले महानों, या राजनीती वालों को ऐसा क्यों नहीं लगता? सोचकर देखो की आप जितना कर रहे हैं, उससे कहीं कम में शायद, लोगों का ज्यादा भला कर सकते हों? और वो खुद आपके लिए भी, फायदे का सौदा हो? या हो सकता है, मैं अभी सिस्टम या राजनीती को उतना नहीं जानती? कुछ एक उदाहरण लें, आगे कुछ पोस्टस में?     

Sunday, June 9, 2024

यहाँ-वहाँ की बेचैनियाँ? या प्रश्न?

तुम कब तक हो यहाँ?

जब तक रस्ते ना खुलें। रस्ते बंद हैं भी, और नहीं भी शायद? 

तुम तो कहीं जा रहे थे ना? अप्लाई ही नहीं कर रहे, ऐसा क्यों?  

2022 के आखिर या 2023 के शुरू में किया था। यूँ लगा, जैसे कोई खेल चल रहा हो। जिसे ये या वो पार्टी खेल रही है। उसपे विषय थोड़ा बदला हुआ था, तो शायद थोड़ा वक़्त लगता है। भाभी के जाने के बाद अप्लाई ही नहीं किया। काफी कुछ समझना बाकी था, शायद। वही किया है, इस पिछले एक साल में।  

ये हवा का रुख क्या है?

मैं भी समझने की कोशिश कर रही हूँ :) कुछ कहते हैं मैपिंग है। तो कुछ लाइव स्ट्रीमिंग, स्क्रीन क्लोनिंग और लाइव स्क्रीन वॉच शायद। जिसमें जो कुछ भी आप ऑनलाइन देख, सुन या पढ़ रहे हैं, उसके हिसाब-किताब का एनालिसिस है शायद। मैपिंग-वैपिंग कुछ नहीं, फ्रॉड है। वो बच्चों और बुजर्गों के मैपिंग का बवंडर कैसे बनाते हैं? या बिन हुए को भी कभी-कभी, अपनी-अपनी पार्टी के हिसाब से जैसे पेलते नज़र आते हैं। 

ज्यादा तो नहीं मालूम, मगर इलेक्शन के दौरान और काउंटिंग वाले दिन बहुत कुछ रोचक था। इधर-उधर से, पिछले कुछ सालों में थोड़ा-बहुत समझ आया, की दुनियाँ के किस हिस्से की तरफ रुख का मतलब क्या है? उसी समझ के अनुसार, अगर आप इलेक्शन के दौरान, इधर वाले रुख की तरफ जाते नज़र आ रहे हैं, तो नंबर्स का आँकड़ा देखो। और फिर उसकी सच्चाई जानने के लिए इलेक्शन के परिणाम वाले दिन वो रुख बदल दो। मतलब, दुनियाँ के दूसरे हिस्से को पढ़ने लग जाओ। या वहाँ का रुख करते नज़र आओ।  

जैसे आप कोई लाइव डिबेट या इलेक्शन रिजल्ट देख रहे हों। और BJP की सीट्स, 300 पार देख गुस्से में बड़बड़ाएँ, "नीचे करो इन्हें, 270 से नीचे, 250 से भी नीचे"। बहुत हो गया 300-400 पार। और एक-दो मिंट बाद ही, एक एंकर कुछ-कुछ ऐसा बोले, लाइव खबर, BJP 300 से नीचे पहुँच गई है। नंबर और नीचे जा रहा है। और जादू-सा जैसे, सब चैनलो पे ऐसे ही चलने लगे। सिर्फ Coincidence? मगर कितने Coincidence? और नंबर, जादुई-सा जैसे 240 पे टिक जाए। तो दूसरी तरफ 99 या 100? मगर फिर कितने ही अगर-मगर हैं। ऐसे, कैसे संभव है? 

ऐसे ही जैसे, कौन नेता, कितने नंबरों से जीत रहा है? वो आम आदमी का वोट नहीं, कुछ और ही बता रहा है? और हरियाणा की फाड़-फाड़ जैसे? आधी इधर, तो आधी किधर? दिल्ली और UP समझ से बाहर। इनसे बेहतर तो शायद, बाकी राज्य समझ आ रहे हैं। राजनीती से नफ़रत करने वाला इंसान, राजनीती, इलेक्शन और इलेक्शन परिणाम समझने की कोशिश कर रहा है? सट्टा बाजार, अभी भी दूर की कोड़ी है। शायद ही कभी समझने की कोशिश हो। अपने विषय से कुछ ज्यादा ही दूर हो गया।   

मगर ये मीडिया में क्या चलता है या कैसे चलता है? कहाँ-कहाँ से चलता है? और कितना चलता है? आम जनता के लिए तो शायद, ये ज्यादा रोचक होगा जानना? Dissection of Media? या किसी भी सिस्टम में मीडिया की भूमिका? कहाँ जानने या पढ़ने को मिलेगा? References Please.  

