गुनाह को पनाह?
या गुनाह को उकसावा?
या क्या चल रहा है ये?
कुछ तो है,
जो पिछले कुछ वक़्त से चल रहा है।
ऐसा-सा ही कुछ रितु की मौत से पहले और बाद में चला था, शायद। तब आदमी और थे। अब और हैं। मगर, वक़्त-बेवक़्त हुक्का महफ़िलें वही है। पैसे आने वाले हैं, की सुगबुगाहट तब थी। और शायद थोड़ी-बहुत फिर से है। गाँव से निकालने वाले अद्रश्य ना होते हुए भी, अद्रश्य जैसे तब थे। फिर से हैं? पैसे भी कितने? किन बेचारों को दिक्कत है, इन थोड़े से पैसों से भी? और कौन हैं, जिन्होंने रोक रखे हैं? या उससे आगे भी कोई साँग है, जो रचने की कोशिशें हो रही हैं?
या किताबें और पढ़ने-लिखने की बातें चलते ही, गँवारों के यहाँ वक़्त-बेवक़्त होक्के चलने लगते हैं? और घर या आसपास की औरतें परेशान। मगर, अहम है की ये सब करवाते कौन हैं? या जैसे हम सोचते हैं, की दुनियाँ अपने आप ही करती है? करवाएगा या करवाएँगे कौन?
No comments:
Post a Comment