मैं क्या और कहाँ-कहाँ से पढ़ती हूँ? या मुझे खबरें कहाँ से मिलती हैं?
वो भी इतना अलग-थलग (isolated) होने के बावजूद)?
अलग-थलग? पता नहीं। वक़्त और परिस्तिथियों के साथ, आपके संपर्क और सोशल-सर्कल, शायद थोड़ा-बहुत बदलता रहता है। बहुत ज्यादा नहीं, शायद।
बहुत-सी खबरें, बहुत ही indirect होती हैं। जैसे कहीं दूर कुछ चल रहा हो और कुछ वक़्त बाद ऐसा लगने लगे, ऐसा ही कुछ-कुछ यहाँ तो नहीं शुरू हो गया? या शायद जो कहीं बहुत कम है, उसका बढ़ा-चढ़ा रुप? या बिगड़ा-स्वरुप? ये लगना या अहसास होना, की शायद ऐसा कुछ चल रहा है? या कुछ तो कहीं गड़बड़ घोटाला है? एक के बाद एक, जैसे कोई सीरीज बनती जाए, तो हूबहू-सी घड़ाईयाँ समझ आने लगती हैं। उस पर अगर आपको Protein Structure Prediction या PCR या Genetic Engineering कैसे होती है, के abc पता हों, तो शायद उतना मुश्किल नहीं होता समझना, जितना किसी भी अज्ञान या अंजान इंसान के लिए हो सकता है।
जैसे नीचे दी गई ज्यादातर सूचनाएँ, यहाँ-वहाँ से ली गई हैं। कोई ऑफिस, कोई घर, कोई इधर उधर का सोशल सर्कल, कोई दूर कहीं किसी यूनिवर्सिटी का पेज या source कुछ और भी हो सकता है। जैसे किसी का कोई फ़ोन कॉल किसी के पास, या किसी कंपनी या प्रोडक्ट के नाम पे आपके पास। हो सकता है की उस वक़्त आपको ना फ़ोन करने वाले के बारे में और ना ही दी गई या सुनी या देखी गई सुचना के बारे में कुछ पता हो। मगर कुछ वक़्त बाद कुछ और देखकर या सुनकर लगे, की कहीं न कहीं, ये तो यहाँ या वहाँ मिलती-जुलती सी खबर है? ये यहाँ और वो वहाँ? या शायद ये और ये एक दूसरे से? तो मान के चलो, की वो मिलती हैं। कहीं न कहीं, कोई सन्दर्भ है। अब उस सन्दर्भ को जानने के लिए, आपको उन अलग-अलग सूचनाओं की जितनी जानकारी है, उतना ही उनसे मिलती-जुलती, हूबहू-सी लगने वाली खबर की जानकारी होगी। वो हूबहू सी घड़ाईयाँ, आसपास भी हो सकती हैं और दुनियाँ के किसी और कौने में भी।
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