Thursday, May 16, 2024

Eurovision Song Contest and Invisible Talent Behind

                                     एक जो दिखता है, मगर जैसा दिखता है, बिलकुल वैसा होता नहीं है  

और एक जो होता है, मगर दिखता नहीं है, अदृश्य है 

और मिलकर वो सब बनाता है, जो हमें दिखता है, या जो समझ आता है। 


कुर्सियों पे बैठे लोगों का यही है। उन्हें सही में जो लोग और जो फैक्टर्स मिलजुलकर बनाते हैं, वो आम आदमी को नहीं दिखते। बहुत से हादसों और बिमारियों का भी यही है। सोचो, उस सबको ठीक ऐसे प्रेजेंट किया जाए, जैसे इस शो के पीछे काम करने वाले, इतने सारे लोगों को और टेक्नोलॉजी को?  

Wednesday, May 15, 2024

Eurovision Song Contest Gone Mad?

 Since last few years, it seems Eurovision Song Contest has Gone Mad? 

Not even a single song, one can like?

Look at the winners

Like some monkey on stage?


What is he doing or singing? 


Grrrrrrrr?

इसके आगे भी कोई दुनियाँ है?

अरे नहीं पिछे?
जो सही मायने में ये शो चलाते हैं  --अदृश्य जीव? 
अब उन्हें जानने में रुची ज्यादा है।  

Wednesday, May 8, 2024

What makes a University, University?

University represents 

Knowledge?

Ideas?

Information?

Views?

Independance?

Trends?

True representation of that society?

Or maybe more than that?




कटपुतली का शो? जादू कोई?

कोई कहे छह, मगर एक?

या कोई कहे सात, मगर एक?

जैसे 16 या 17?

या शायद कोई कहे एक या दो। उसके बाद जितना आगे, उतना ही ज्यादा प्रैक्टिकल या व्यवहारिक? या टेक्नोलॉजी और ज्ञान-विज्ञान? जब आपको थोड़ा बहुत भी सिस्टम का कोढ़ समझ आने लगता है तो शायद आप जहाँ-कहीं उसी नज़र से देखने लग जाते हैं। जैसे  

जादू कोई? 

 कटपुतली का शो?

या ज्ञान-विज्ञान?


2019 जादू था। उसके बाद तो दुनियाँ बदल चुकी? 

Let's Fly?
Or Let's Go?

Shout Out Cowboys?
Or O Duck O?
Go Gatots?

Or 
Machines?
Mascots?
Terrains?
Specialities?
Wonders?
And?
Thunders?

Wednesday, April 24, 2024

शिक्षा हमारा मनोरंजन करती है, और मनोरंजन ?

 शिक्षा हमारा मनोरंजन करती है? 

और मनोरंजन हमें शिक्षा देता है?

एक गाने से ही जानने की कोशिश करें?  


क्या होता है, जब आप कुछ भी सिर्फ देखते हैं?
सुन नहीं पाते, या जो सुनते हैं, वो समझ नहीं पाते?
जैसे ये गाना रशियन में है। 

अगर हम रशियन नहीं भी समझते, तो भी बहुत कुछ देख पा रहे हैं। 
वो जो आप देख पा रहे हैं, वो कोई तस्वीर बना रहा है आपके दिमाग में। 
कोई धारणा या अवधारणा (perception), बिठा रहा है, आपके दिमाग में। 
   
क्या धारणा है वो?

आपको जो समझ आया, उसे आप अपने दिमाग में रखिये। 
अगली पोस्ट में उसमें कुछ और जोड़ते हैं। 

Monday, April 22, 2024

Crazy, Crazy World!

 वो गाने ऐसे देखती है, जैसे नंगी-पुंगी गुड़ियाँ । ऐसे लोगों के लिए --

वो experiment ऐसे करते हैं, जैसे सालों पहले किसी ने बोला था, एक ऐसा Forensic चल रहा है, जहाँ सब नंगा-पुंगा है। लोग इंसानों पे जानवरों से भी बदत्तर experiments कर रहे हैं। और जिसमें पुलिस, डिफ़ेंस, सिविल, इंटेलिजेंस सब शामिल हैं। ईधर भी और उधर भी।  


यहाँ तक तो लैब के नंगे-पुंगे से experiments ही थे?
अरे नहीं, यहाँ Adam ruins everything भी आ गया लगता है। बच्चों के IPAD छोड़े, ना फोन।  

फिर पता चले की, एक ऐसा जहाँ भी है। जहाँ उधेड़ डालते हैं। खाल ही नहीं, शरीर के अंदरुनी भाग भी। अब ये कौन-सा जहाँ है? ये राजनीतिक युद्ध हैं, जो दुनियाँ भर में चलते ही रहते हैं। 24 घंटे, 365 दिन, बिन रुके। जहाँ सब कुछ धकाया जाता है, पार्टियों के जुए के अनुसार। इधर से उधर, उधर से इधर। और लोगों को पता तक नहीं होता, की वो सब अपने आप नहीं होता। लोगों की बिमारियाँ और मौतें, उस अल्टीमेट खेल (जुए) का सबसे घिनौना खेल हैं। जिसमें किसी को नहीं बक्सा जाता। बच्चे क्या, बुजुर्ग क्या, औरत क्या, पुरुष क्या। इंसान क्या, जानवर क्या, पेड़-पौधे क्या, किट-पतंग क्या। जब आप इस जहाँ को देखने और समझने लगते हैं, तो राजनीती क्या, जैसे दुनियाँ से ही मोह भंग होने लगता है। फिर क्या बॉर्डर के इस पार और क्या बॉर्डर के उस पार?

अब अगर शशि थरुर और इमरान खान को ही लें, तो शायद कुछ कहें womanizers? जिसपे यहाँ-वहाँ कितने ही मीम और चुटकुले भी मिल जाएँगे। और कुछ कहें, अपने-अपने विषयों के अनोखे एक्सपर्ट्स? उसपे भी कितना कुछ मिल जाएगा। और भी बहुत कुछ हो सकता है। 

कुछ-कुछ ऐसे ही जैसे, निकोल किडमैन ब्रैस्ट सर्जरी? ये सब कैसे मिलते-जुलते हैं? वैसे ही जैसे शायद, एक आम आदमी इनके बारे में बताएगा या कोई बायोलॉजी लेक्चर अपनी किसी क्लास में? किसी को उनके निजी ज़िंदगी में मिर्च-मसालों के तड़कों के बारे में बात करना पसंद आएगा। तो शायद कोई स्वास्थ्य पर बाजार के बढ़ते दुष्प्रभावों के प्रति बताता नज़र आएगा? कितने प्रतिशत चांस फलाना-धमकाना कैंसर होने के हैं और कितने सालों या डिकेड के बाद, यही जानकर आप अपनी ब्रैस्ट ही उड़वा दो? आपके पास पैसा फालतू है शायद? और जिन्होंने ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे टेस्ट इज़ाद कर दिए, उन्हें लूटने के तरीके मालूम हैं? अब वो निकोल किडमैन या ऐसी ही कोई हस्ती है, तो शायद फर्क नहीं पड़ता?

लेकिन आम इंसान हो तो? उसे भी कहाँ फर्क पड़ता है? ये धंधा आम है और उसे खबर तक नहीं होती। अब किसको कौन-सी बीमारी होगी, ये भी कोड बताएगा? और वहाँ का कोड वाला सिस्टम उसमें सहायता करेगा? ये तो हॉस्पिटल्स और डॉक्टर्स को बदनाम करने जैसा हो गया ना? नहीं। जब सिस्टम की बात होती है तो उसमें बहुत कुछ आता है। और अहम, ज्यादातर डॉक्टर्स को भी बहुत बार पता नहीं होता और डायग्नोस्टिक के सहारे ही चलते हैं? अब इसमें कितना सच है, ये तो डॉक्टर ही बता सकते हैं। या शायद कोरोना काल, कुछ-कुछ ऐसा ही गा रहा था?    
यहाँ कौन सा गाना सही रहेगा? Save Earth by Micheal Jackson? या? ये थोड़ा ज्यादा हो गया, कोई और? 

Thursday, April 11, 2024

संतुलन जरुरी है

जैसे स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार जरुरी है। संतुलित शरीर का प्रयोग जरुरी है, चाहे वो फिर घुमना-फिरना, साईकल चलाना, तैरना, व्यायम या कसरत करना हो। वैसे ही, जितना हम अपने आसपास से, पर्यावरण से या प्रकृति से लेते हैं, कम से कम उतना, उसे वापस देना भी जरुरी है। जहाँ-जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ का वातावरण उतना ही खराब है। फिर चाहे वायु हो, पानी या ज़मीन। पेड़-पौधे हों, जीव-जंतु, या पक्षी। जीव-निर्जीव, इन सबसे किसी ना किसी रुप में आप कुछ ना कुछ लेते हैं। कुछ ऐसा जो अनमोल है, जो आपके जीवन के लिए जरुरी है। इनमें से कुछ अहम कारकों को लेते हैं।  

वायु 

आप वातावरण से ऑक्सीजन लेते हैं, जो जीवनदायी है। अगर आपके वातावरण में उसी की कमी हो जाएगी या किसी और ज़हरीली गैस की अधिकता, तो साँस कैसे लेंगे? पेड़-पौधे वातावरण को शुद्ध करने का काम करते हैं। आपके आसपास कितने हैं? इसके इलावा बहुत कुछ इस वायुमंडल में ऐसा छोड़ते हैं, जो इसको साँस लेने के काबिल नहीं छोड़ता। उसके लिए आप क्या करते हैं? यहाँ सिर्फ हरियाणा, पंजाब, दिल्ली की सरकारों के एक-दूसरे पर राजनीतिक प्रहारों की बात नहीं हो रही। ये समस्या दुनियाँ में और भी बहुत जगह है या थी। उसके लिए उन्होंने क्या उपाय किए? तो शायद पता चले, की ज्ञान-विज्ञान को राजनीती से अलग समझना कितना जरुरी है। 

क्यूँकि, राजनीतीक उसी ज्ञान-विज्ञान का दोहन करके, राजनीतिक पॉइंट्स इक्क्ठे करने के लिए कहीं ज्ञान-विज्ञान का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे? कुर्सियों के चक्कर में, हर तरह से लोगों को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहे? 

इसीलिए हर आदमी के लिए भी इकोलॉजी की समझ बहुत जरुरी है। 

पानी 

मैं एक छोटा-सा उदाहरण अपने ही गाँव का लेती हूँ। क्यूँकि, बाकी गाँवोँ या शहरों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। आपके यहाँ सप्लाई का पानी रोज आता है? कितनी बार आता है? साफ़ पीने लायक आता है? या पीने लायक नहीं होता, मगर बाकी घर के कामों के लिए प्रयोग कर सकते हैं? या इस लायक भी नहीं होता की लैटरीन तक में डालने में ऐसा लगे, की फ़ायदा क्या?

अगर आपके यहाँ सरकार साफ़ पीने लायक पानी हर रोज सुबह-श्याम, आज तक भी नहीं पहुँचा पाई, तो आप कैसी सरकारों को चुन रहे हैं, इतने सालों से? और क्यों?  

आजकल जहाँ मैं हूँ, वहाँ सप्लाई का पानी 7-10 दिन या 10-15 दिन में एक बार आता है। जी। सही सुना आपने। आजकल, वो फिर भी थोड़ा बहुत फर्श वगरैह धोने लायक होता है। दो साल पहले जब यहाँ आई, तो ऐसे लगता था जैसी गटर से पानी सप्लाई हो रहा हो। यूँ लगता था, ये सप्लाई ही क्यों करते हैं? इसका अहम कारण है, यहाँ का वॉटर सप्लाई सिस्टम, शायद मेरे पैदा होने से भी पहले का है। जितना मुझे पता है। 46 साल की तो मैं ही हो गई। मतलब, इतने सालों तक किसी ने नहीं सोचा की उसकी क्षमता बढ़ाई जाए, जनसंख्याँ के अनुपात में? कहेँगे नहर कम आती है, पानी कहाँ से आए? नहर तो शायद पहले भी इतनी ही आती थी या इससे भी कम। मगर पानी पूरा आता था। और अब जितना गन्दा भी नहीं होता था।  

जब हम छोटे थे तो यही पानी सुबह-श्याम आता था। और बहुत बार ऐसे ही बहता था। हालाँकि, पीने के पानी के लिए तब भी लोग ज्यादातर कुओं पे निर्भर थे। आजकल या तो टैंकर आते हैं पानी सप्लाई करने। वो भी सरकार के नहीं, बल्की प्राइवेट। या लोग, खेतों के हैंडपंप या समर्सिबल पर निर्भर हैं और वहाँ से लाते हैं। खेतों में भी हर जगह मीठा पानी नहीं है। जहाँ-जहाँ है, वहाँ की ज़मीन के रेट अक्सर ज्यादा होते हैं। जहाँ पे अक्सर मारकाट या धोखाधड़ी भी देखी जा सकती है। एक तरोताज़ा केस तो अभी भाई की सिर्फ दो कनाल वाली जगह का ही है। 

टैंकर सप्लाई कौन करते हैं? और कहाँ-कहाँ वाटर पुरीफायर घर पे कामयाब हो सकते हैं? ये फिर से अलग विषय हो सकता है। क्यूँकि, यहाँ पे ज्यादातर लोग घरों में भी हैंडपम्प्स या समर्सिबल पर निर्भर हैं। इसीलिए तकरीबन हर दूसरे घर में आपको ये देखने को मिलेंगे। मगर यहाँ घरों के एरिया का पानी इतना जहरीला है की बर्तनों पे दाग पड़ जाते हैं। कपड़े ढंग से साफ़ नहीं होते। दाँत पीले पड़ जाते हैं (Fluorosis) । फर्श पे पड़ेगा, तो सुखते ही सॉल्टी नमी या धब्बे। अब जब तकरीबन सब जमीन के पानी का प्रयोग करेंगे और वापस उस ज़मीन में जाएगा नहीं, तो क्या होगा? हर साल जहर का असर बढ़ता जाएगा। और बिमारियों का भी। जिनमें त्वचा की बीमारी भी हैं और बहुत-सी दूसरी भी। कम से कम, बारिश के पानी को वहीं ज़मीन में वापस पहुँचाकर, इस समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। 

या ऐसी जगहों को छोड़ के कहीं अच्छी जगह खिसको, इसका एकमात्र समाधान है? तो ऐसी जगहों की सरकारों को क्या तो वोट करना? और कैसे चुनाव? जब सारे समाधान ही खुद करने हैं? उसपे ऐसे चुनके आई सरकारें, बच्चों तक को बहनचो, माँचो, छोरीचो, भतिजीचो और भी पता ही नहीं, कैसे-कैसे कार्यकर्मों या तमाशों में उलझाए रखेंगी। इसपे पोस्ट कहीं और। Social Tales of Social Engineering में।                           

ज़मीन   

ज़मीन आपको क्या कुछ देती है? आप उसे वापस क्या देते हैं? ज़हर?

हमारे घरों से, खेतों से, फैक्ट्री-कारखानों से, कितने ही ज़हरीले कैमिकल्स रोज निकलते हैं। वो कहाँ जाते हैं? पानी के स्रोतों में और उन द्वारा ज़मीन में? या सीधा ज़मीन में? आज के युग में भी waste treatment, sewage treatment, proper disposal  या recycling जैसा कुछ नहीं है, हमारे यहाँ? क्यों? ये तो दिल्ली के आसपास के या किसी भी बड़े शहर के आसपास के गाँवोँ क्या, उस आखिरी बॉर्डर के पास या दुर्गम से भी दुर्गम जगह पे भी होना चाहिए। ज़मीन से शायद इतना कुछ लेते हैं हम। उसके बगैर हमारा अस्तित्व ही नहीं है। फिर किस बेशर्मी से उसे बदले में ज़हर देते हैं? बिमारियों की बहुत बड़ी वज़ह है ये।         

 पीछे आपने पोस्ट में पढ़ा     

इन सबमें तड़के का काम किया है, आज की टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग ने

और बढ़ते सुख-सुविधाओँ के गलत तौर-तरीकों ने। व्हीकल्स, ए.सी. (AC), घर बनाने में सीमेंट और लोहे का बढ़ता चलन। मगर, घर की ऊँचाई का कम और दिवारों का पतला होते जाना। खिड़की, दरवाजों का छोटा और कम होते जाना। बरामदों का खत्म होना। घरों का छोटा होना। पेड़-पौधों का घरों में ख़त्म होना। घरों में खुले आँगनों का छोटा होते जाना। सर्फ़, साबुन, शैम्पू, कीटनाशक, अर्टिफिशियल उर्वरक, हार्पिक, डीओज़, ब्यूटी पार्लर प्रॉडक्ट्स आदि का बढ़ता तीखा और ज़हरीला असर। और भी ऐसे-ऐसे कितने ही, गलत तरीक़े या बुरे प्रभाव या ज़हर। तो क्या इन सबका प्रयोग ना करें? जँगली बनकर रहें? करें, मग़र सही तरीके-से और सोच-समझ कर। ये जानकर, की कितना और कैसे प्रयोग करें। इतना प्रयोग ना करें, की वो जहर बन जाए। जितना इनका प्रयोग करें, उतना ही इनके दुस्प्रभावोँ को कम से कम करने के उपाय भी करें। कैसे? आगे पोस्ट में। 

इसमें से कितना इस पोस्ट में है? जनरल या आम समझ। सिर्फ लेने से काम नहीं चलेगा, वापस भी देना होगा। वापस कैसे करें? अगली पोस्ट में AC से ही शुरू करें?